
- June 25, 2025
- आब-ओ-हवा
- 3
इमरजेंसी: फ़िल्म की टाइमिंग और कंगना के आग्रह
…अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन व्हाइट हाउस के अपने चैंबर में बैठे टीवी पर वियतनाम युद्ध देख रहे हैं… 1960 के दशक के आख़िर में निक्सन ने राष्ट्रपति की कुर्सी पाने के लिए वियतनाम को जबरन युद्धक्षेत्र बना तो दिया लेकिन 70 का दशक शुरू होते वियतनाम में अमरीका ने मुंह की खायी भी। तभी, भारत के सामने पाकिस्तान की चुनौती से निपटने के लिए एक जोखम भरा विकल्प यह था कि वह पाकिस्तान के दो-फाड़ कर दे। बतौर प्रधानमंत्री यह जोखम लेना इंदिरा गांधी के लिए क़तई आसान नहीं था क्योंकि पाकिस्तान के समर्थन में अमरीका था। इसी संदर्भ में, अमरीका से बातचीत के लिए जब इंदिरा व्हाइट हाउस पहुंची हैं, तब निक्सन चैंबर में टीवी देखते तक़रीबन ऊंघ रहे हैं, बेवजह इंदिरा को इंतज़ार करवा रहे हैं ताकि भारत की प्रधानमंत्री का आत्मबल, आत्मविश्वास टूट जाये। वह याचक की तरह अमरीकी शर्तों की दिशा में ही बात करें।
‘गूंगी गुड़िया’ से अपेक्षा भी किसे है कि वह इतने बड़े फ़ैसले के लिए दुनिया के इतने शक्तिशाली राष्ट्रपति के सामने मुंह खोल सकेगी! बहरहाल, कई घंटे लाउंज में इंतज़ार करवाने के बाद निक्सन ने इंदिरा को मिलने चैंबर में बुलवाया है। मुंह पर ही धमका दिया है अगर भारत ने ऐसा क़दम उठाया तो अमरीकी नौसेना पाकिस्तान की तरफ़ से हमला करेगी। अब इंदिरा मुंह खोलती हैं, ‘वियतनाम जैसे छोटे-से देश ने अमरीका को धूल चटा दी है, अगर अमरीका भारत के हौसले से भी टकराकर देखना चाहता है, उसकी मर्ज़ी… अमरीकी बलों के स्वागत के लिए बंगाल के समुद्र तट पर भारतीय सेना तैयार रहेगी’। निक्सन बस मुंह ताकते रह गये हैं।
होता भी है, सिर्फ़ 13 दिनों में कूटनीति और युद्धनीति की बदौलत इंदिरा एक नया स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश बना देती हैं। जिस घड़ी अमरीकी नौसेना पहुंचती है, पाकिस्तान घुटने टेक चुका होता है, निक्सन युद्ध में उतरने से पहले ही हार चुके होते हैं। गूंगी गुड़िया भारत के लिए साक्षात् ‘दुर्गा’ बन चुकी होती है।
यह दृश्य कंगना रनौत की फ़िल्म ‘इमरजेंसी’ में है, जो छाप छोड़ जाता है। दरअसल, जब-जब भारत महाशक्तियों के सामने झुकता हुआ दिखायी देगा; जब भी भारत इन बर्बरों के सामने अपने आत्मसम्मान की रक्षा में चूकता दिखेगा; जब भी कभी भारत की गरिमा ऐसे अहंकारों के सामने घुटने टेकेगी… यह दृश्य याद आएगा। याद आएगा कि कुछ नेता हुए, जिन्होंने संसाधनों और शक्ति के संकट से जूझने के कालखंडों में (जब समझौता करना ही एकमात्र विकल्प सूझता था) भारत की आन, भारत की नाक और भारत के स्वाभिमान की लाज रखी।
‘इमरजेंसी’ कई मायनों में चर्चा और विचार करने लायक़ सिनेमा है। कंगना ने इंदिरा के पूरे जीवन पर बायोपिक का निर्माण किया है और उनके जीवन के एक अध्याय को शीर्षक बनाया है। यह शीर्षक इंदिरा के चरित्र या जीवन या इस पर बनी फ़िल्म को किसी रूपक में बांधने में नाकाम नज़र आता है। दूसरे, यह शीर्षक रखने के पीछे के बड़े दिलचस्प कारण समझे जा सकते हैं। यह वही कंगना हैं जिन्होंने जयललिता की बायोपिक के लिए ‘थलाइवी’ और रानी लक्ष्मीबाई की बायोपिक के लिए ‘मणिकर्णिका’ जैसे शीर्षक चुने, लेकिन इंदिरा गांधी की बायोपिक के लिए शीर्षक ‘इमरजेंसी’! आप एक शीर्षक के चुनाव से अपना आग्रह स्पष्ट करते ही हैं।
एक विचार इस फ़िल्म की टाइमिंग को लेकर है। 25 जून 1975 को देश में आपातकाल घोषित किया गया था, जिसके 50 साल पूरे हो रहे हैं। इंदिरा गांधी के चरित्र का यह एक ऐसा पहलू है, जिसने उनके पूरे जीवन, तमाम उपलब्धियों को एक तरह से आच्छादित करने में कोई क़सर न छोड़ी। इस साल इस शीर्षक से फ़िल्म की प्रासंगिकता है, फिर भी, ‘इमरजेंसी’ को अपेक्षानुरूप प्रतिसाद क्यों नहीं मिला? यह फ़िल्म अगर 2019 से पहले प्रदर्शित होती या पांच साल बाद तो क्या इसी तरह बग़ैर नोटिस के चली जाती? या फिर बड़ी हिट हो सकती थी? क़यास आधारित ऐसे विचार किये जा सकते हैं। क्या इसे कंगना के फ़िल्मी सफ़र का अंतिम पड़ाव मान लिया जाये? ऐसे प्रश्नों के बीच यह विचार नये दरवाज़े खोलता है कि इस समय में इस फ़िल्म का आना क्या व्यंजना पैदा करता है।
कंगना भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर सांसद बन चुकी हैं। कांग्रेस के ख़िलाफ़ स्पष्ट रूप से, अपना रुख़ साफ़ कर चुकी हैं। पहले ऐसी कुछ फ़िल्मों का हिस्सा रह चुकी हैं जो एक एजेंडे को पोसती हैं। कंगना की इस फ़िल्म से एक बड़े वर्ग की अपेक्षा यही रही कि वह पूरी शिद्दत से इंदिरा गांधी को और उनके चरित्र के बहाने कांग्रेस की पूरी छवि को निगेटिव लाइट में पेश करेंगी। लेकिन, एक हद के बाद ऐसा हो नहीं सका। नेहरू से लेकर संजय गांधी तक, परिवारवाद से इमरजेंसी तक — कई मुद्दों, कई किर्दारों के भद्दे शेड्स यह फ़िल्म दिखाती है, इसके बावजूद ऐसा नहीं होता कि समग्र तौर पर इंदिरा की छवि खलनायक की बन पाये। अंतत: दर्शक इंदिरा की एक ऐसी छवि के साथ ही शेष मिलता है, जो पूरी तरह सकारात्मक भले न हो, पूरी तरह नकारात्मक भी नहीं है। यह एक वास्तविक मनुष्य की छवि है। फ़ेमिनिज़म और कुशल राजनीति के चश्मे से इंदिरा की छवि सशक्त महिला की बनती है। पिता और पुत्र के साथ रिश्तों को लेकर भी इंदिरा का पात्र दर्शकों की सहानुभूति हासिल कर पाता है। तो क्या कंगना एक बड़े ‘समर्थक’ वर्ग की उम्मीदों पर पानी फेर देती हैं? ऐसा हो भी, तब भी फ़िल्म के समग्र मूल्यांकन के नज़रिये से आलोचक मन यह दावा क़तई नहीं कर सकता कि इस फ़िल्म में कंगना ने सिनेमाई नज़रिये से कहानी के प्रति या फिर तथ्यात्मक इतिहास के प्रति पूरी ईमानदारी बरती है, संयम दिखाया है या कलात्मक शिखर को छुआ है।
होता यह है, इस फ़िल्म की कहानी में बुने गये कुछ घटनाक्रमों, चारित्रिक विवरणों और दृश्यों से सामान्य दर्शकवर्ग के मन में यह विचार कौंधता है कि 40 से 50 साल पुरानी परिस्थितियों का कितना गहरा साम्य इस समय के साथ है। यह एक गुण है, जो किसी कलाकृति को श्रेष्ठ बनाने की सनद रहा है, लेकिन इस समय में शायद एक बड़े वर्ग को यह स्वीकार पाने में अड़चन है। या यूं कहें कि जिसे यह स्वीकार पाने में मुश्किल है, सिनेमा का दर्शक वर्ग भी बड़े स्तर पर वही है। मुझे नहीं लगता कि फ़िल्मकार कंगना को फ़िल्म निर्माण के दौरान महसूस न हुआ हो कि मीडिया व जांच एजेंसियों को सरकारी कठपुतली बनाये जाने, विरोधियों को जेलों में ठूंसे जाने, अपनों को मनमानी की छूट देने, बुलडोज़र चलवाये जाने… फ़िल्म के ऐसे कई दृश्य आज की स्थितियों पर भी कटाक्ष कर रहे हैं। और यह भी कैसे मान लिया जाये कि वह इंदिरा गांधी के पात्र को शिद्दत से जीने की और अपनी सिने-कला की प्रतिबद्धता निभा रही थीं।
और जब मैं सिने-कला की बात कर रहा हूं तो प्रयोग के जोखमों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। एक कलाकार के मन को आप उसके प्रयोगों में बेहतर समझ सकते हैं। नयी पीढ़ी या एक साधारण दर्शक वर्ग को बहुत अटपटा लग सकता है कि संसद में जब युद्ध के मुद्दे पर हंगामा हो, तब बहस वाले संवादों के स्थान पर गाना शुरू हो जाता है। सांसद गाते हुए दिखायी देते हैं। कई प्रयोग कामयाब होते हैं, कई नहीं लेकिन इससे प्रयोग करने की स्वतंत्रता को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे संदर्भ में, मेरा ख़याल यह है कि किसी फ़िल्म को आप लिरिकल, म्यूज़िकल या पोएटिक रंग दे सकते हैं, लेकिन फिर यह रंग समग्रता में या सार्थकता में दिखना चाहिए। अचानक कहीं आप इस रंग में आ जायें और बाक़ी विस्तार बेरंग या विविधरंगी हो, तो प्रश्न उठता है। अजीब होने के बावजूद हम इस दृश्य में प्रयोग के पीछे एक भावुकता की निशानदेही तो कर ही सकते हैं।
अलबत्ता, इस फ़िल्म के निर्माण के पीछे कोई भावुकता है या नहीं, कहना मुश्किल है। इंदिरा के पात्र को निभाने के लिए कंगना के अभिनय की काफ़ी आलोचना हो चुकी है। इस पात्र को निभाने के लिए उन्होंने जो एक ख़ास एक्सप्रेशन होल्ड किया है, ज़ाहिर है उन्होंने इसे अनेक फ़ुटेज देखकर, अनेक प्रयोगों, अनेक अभ्यासों के बाद फ़ाइनल किया होगा, लेकिन इंदिरा के जीवन के अनेक पड़ावों, अनेक अनुभवों को व्यक्त करने में यह अक्सर दुविधाजनक है। किर्दार के हर शेड, हर पहलू में एक पॉइंटलेस ‘नर्वसनेस’, प्रकारांतर से ‘गूंगी गुड़िया’ वाली साइकी (वह भी ख़याली ज़ियादा) ही दर्शाने का प्रयास दिखता है। फ़िल्म में एक लयहीनता पसरी हुई है। महिमा चौधरी के अलावा अन्य कोई अभिनेता अपने किर्दार को निभाने में कामयाब नहीं दिखता। शुरूआती एक दृश्य है, जिसमें मोतीलाल नेहरू यानी दादा अपनी पोती को बोध-कथा सुना रहे हैं। अभिनेता शासक शब्द को कहीं शाशक तो कहीं साशक उच्चरित करता है यानी पहले ही कौर में दाल में कंकड़ आ जाने वाली मनोदशा बनती है। हालांकि अनुपम खेर और कंगना का एक दृश्य है, जहां जेपी के अंतिम समय में इंदिरा मिलने पहुंची हैं, या फिर इंदिरा जब एक दूरस्थ वंचित गांव के लोगों से मिलने हाथी पर जाती हैं, ऐसे कुछ दृश्य ज़रूर प्रभावी बने हैं।
फ़िल्म टुकड़ों-टुकड़ों में असरदार है, समग्र रूप से कोई ख़ास प्रभाव नहीं छोड़ती। जब हम किसी किर्दार, किसी जीवन को समग्र रूप में समझ नहीं पाते, उसे पूरी शिद्दत के साथ महसूस नहीं पाते और उसे बिना आग्रह के व्यक्त नहीं कर पाते, तब कोई एकाध हिस्सा चमकदार दिखता है पर यह ऐसा ही होता है जैसे गहरी धुंध के बीच कहीं किसी पल सूरज दिख जाये। अंतत: इसी विचार ने घेर रखा है कि ‘इमरजेंसी’ चाहे जैसी हो, सिनेमा के लिहाज़ से ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ जैसी एजेंडा आधारित फ़िल्मों की क़तार में कुछ तो बेहतर है ही, फिर भी इसे उस स्तर पर क्यों नहीं देखा गया? क्वीन और तनु वेड्स मनु वाली मुखर कंगना हों या सियासी गलियारों की मुंहफट कंगना, इस फ़िल्म ने एक बार उन्हें फिर ‘गूंगी गुड़िया’ क्यों साबित कर दिया?

भवेश दिलशाद
क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।
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सार्थक लिखा
यह फ़िल्म मैं देख पाता तो बतौर दर्शक भी अपनी इबारत दर्ज़ करता किन्तु;दिलशादजी का लिखा हुआ पढ़ने के साथ मैंने महसूस किया कि सन्तुलित,साथ ही सलाहियत के साथ बेबाकी इस फ़िल्म-समीक्षा की खासियत है।एक प्रबुद्ध पाठक और संजीदा दर्शक किसी नयी फ़िल्म पर ऐसी ही साफगोई से लिखी इबारत की अपेक्षा करता है,जो उसके सोच-समझ और वैचारिक अभिव्यक्ति को भी विधान देती हो!
फिल्म के सभी कोनों की गहराई से पड़ताल करती हुई बहुत बढ़िया समीक्षा है। विशेष रूप से समीक्षा की भाषा का जवाब नहीं।