
देवेंद्र आर्य की शायरी
समकालीन काव्य में देवेंद्र आर्य का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वह उन बहुत कम शायरों में शुमार हैं जिन्होंने गीत, ग़ज़ल और गद्य कविता तीनों विधाओं में ही अपनी एक शिनाख़्त बनायी है। 18 जून उनकी सालगिरह है, आब-ओ-हवा की ओर से असीम शुभकामनाएं। अपने समय को बयान करना आर्य की शायरी का प्रमुख स्वर है, जो हिन्दी कवियों द्वारा कही जा रही ग़ज़लों का भी एक प्रमुख लक्षण है। चूंकि समाज का सांप्रदायिक ताना-बाना एक समसामयिक विषय है, सो यहां इसी के इर्द-गिर्द के एहसासों से लबरेज़ उनके चुनिंदा अशआर प्रस्तुत हैं…
हमारे बीच वो मौसम कभी कभार आया
कि तू विरथ हुआ मैं भी कवच उतार आया – देवेंद्र आर्य
जैसे भाषा में बोलियां हैं सा’ब
वैसे ही मुल्क में मियां हैं सा’ब
साथ सदियों से रहते आये मगर
अब भी सदियों की दूरियां हैं सा’ब- देवेंद्र आर्य
बहुत आगे थे हम सौ साल पहले
थी आंखों में शरम सौ साल पहले – देवेंद्र आर्य
नदी कुआं चापाकल जो कुछ है अपने भीतर ही है
हमने पीकर देख लिया है घाट घाट का पानी भी – देवेंद्र आर्य
कोई न महादेव न यीसू न अली है
रब वक़्त गुज़ारे के लिए मूंगफली है – देवेंद्र आर्य
देवेन्द्र आर्य की शायरी आज के समय की आइना है जिसे हर शख़्स ख़ुद के साथ आसपास के माहौल को देख सकता है । देवेन्द्र आर्य मूलतः जनवादी कवि हैं इसलिए आमजन की बात उनकी हर शायरी में दिखती है ।
शुरुआती दौर में देवेन्द्र आर्य एक गीतकार हुआ करते थे लेकिन उनके गीत भी आम आदमी के इर्द-गिर्द घूमा करती थी । आम आदमी की छोटी से छोटी समस्या जो भूख से आरम्भ होकर मेहनतकश के पसीने में डूबी शायरी उसकी कीमत माँगती है ।