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पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-8
जीते जी अपनी रचनावली देखने का सुख
2 फरवरी, 2014
रमणिका गुप्ता हिन्दी की आधुनिक महिला साहित्यकारों में से एक हैं। साहित्य, सियासत और समाज सेवा, इन तीनों ही क्षेत्रों में उन्होंने समान रूप से सक्रिय रहकर प्रसिद्धि प्राप्त की है। उनका कर्मक्षेत्र बिहार और झारखंड रहा है। रमणिका जी की लेखनी में आदिवासी और दलित महिलाओं, बच्चों की चिंता उभरकर सामने आती है। रमणिका गुप्ता के खाते में कई चर्चित पुस्तकें हैं। उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘दलित चेतना साहित्य’, ‘दलित चेतना सोच’ और ‘दलित सपनों का भारत’ में दलितों के प्रति उनका दर्द पढ़ा और महसूस किया जा सकता है। रमणिका जी त्रैमासिक (अब) हिन्दी पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ की संपादक हैं। अच्छी बात है कि उनकी उपस्थिति में ही उनकी रचनावाली 14 खंडों में आ रही है। अभी-अभी यह अच्छी ख़बर शिल्पायन प्रकाशन के भाई ललित शर्मा Lalit Sharma ने दी कि रमणिका जी की इस रचनावली का संपादन कर रहे हैं सुपरिचित लेखक भारत यायावर जी। लेखिका, संपादक और प्रकाशक तीनों को बधाई।
3 फरवरी, 2014
समय
समय सर्वाधिक अखंडित है। समय सर्वश्रेष्ठ पंडित है।
कविता प्रकाशन की वस्तु है, विज्ञापन की नहीं। यह पंक्ति एक सवाल है, जो चुपके-से मन में चुभता है। कविता क्या है? वह जो बाज़ार की दुकान पर सजती है, चमकदार पैकेट में बिकती है? या वह जो अँधेरे में टटोलती है, एक सत्य को, एक सच को, जो शोर से परे है? ‘प्रकाशन’ शब्द में रोशनी है— वह रोशनी जो कविता मन के कोनों में बिखेरती है, जहाँ सवाल जन्म लेते हैं। ‘विज्ञापन’ में शोर है, वह हड़बड़ी जो सच को ढँक लेती है। कविता विज्ञापन नहीं है। वह बिकने के लिए नहीं, जागने के लिए है।
क्या कविता को आज विज्ञापन बनाना ज़रूरी हो गया है? वह जो पाब्लो नेरूदा की तरह “The Poet’s Obligation” में समुद्र की लहरों-सा बोलती थी, मानवता को सत्य का आलिंगन देती थी— क्या उसे अब बाज़ार की बोली बोलनी होगी? नेरूदा ने कहा था, कवि का कर्तव्य है कि वह “उन तक जाये जो चुप हैं, जो गाते नहीं।” कविता वही है— चुप्पियों को तोड़ने वाली, न कि शोर को बढ़ाने वाली।
यह पंक्ति मुझे विस्लावा स्ज़िम्बोर्स्का की याद दिलाती है। उनकी कविता “Writing a Résumé” में एक व्यंग्य है— हम कैसे ख़ुद को सजाकर, छोटे-छोटे पैकेट में बाँधकर बेचते हैं। कविता ऐसी नहीं है। वह सजावट नहीं, सवाल है। वह ‘प्रकाशन’ है— वह जो रवीन्द्रनाथ की ‘गीतांजलि’ की तरह मन को मुक्ति की ओर ले जाये, न कि दुकान की ओर। टैगोर कहते थे, “जहाँ मन भयमुक्त हो, वहाँ कविता जन्म लेती है।” विज्ञापन भय बेचता है— खो देने का, पीछे छूट जाने का। कविता आज़ादी देती है।
आज कविता को विज्ञापन बनाने की होड़ है। उसे चमकदार, बिकाऊ, तुरंत पचने वाला बनाया जा रहा है। पर कविता वह नहीं जो पल में बिक जाये। वह तो नादीन गोर्डिमर की तरह है— चुपके से, संयम से, पर तीखेपन के साथ। गोर्डिमर ने अपने लेखन में सत्ता और सतह के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी, बिना शोर मचाये। कविता भी वही करती है— वह सतह को भेदती है, गहराई में उतरती है।
यह पंक्ति एक चुनौती है। कविता को विज्ञापन की चमक से बचाना होगा। वह प्रकाशन की वस्तु है— वह जो मन को, समाज को, समय को रोशनी दे। वह सवाल है, जो हमें अपने भीतर झाँकने को मजबूर करता है। वह शोर नहीं, सन्नाटा है— वह सन्नाटा जिसमें सत्य बोलता है।
4 फरवरी, 2014
शब्द: मित्र, पड़ोसी, और ख़ामोशी का जवाब
शब्द मनुष्य का सबसे बढ़िया मित्र है, जिसके पड़ोस में बहुत सारे रिश्तेदार शब्दों के घर हैं।
यह पंक्ति एक पुरानी चिट्ठी-सी लगती है— शब्द को मित्र कहना, और उसके पड़ोस में रिश्तेदार शब्दों के घर देखना। पर आज, जब शब्द स्क्रीन पर चमकते हैं, लाइक और शेयर की हड़बड़ी में उलझे हैं, तो सवाल उठता है: क्या शब्द अब भी मित्र है? या बस एक पड़ोसी, जिसका दरवाज़ा हम औपचारिकता में खटखटाते हैं? आज का समय शब्दरहित नहीं, शब्दों से भरा है— मगर वे शब्द जो शोर हैं, सत्य नहीं।
“शब्द मनुष्य का सबसे बढ़िया मित्र है”— यह बात तब सच थी, जब शब्द गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की तरह कहानी बुनते थे। उनकी “One Hundred Years of Solitude” में शब्द समय को पकड़ते हैं, मनुष्य की स्मृति को। मार्केस के शब्द मित्र थे— वे अकेलेपन को आवाज़ देते थे। पर आज, जब शब्द ट्वीट की गिनती में सिमट गये, इमोजी की चमक में खो गये, क्या वे मित्र बचे हैं? या बस भीड़ का हिस्सा बन गये, जो चिल्लाती है, मगर कुछ कहती नहीं?
“पड़ोस में बहुत सारे रिश्तेदार शब्दों के घर हैं”— हँसी आती है और चिंता भी। यह पड़ोस आज का सोशल मीडिया है, जहाँ शब्दों के घर तो हैं, पर उनमें आत्मीयता नहीं। ये शब्द विज्ञापन हैं, ट्रेंड हैं, मगर सवाल नहीं। मुझे टोनी मॉरिसन की याद आती है। उनकी “Beloved” में शब्द चुप्पियों को तोड़ते हैं, दर्द को आवाज़ देते हैं। मॉरिसन ने कहा था, “हम शब्दों से जीते हैं, उनसे प्यार करते हैं।” पर आज का पड़ोस शब्दों का नहीं, शोर का है। शब्द रिश्तेदार बन गये— जिनसे मिलना ज़रूरी है, पर बातचीत नहीं।
आज शब्दों को मित्र कम, सौदा ज़्यादा बनाया जा रहा है। हम उन्हें बेचते हैं, ख़रीदते हैं, मगर उनकी दोस्ती भूल जाते हैं। यह मुझे जॉर्ज ऑरवेल की याद दिलाता है। उनकी “1984” में शब्द सत्ता के हथियार थे, सत्य को तोड़ने वाले। ऑरवेल ने चेताया था: शब्द जब सच को छिपाएँ, तो वे मित्र नहीं, दुश्मन बनते हैं। आज के समय में शब्दों का दुरुपयोग वही है— वे लुभाते हैं, मगर सत्य से दूर ले जाते हैं।
फिर भी, शब्दों में उम्मीद है। सलमान रुश्दी की तरह, जो “Midnight’s Children” में शब्दों से इतिहास को जीवंत करते हैं। रुश्दी ने लिखा, “शब्द याद रखते हैं, जब हम भूल जाते हैं।” शब्द तब मित्र हैं, जब वे हमें ख़ुद को याद दिलाएँ। पर इसके लिए हमें उनके पड़ोस को बचाना होगा— उसे शोर से, चमक से, सतहीपन से।
यह पंक्ति एक सवाल है: क्या हम शब्दों के मित्र बन सकते हैं? या उन्हें रिश्तेदार बनाकर छोड़ देंगे? शब्द तब मित्र है, जब वह सन्नाटे में सत्य को टटोलता है। वह तब पड़ोसी है, जब उसके घर में विचार बसते हैं। आज के शब्दरहित समय में, शब्द को दोस्त बनाना होगा— वह जो हमें सोचने को मजबूर करे, चिल्लाने को नहीं।
मछली का आँसू और पानी की करुणा
आज सुबह, एक पंक्ति मन में अटक गई : “मछली के आँसुओं को भले ही पानी नहीं देख पाता पर वह पानी ही है, जो उसकी पीड़ा को शिद्दत से महसूस करता है।” यह वाक्य कितना सरल है, फिर भी कितना गहरा। मछली का आँसू— वह अनदेखा दुख, जो पानी की गोद में खो जाता है। और पानी— वह साक्षी, जो बिना देखे सब कुछ जान लेता है। क्या यह प्रकृति और मनुष्य के बीच का कोई अनकहा संवाद नहीं?
मछली का आँसू मुझे उस पीड़ा की याद दिलाता है, जो हमारी आँखों से छिपी रहती है। जैसे कोई चुपके-से रोये और दुनिया उसकी आवाज़ न सुने। पर पानी की यह ख़ामोश सहानुभूति कितनी बड़ी सांत्वना है। वह मछली के दुख को अपने में समेट लेता है, बिना सवाल किये, बिना शोर मचाये। क्या यह करुणा का वह रूप नहीं, जो बिना शब्दों के जीवंत रहता है? कबीर की वह पंक्ति— “बिन देखे सृष्टि की माया, क्या जाने उसकी काया”- यहाँ कितनी सटीक बैठती है। पानी देखता नहीं, मगर उसका स्पर्श मछली की पीड़ा को समझ लेता है।
प्रकृति में यह करुणा हर कहीं बिखरी है। नदी जो पत्थरों के किनारों को सहलाती है, वह उनके घावों को नहीं देखती, मगर उन्हें ठंडक देती है। हवा जो पेड़ों की पत्तियों से गुज़रती है, वह उनकी थकान को नहीं गिनती, मगर उन्हें हल्का कर देती है। मछली और पानी का यह रिश्ता उसी करुणा की एक कड़ी है। पर हम मनुष्य? हमारी आँखें कितनी बार दूसरों के आँसुओं को देखने से चूक जाती हैं। शायद हमें पानी से सीखना होगा— वह जो बिना आँखों के देखता है, बिना कानों के सुनता है।
यह पंक्ति मुझे टॉल्स्टॉय की उस बात की याद दिलाती है, जब उन्होंने कहा था सच्ची करुणा वही है जो बिना प्रदर्शन के दूसरों के दुख को अपने में समेट ले। पानी वही करता है— वह मछली के आँसुओं को नहीं गिनता, न उनकी चर्चा करता है। वह बस उन्हें अपने में जगह देता है, जैसे कोई पुराना दोस्त चुपके-से तुम्हारा हाथ थाम ले। क्या हमारी संवेदनाएँ ऐसी हो सकती हैं? क्या हम बिना शब्दों, बिना प्रदर्शन के, किसी की पीड़ा को महसूस कर सकते हैं?
मछली का आँसू और पानी की यह ख़ामोश साझेदारी मुझे मनुष्य और प्रकृति के बीच के रिश्ते पर सोचने को मजबूर करती है। हम प्रकृति में जीते हैं, उसके बीच तैरते हैं, जैसे मछली पानी में। हमारे दुख, हमारे आँसू, शायद प्रकृति देखती नहीं, मगर वह उन्हें अपने में समेट लेती है। हवा में, नदी में, पेड़ों की छाँव में, कहीं न कहीं हमारी पीड़ा दर्ज होती है। शायद यही वह सांत्वना है, जो हमें जीने की ताक़त देती है।
सिर्फ़ मछली और पानी की बात नहीं। यह उस अनदेखे दुख की बात है, जो हर जीव के भीतर बसता है। और उस अनकही करुणा की, जो दुनिया में बिना नाम के मौजूद है। पानी की तरह, शायद सीखना होगा— दुख को देखने की नहीं, उसे महसूस करने की कला।
5 फरवरी, 2014
दिन : अच्छे-बुरे
बुरे दिन का मतलब घर में साँप का कुंडली मारकर बैठ जाना और भले दिन यानी आँगन में खरगोश और गिलहरी का कुलाँचे भरना।
भाषा ही संसार का संस्कार और व्यवस्थापन है
भाषा ही संसार का संस्कार और व्यवस्थापन है। भाषा की गहन शक्ति ही है, जो न केवल विचारों को आकार देती है, बल्कि मानव सभ्यता के संपूर्ण ताने-बाने को संरचित करती है। भाषा मात्र संवाद का माध्यम नहीं- संस्कृति का वह जीवंत धागा है, जो अतीत को वर्तमान से और वर्तमान को भविष्य से जोड़ता है। यह संसार के अनुभवों, संवेदनाओं और सपनों का वह कैनवास है, जिस पर मानव मन अपनी छवि उकेरता है।
शब्द केवल ध्वनियाँ नहीं, बल्कि एक गहरी संवेदनशीलता के वाहक हैं, जो सामाजिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक संदर्भों को संनादित करते हैं। भाषा को ‘संस्कार’ के रूप में देखना एक गहरे दृष्टिकोण पर विश्वास करना है। संस्कार, अर्थात् वह शुद्धिकरण और परिष्करण, जो व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाता है। भाषा के माध्यम से ही हम अपनी पहचान, मूल्यों और विश्वासों को परिभाषित करते हैं। यह वह प्रक्रिया है, जो अराजकता को व्यवस्था में बदलती है, जैसा कि टी.एस. एलियट ने अपनी कविता Four Quartets में कहा, “Words strain/Crack and sometimes break, under the burden…”– शब्द दबाव में तनते हैं, टूटते हैं, परंतु उसी टूटन में अर्थ की नयी संभावनाएँ जन्म लेती हैं।
भाषा का ‘व्यवस्थापन’ केवल संरचना या नियमों तक सीमित नहीं है। यह मानव चेतना का वह अनुशासन है, जो विचारों को तार्किकता और संवेदना के बीच संतुलन प्रदान करता है। रिल्के ने अपनी कविता में भाषा को एक ऐसी शक्ति माना, जो “अदृश्य को दृश्यमान बनाती है।” भाषा के बिना संसार एक अव्यवस्थित शून्य में परिवर्तित हो जाता, जहाँ न संवेदना का आदान-प्रदान संभव होता, न ही सभ्यता का विकास। यह भाषा ही है, जो हमें मीर के इस शे’र की तरह आत्म-चिंतन की ओर ले जाती है:
मीर के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो, उनने तो
कश्का खींचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया
यहाँ भाषा न केवल व्यक्तिगत आस्था को व्यक्त करती है, बल्कि सामाजिक सीमाओं को तोड़कर एक व्यापक मानवीय संवेदना का निर्माण करती है- भाषा की साधारणता में उसकी असाधारण शक्ति को रेखांकित करती है। भाषा वह उपकरण है, जो हमें सामाजिक अन्याय, दमन और विसंगतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की शक्ति देती है। पाब्लो नेरूदा ने कहा है- “कविता एक विद्रोह है।” और यह विद्रोह भाषा के बिना संभव नहीं। भाषा वह हथियार है, जो न केवल क्रांति को जन्म देती है, बल्कि उसे व्यवस्थित भी करती है। अधिनियमित करती चलती है।
भाषा केवल शब्दों का समूह नहीं, बल्कि वह जीवंत प्राण है, जो संसार को संस्कारित और व्यवस्थित करता है। यह वह सेतु है, जो मानव मन को विश्व की आत्मा से जोड़ता है। भाषा ही हमें उस अनंत संभावना की ओर ले जाती है, जहाँ शब्द न केवल संसार को समझाते हैं, बल्कि उसे पुनर्सृजित भी करते हैं।

जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।
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