
- June 20, 2025
- आब-ओ-हवा
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फ़िल्म समीक्षा: यह मलयालम मूवी आपने नहीं देखी तो ज़रूर देखिए
‘द ग्रेट इंडियन किचन’- नाम से आभास होता है कि इसमें सम्पूर्ण भारत के मशहूर व्यंजनों की भरमार होगी और शायद एक कुकरी शो जैसा कुछ होगा। पर असल में यह फ़िल्म एक आम भारतीय नारी की वेदना, अस्मिता और आत्म-सम्मान की कहानी है, जिससे आम भारतीय नारी आये-दिन प्रभावित और प्रताड़ित रहती है। मज़े की बात कि यह प्रताड़ना कहीं-न-कहीं और किसी-न-किसी रूप में हम सबके सामने है और फिर भी हम अनजान बने रहते हैं।
फ़िल्म का कथानक एकदम सीधा है- एक अपेक्षाकृत खुले विचार वाले परिवार की लड़की सम्पन्न लेकिन थोड़े दक़ियानूसी परिवार में ब्याह दी जाती है। हालांकि वो अपने आपको नये परिवेश में ढालने की पूरी कोशिश करती है लेकिन पुरुषप्रधान सत्ता आड़े आती है।
कथानक
फ़िल्म की शुरूआत आकर्षक मोंताज से होती है, जिसमें पार्श्व में मधुर संगीत में नायिका (निमिषा सजयन) के नृत्य करते हुए शॉट्स और रसोई में बनते व्यंजन के क्लोज़-अप के तेज़ इंटरकट्स हैं। फिर लडक़ी देखने की पारंपरिक रस्म ‘पेन्नु कानल’ और ‘कट टू’ शादी। ज़बर्दस्त शुरूआत के बाद आती है रोज़मर्रा की ज़िंदगी, जिसमें नवविवाहिता धीरे-धीरे रवायती गृहिणी बनने लगती है। अक्सर लड़कियों से माँएं कहती हैं कि ‘मर्द के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है इसलिए बढ़िया खिलाकर ख़ुश रखो पति को।’
उसकी सास अपने पति की आगे-से-आगे बढ़कर ख़िदमत करती है मसलन टूथ ब्रश, पेस्ट लाकर देती है, जूते लाकर रखती है, सिल पर चटनी पीसती है, भट्टी में चावल पकाती है, गरम-गरम खाना परोसती है आदि-आदि। उसका पति (सूरज वेंजरामूडू) भी अपने पिता से अलग नहीं है। पूरा दिन रसोई चालू रहती है यहाँ और मर्द किसी भी काम में हाथ भी नहीं लगाते। ये सब उसके लिए नया है, अलहदा है।
बेटी की प्रसूति के लिए सास के जाते ही सारी ज़िम्मेदारी उसके ऊपर आ जाती है। वो भी पूरी कोशिश करती है लेकिन हर बात में टोका-टाकी शुरू हो जाती है। मसलन, ससुर (टी सुरेश बाबू) कहते हैं चटनी सिल पर बनाया करो, मिक्सी में मज़ा नहीं आता, इसी तरह चावल कुकर की बजाय भट्टी में पकाओ, कपड़े वॉशिंग मशीन में मत धो, घिस जाएंगे आदि। बाप-बेटे खाना खाते समय हड्डी के टुकड़े और कंद आदि चूसकर मेज़ पर ही छोड़ देते हैं। बर्तन धोते-धोते सिंक भर जाता है। सिंक के पाइप से टपकन भी शुरू हो जाती है लेकिन उसका पति प्लम्बर को नहीं बुलाता। अपनी इस चर्या से वह इतना ऊब चुकी है कि नितांत निजी पलों में भी उसे भरे सिंक की बू आती है।
पूरी फ़िल्म में 80 फ़ीसदी किचन और खाने के दृश्य हैं, जिनमें खाने की तैयारी, खाना बनाना, खाना परोसना, खाना खाना, टेबल समेटना और फिर बर्तन धोना और साफ़-सफ़ाई आदि। लेकिन इसमें खाने का रोमांस नहीं हैं बल्कि खाने से उपजी वितृष्णा का बेहद प्रभावी चित्रण है। एक रेस्तरां में करीने से खाना खाते देख पति से वह कहती है कि जब रेस्तरां में टेबल मैनर्स का पालन करते हो तो घर में क्यों नहीं? पति को यह बात नागवार गुज़रती है और वह ज़बरदस्ती माफ़ी मंगवाता है।
वह नृत्य सिखाना चाहती है, लेकिन ससुर और पति दोनों राज़ी नहीं हैं। पति बिना उसे बताये सबरीमाला का व्रत रख लेता है जो कि 41 दिन का कठिन व्रत होता है और उसमें ब्रह्मचर्य सहित कई कड़े नियम-अनुशासन का पालन करना होता है। पति के व्रत शुरू होने के पूर्व रात्रि वह रति क्रीड़ा में अरुचि दर्शाती है और पूर्व यौन क्रीड़ा की मांग करती है। इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से विस्मित रूढ़िवादी पति और ख़फ़ा हो जाता है। फिर शुरू होता है व्रत-अनुष्ठान आधारित आडम्बरों का सिलसिला जो उसकी बर्दाश्त के बाहर हो जाता है।
फ़िल्म का अंत बताकर आपकी दिलचस्पी कम नहीं करना चाहता। अलबत्ता इतना ज़रूर कहे देता हूँ कि अंत सुखद भी है और दुःखद भी।
परदे के पीछे
चलिए अब फ़िल्म के सिनेमाई शिल्प और तकनीकी पक्ष पर बात की जाये। सबसे पहले इतनी सरल, सहज और सच्ची फ़िल्म के लिए लेखक-निदेशक जियो बेबी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने बिना अनावश्यक ताम-झाम के इतनी ख़ूबसूरत फ़िल्म बनायी। बेबी को फ़िल्म बनाने का ख़याल उनकी शादी के बाद आया जब उन्होंने महसूस किया कि पत्नी का ज़्यादातर वक़्त रसोई में ही बीतता है। उनकी बहन ने भी यही बात दोहरायी। तभी जियो ने फ़िल्म का नामकरण मुक़र्रर कर लिया था- द ग्रेट इंडियन किचन।
फ़िल्म की सबसे ख़ास बात है कि इसमें किसी भी पात्र का कोई नाम नहीं है। बेबी कहते हैं कि ये तो सभी औरतों की कहानी है इसलिए कोई नाम नहीं दिया गया। मात्र सवा करोड़ लागत की यह लो-बजट फ़िल्म कोझिकोड में सिर्फ़ 25 दिन में शूट की गयी।
मुख्य कथानक के साथ स्त्रियों के सबरीमाला में प्रवेश के कोर्ट के फ़ैसले और उस पर समाज की असहमति के बरअक्स सामाजिक-राजनीतिक नज़रिया और विरोध आदि प्रसंग रुचिकर हैं और बड़ी चतुराई से शामिल किये गये हैं। नायिका को भी उन दिनों की प्रताड़ना झेलते दिखाया गया है। आधी फ़िल्म के बाद तक आप पति से नफ़रत-सी करने लगते हैं। बावजूद इसके पति और ससुर द्वारा मारपीट नहीं दिखाकर अनावश्यक बनावटी मेलोड्रामा से बचा लाये निर्देशक।
तकनीकी पहलू
किचन और खाने के दृश्य बहुत ही करीने से लिये गये हैं, जिसके लिए प्रोडक्शन डिज़ाइन और आर्ट डिपार्टमेंट ने बहुत मेहनत की है। सिनेमेटोग्राफ़र सालू के. थॉमस ने जब यह फ़िल्म शूट की, तब वह सत्यजीत रे फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान, कोलकाता में सिनेमेटोग्राफ़ी का कोर्स कर रहे थे। फिर भी कैमरे पर उनकी पकड़ और फ़्रेमिंग में एक परिपक्वता स्पष्ट परिलक्षित होती है। पैनासोनिक लुमिक्स एस-1 एच कैमरे से शूट किया गया हर शॉट एकदम संतुलित और प्रभावी है। ख़ासतौर पर टॉप एंगल शॉट्स। सालू बताते हैं कि नायिका की रोज़मर्रा की एक-सी और उबाऊ चर्या दर्शाने की एक दृश्य-भाषा के तौर पर टॉप एंगल शॉट्स का इस्तेमाल किया, जिनमें खाना बनाना, जूठी-गंदी टेबल, बर्तनों का ढेर, पोछा और नीरस प्रणय आदि शामिल हैं। इसका विचार मुख्यतः खाने की प्रचलित टेबल टॉप फ़ोटोग्राफ़ी से आया।
म्यूज़िक और साउंड डिज़ाइन में इस फ़िल्म में एक अप्रतिम प्रयोग किया गया, जो सौ फ़ीसदी सफल रहा है। पूरी फ़िल्म में पार्श्व संगीत की जगह किचन साउंड का ही उपयोग किया गया है। रसोई के अलग-अलग स्वाद की अलग-अलग ध्वनियां भी एक संगीत की तरह ही महसूस होती हैं और पूरी फ़िल्म में जुड़ाव बनाये रखती है। शुरूआती गीत बहुत मधुर है और आख़िर में नृत्य संयोजन, वेशभूषा एवं संगीत अति आकर्षक है।
फ़िल्म के तीन प्रमुख पात्र- नायिका (निमिषा सजयन), उसका पति (सूरज वेंजरामूडू) और ससुर (टी सुरेश बाबू) का चयन और उनका ग़ैर बनावटी बेसाख़्ता अभिनय फ़िल्म को नयी ऊंचाई देता है। द ग्रेट इंडियन किचन हर भारतीय मर्द और औरत को ज़रूर देखना चाहिए। यह फ़िल्म प्राइम वीडियो पर उपलब्ध है।

सुनिल शुक्ल
भारतीय फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान, पुणे से प्रशिक्षित सुनिल शुक्ल एक स्वतंत्र वृत्तचित्र फ़िल्मकार हैं। मुख्यतः कला, संस्कृति और सामुदायिक विकास के मुद्दों पर काम करते हैं। साथ ही, एक सक्रिय कला-प्रवर्तक, आयोजक, वक्ता, लेखक और डिज़ाइन शिक्षक हैं। युवाओं को रचनात्मक करियर के लिए परामर्श भी देते हैं। उनका कार्यक्षेत्र शिक्षा, अभिव्यक्ति और सामाजिक सरोकारों के बीच एक सेतु निर्मित करता है।
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