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शाइरी की रेल-शब्दों के पुल

        प्रत्येक कलाकार इस तथ्य की पुष्टि करेगा कि वे विशेष क्षण होते हैं, जब मन-मस्तिष्क एक आवेश से संचालित होकर कला के नये धरातल और नयी सूक्ष्मताओं को चिह्नित करता है और उसके सौंदर्य-बोध को अपने माध्यम से प्रकट करने में जुट जाता है। प्रकट करने की यह प्रक्रिया इस विशेष क्षण से आरम्भ अवश्य होती है लेकिन इसी क्षण पर समाप्त नहीं होती। कलाकार बार-बार उस विशेष क्षण की अनुभूतियों के प्रत्येक आयाम को अलग-अलग कोण से देखता है, परखता है और अपनी कृति के लिए आवश्यक बोध बटोरकर, उसके कलात्मक प्रकटीकरण के लिए प्रयास करता है। इस प्रयास में अभ्यास और कौशल उसकी सहायता करते हैं। कभी-कभी यह होता है कि दुर्निवार कारणों से अभिव्यक्ति स्पष्ट होते हुए भी अधूरी लगती है। शे’र कहने की कला में यह अधूरापन त्याज्य है। आवश्यक या सटीक शब्दों के छूट जाने के बारे में पहले बात की जा चुकी है। यहां एक विशेष स्थिति के बारे में उल्लेख है। दुष्यंत कुमार का एक लोकप्रिय शे’र है:

तू किसी रेल-सी गुज़रती है

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं

         इस शे’र पर ज़रा ग़ौर कीजिए। क्या किसी शब्द की कमी है? ज़रा पहली पंक्ति में “जब” जोड़कर शे’र पढ़िए।

जब तू किसी रेल-सी गुज़रती है

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं

        अब ये बे-बहर हो गया। ठीक बात है। उसका ध्यान रखना शाइर का काम है। चलिए यूं कह के देखते हैं:

जब भी तू रेल-सी गुज़रती है

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

         क्या इसके बाद यह तार्किक शे’र हुआ है? रेल जब पुल से होकर गुज़रेगी क्या तभी यह सत्य होगा? ‘रेल की तरह’ और ‘पुल की तरह’ कहा जा रहा है। यहां बात यह नहीं है कि वह रेल है और मैं पुल। इस सूरत में तुलना आसान थी। शे’र की पहली पंक्ति यह भी नहीं कहती कि तू रेल-सी है। टेक्स्ट कहता है तू किसी रेल की तरह गुज़रती है। यह प्रेज़ेंट इनडेफिनेट का वाक्य है। यह तेरी आदत है। मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ, यह मेरी आदत है। यह थरथराना तेरे कारण है या नहीं इस पर शे’र में कोई बात नहीं आयी। इस शे’र को और छोटा करके देखते हैं।

तू गुज़रती है  /  मैं थरथराता हूं 

          इसमें भी कोई पूछे “कब”, तो उत्तर होगा हमेशा। इस प्रक्रिया को सीमित करने वाला कोई शब्द नहीं है। फिर कोई पूछे “कहाँ से” तो टेक्स्ट ख़ामोश है। तू कहीं से, कभी भी गुज़रे, मैं थरथराता हूँ- शाइर यह कहना चाहता है? बिल्कुल नहीं। टेक्स्ट में तो ऐसा कोई शब्द नहीं आया। वह अगर लंदन से गुज़रे तो क्या मैं करोल बाग़ में थरथराऊंगा। इससे शे’र में उपस्थित बिम्ब को हानि पहुंचेगी। एक अन्य सरल तरीक़े से समझने के लिए मूल शे’र की दोनों पंक्तियों के शब्दों को (बग़ैर एक भी नये शब्द के) आगे-पीछे रखकर देखिए। यह भी एक तरीक़ा है, जो कभी-कभी काम आता है।

तू किसी गुज़रती रेल-सी है

मैं किसी थरथराते पुल-सा हूं

         क्या मूल शे’र में उद्धत तथ्य यही है। नहीं है- अब कथ्य में परिवर्तन हुआ है तेवर में भी। पहली पंक्ति का अर्थ वह नहीं रहा जो मूल शे’र की पंक्ति का है। मूल शे’र की पहली पंक्ति में ‘रेल-सा गुज़रना’ अलग बोध लिये हुए है। धड़धड़ाते हुए गुज़रना। “गुज़रना” पर स्ट्रेस है… इस जगह यह कहना अत्यंत आवश्यक है कि यह शे’र सबसे अधिक चर्चित शे’रों में से एक है। इस शे’र में उपस्थित बिम्ब इतना दिलकश है कि पाठक को बस कुछ “की वर्ड्स” मिलते ही वह भाव-विभोर हो जाता है और शेर की संवेदना से जुड़ जाता है। कम रुक़्न वाले शे’र में पूरी बात स्पष्टता से कह पाना दुष्कर होता है। यहाँ बात यह है कि मूल शे’र वास्तव में एक सानी मिसरा है। इसे एक पहली पंक्ति चाहिए। जैसे

जाने क्या जोश तेरे भीतर जाने क्या बोझ है मेरे सर पर

तू किसी रेल-सी गुज़रती है मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

या

ज़िंदगी! देख कुछ नहीं बदला तेरा जलवा है आज भी क़ायम

तू किसी रेल-सी गुज़रती है मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं

         क्या अब ये शे’र अधिक पूर्ण और स्पष्ट हैं? मूल रूप में ही यह कालजयी शे’र आने वाली पीढ़ियों को रोमांचित करता रहेगा। इसकी प्रासंगिकता अक्षुण्ण रहेगी। यहाँ ध्येय उस तथ्य की ओर संकेत करना है, जिस पर आम ग़ज़ल प्रेमी का ध्यान नहीं जाता। शायरी के इतिहास में ऐसे अनेक मिसरे हैं, जो लोकप्रिय हैं और पूरी रचना पर भारी पड़ते हैं। वे साथी मिसरे के बग़ैर भी लोगों के ज़ेह्न में रहते हैं। जैसे :

“ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो”

“न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम”

“मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना”

         शेर संक्षिप्तता की मांग अवश्य करता है लेकिन कभी जगह की कमी, कभी जाने-अनजाने कुछ ऐसा छूट जाता है जिस ओर संकेत आवश्यक होता है। आजकल एक रुक़्न के शे’र भी प्रचलन में हैं। इतनी कम जगह में ऐसा क्या कहना है हमें? क्या विवशता है? क्या शे’र कहना कोई कौतुक है?

विजय कुमार स्वर्णकार

विजय कुमार स्वर्णकार

विगत कई वर्षों से ग़ज़ल विधा के प्रसार के लिए ऑनलाइन शिक्षा के क्रम में देश विदेश के 1000 से अधिक नये हिन्दीभाषी ग़ज़लकारों को ग़ज़ल के व्याकरण के प्रशिक्षण में योगदान। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियंता की भूमिका के साथ ही शायरी में ​सक्रिय। एक ग़ज़ल संग्रह "शब्दभेदी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। दो साझा संकलनों का संपादन। कई में रचनाएं संकलित। अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित।

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