
- April 30, 2025
- आब-ओ-हवा
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रस उन आँखों में है, कहने को ज़रा-सा पानी...
आरज़ू लखनवी का शुमार उन शायरों में होता है, जिन्होंने न सिर्फ़ अपना नाम उर्दू अदब में सुनहरे हुरूफ़ में लिखवाया, बल्कि उनके मधुर गीतों ने हिन्दी सिनेमा के इब्तिदाई दौर को मालामाल किया। आरज़ू लखनवी के नग़मों के शैदाई उनके समकालीन मूसीकार अनिल विश्वास, केदार शर्मा, नौशाद से लेकर शायर-नग़मा निगार साहिर लुधियानवी भी थे। नौशाद ने अपने एक इंटरव्यू में उनकी तारीफ़ में कहा था, ‘फ़िल्मों में गीत लिखने वाला सिर्फ़ एक ही बेजोड़ शायर हुआ, आरजू़ लखनवी।’ साहिर भी उन्हें सबसे बड़ा फ़िल्मी गीतकार मानते थे। अनिल विश्वास अपने इंटरव्यू में अक्सर उनके गीतों का ज़िक्र करते थे। सुपरहिट फ़िल्म ‘देवदास’ के गाने ‘बालम आए बसो मोरे मन में’, ‘दुःख के दिन बीतत नाहीं’ वग़ैरह, जिन्होंने सिंगर केएल सहगल की आवाज़ को मुल्क में घर-घर तक पहुंचा दिया, वो आरज़ू लखनवी ही की क़लम से निकले थे। इन गीतों के अलावा ‘करूं क्या आस निरास भई’, ‘पिया मिलन को जाना’, ‘जग में चले पवन की चाल’ जैसे मानीखे़ज़ गीतों के रचयिता भी आरज़ू लखनवी थे। उनके लिखे गीत और केएल सहगल, पंकज मलिक, केसी डे, कानन बाला की जादुई आवाज़ जब मिली, तो हिन्दी सिने संगीत अपने उरूज पर पहुंच गया। आलम यह था कि ये गाने पूरे मुल्क में गुनगुनाये जाते थे। घर-घर चर्चे होते थे। इनकी मक़बूलियत, कैफ़-ओ-असर में कोई कमी नहीं आयी। ये गाने आज भी झूमने पर मजबूर कर देते हैं।
फ़िल्म कंपनी ‘न्यू थियेटर्स’ के लिए उन्होंने उन्नीस फ़िल्मों में गीत लिखे। आम बोलचाल की ज़बान में लिखे, आरज़ू लखनवी के गीत जल्द ही लोगों की ज़बान पर चढ़ जाते थे। ‘स्ट्रीट सिंगर’ वह पहली फ़िल्म थी, जिसमें लिखे उनके सारे गाने सुपरहिट हुए। सहगल और कानन देवी की आवाज़ और आरज़ू लखनवी के गीतों ‘रुत है सुहानी मस्त हवाएं, छायी हैं ऊदी ऊदी घटाएं’, ‘सांवरिया प्रेम की बंसी सुनाये’, ‘जीवन बीन मधुर न बाजे झूठे पढ़ गये तार’ ने खू़ब जादू जगाया। साल 1939 में आई फ़िल्म ‘दुश्मन’ के गीत भी सुपरहिट हुए। ख़ास तौर पर सहगल का गाया ‘करूं क्या आसनिरास भई’।‘न्यू थियेटर्स’ की फ़िल्मों में आरज़ू लखनवी के कुछ और हिट गीत हैं- ‘दीवाना हूं दीवना हूं, राहत से मैं बेगाना हूं’ (फ़िल्म-ज़िंदगी), ‘कैसे कटे रतिया बालम’ (लगन), ‘यूं दर्द भरे दिल की आवाज़ सुनाएंगे’ (कपाल कुंडला),‘गुज़र गया वो ज़माना कैसा’ (डॉक्टर), ‘मस्त पवन शाखें लहराएं’ (हार जीत), ‘मदभरी रुत जवान है’, ‘ये कौन आया आज सवेरे सवेरे’, (नर्तकी)।
आरज़ू लखनवी अपनी ग़ज़लों, गीतों के लिए ही जाने जाते हैं, लेकिन उन्होंने नज़्में भी बेशुमार लिखीं। यही नहीं, उन्होंने शायरी की हर सिन्फ़ में लिखा। क़सीदा, मसनवी, रुबाई और मरसिये लिखने पर भी उन्हें महारत हासिल थी। उर्दू शायरी में आरज़ू लखनवी का एक अलग ही मुक़ाम है। उन्होंने अपनी शायरी में कई अनूठे प्रयोग किये। क्या अरबी, फ़ारसी के अल्फ़ाज़ों के बिना ग़ज़ल का तसव्वुर किया जा सकता है? लेकिन आरज़ू लखनवी ने शायरी में इसे मुमकिन कर दिखाया। ‘सुरीली बांसुरी’ में उनकी ऐसी ग़ज़लें शामिल हैं, जिनमें न तो अरबी, फ़ारसी ज़बान के लफ़्ज़ हैं और न ही उसकी कोई तराक़ीब और तशबीहात (उपमाएं)। महज़ लखनवी मुहावरों के बल पर उन्होंने शायरी में वो कशिश पैदा की, कि लोगों ने उनके हुनर का लोहा मान लिया। सरल ज़बान में वे अपने जज़्बात को बड़ी ही ख़ूबसूरती से पेश कर जाते थे। यह उनका ऐसा कारनामा है, जो हमेशा याद रखा जाएगा। हिंदुस्तानी ज़बान की तरक़्क़ी के लिहाज से उनका यह अहमतरीन काम था। उनके इस क़दम से हिन्दी-उर्दू क़रीब आयीं। एक ऐसी ज़बान अमल में आयी, जो अवाम को पसंद थी। साल 1930 में इस पाबंदी के साथ उनकी पहली ग़ज़ल ‘नैरंग-ए-ख़याल’ में शाए हुई। उसके बाद ये सिलसिला शुरू हो गया। इसी रंग में उन्होंने एक के बाद एक काफ़ी ग़ज़लें लिखीं। जो आम लोगों को ख़ासी पसंद आयीं। इन ग़ज़लों के अशआर अवाम की ज़बान पर चढ़ गये। ख़ालिस उर्दू कहें या फिर हिंदुस्तानी इस ज़बान को लिखने में आरज़ू लखनवी का कोई जवाब नहीं था। ‘जिसने बना दी बांसुरी गीत उसी के गाये जा/सांस जहॉं तक आये-जाये एक ही धुन बजाये जा।’, ‘रस उन आँखों में है, कहने को ज़रा सा पानी/सैकड़ों डूब गये, फिर भी है उतना पानी।’

जाहिद ख़ान
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से लेखन की शुरुआत। देश के अहम अख़बार और समाचार एवं साहित्य की तमाम मशहूर मैगज़ीनों में समसामयिक विषयों, हिंदी-उर्दू साहित्य, कला, सिनेमा एवं संगीत की बेमिसाल शख़्सियतों पर हज़ार से ज़्यादा लेख, रिपोर्ट, निबंध,आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित। यह सिलसिला मुसलसल जारी है। अभी तलक अलग-अलग मौज़ूअ पर पन्द्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ‘मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मिला है। यही नहीं इस किताब का मराठी और उर्दू ज़बान में अनुवाद भी हुआ है।
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