दिलीप कुमार: आवाज़ का जादू

दिलीप कुमार: आवाज़ का जादू

         हिंदी फिल्मों के प्रेमी यह जानते ही होंगे कि वर्ष 1957 में ऋषिकेश मुखर्जी ने फ़िल्म ‘मुसाफ़िर’ के साथ अपनी निर्देशकीय पारी शुरू की थी। पर कुछ ही सुधिजन इस तथ्य से वाकिफ होंगे कि नायक दिलीप कुमार ने इस फ़िल्म में एक सुरीला गीत भी गाया था, लता मंगेशकर के साथ। आज इसी गाने की चर्चा करते हैं। गाने के बोल हैं- ‘लागी नाहीं छूटे राम, चाहे जिया जाये।’

         यह गाना फ़िल्म में दिलीप कुमार और उषा किरण पर फ़िल्माया गया है। ऋषि दा ने इस गाने की पृष्ठभूमि बहुत सहज ढंग से तैयार की है। राजा यानी दिलीप कुमार अपने कमरे में वॉयलिन बजा रहा है। राग मिश्र पीलू की इस धुन को सुनकर पड़ोस के कमरे में पलंग पर लेटी उमा यानी उषा किरण उठ बैठती है। धुन उसकी जानी-पहचानी है। धुन की याद में खोयी वह कमरे की रैक से उस लिफ़ाफ़े को उठाती है, जिसमें राजा के साथ बिताये ख़ूबसूरत लम्हे तस्वीरों में कैद हैं। मंत्रमुग्ध-सी वह कब अपने पड़ोसी यानी नायक के दरवाज़े की चौखट तक पहुँच गयी, उसे पता ही न चला। तन्द्रा भंग हुई राजा के शब्दों से- ‘अंदर आ जाओ’। उमा कुछ तल्ख़ी में पूछती है कि ‘क्यों बजा रहे हो यह धुन अब? अब इन यादों की क्या ज़रूरत?’ तो राजा पूछता है कि तुमने अपने बेटे का नाम राजा क्यों रखा! इसकी भी क्या ज़रूरत थी… उमा मौन हो जाती है।

         यह चुप्पी बहुत कुछ कहती है। पुरानी यादों की गवाह उन तस्वीरों को उमा के हाथ से लेकर देखते हुए राजा अचानक कहता है- ‘तुम उस शाम कौन सा गीत गा रही थीं? उमा का तंज़ में पूछना कि क्यों जब बाक़ी सब याद है तो यह याद नहीं!.. और ऋषि दा का कैमरा राजा को ट्रांस में ले जाते हुए क्लोज़ शॉट लेता है। राजा विलम्बित में गा उठता है- लागी नाहीं छूटे राम, चाहे जिया जाये।

       सच, दिलीप साहब का यह गायन किसी भी सुर-संगीत प्रेमी का रोम-रोम आल्हादित करने के लिए काफ़ी है। वह बिल्कुल किसी शास्त्रीय ख़याल गायक की तरह आलापी भरा स्थाई गाते हैं। दिलीप साहब ने गाने का भरपूर रियाज़ किया साफ़ महसूस होता है। और तभी उनकी आवाज़ को मीठी छुरी की तरह चीरते हुए यहाँ लता का आलापयुक्त स्वर गूंजता है- चाहे जिया जाये। उफ़.. उस  शाम के झुटपुटे से भरे कमरे में ये दिव्य स्वर जैसे दीपक का काम करते हैं। शैलेन्द्र के मीठे रसपगे बोल हैं और महान संगीतकार सलिल चौधरी का गज़ब का संगीत। गज़ब इसलिए कहा कि दिलीप कुमार जैसे अप्रशिक्षित गायक को लेकर सलिल दा ने इस दोगाने में बहुत अनूठा प्रयोग किया है। पहले अंतरे- “मन अपनी मस्ती का जोगी कौन इसे समझाये” में बिना ताल के विलम्बित तानकारी है। पर दूसरे अंतरे में तबले पर ठेका शुरू होता है, दिलीप साहब गाते हैं- ‘तारों में मुस्कान है तेरी, चाँद तेरी परछाईं’। इसमें दिलीप साहब की आवाज़ तरल गीतों के उम्दा गायक तलत महमूद से बहुत मेल खाती है। बहुत सुंदर ढंग से उन्होंने ये पंक्तियाँ गायी हैं।

दिलीप कुमार: आवाज़ का जादू

        यहाँ ऋषि दा के निर्देशन का ज़िक्र भी करना लाज़मी है। नायक राजा अपनी यादों को लेकर मुखर है इसलिए वह बाक़ायदा लिप सिंक करता है मगर नायिका (बता दें कि इस फ़िल्म में तीन कहानियाँ और तीन जोड़ियां हैं सुचित्रा सेन-शेखर, निरूपा राय-किशोर कुमार और उषाकिरण-दिलीप कुमार) उमा के हृदय में यह गीत बज रहा है, जो अब किसी और की सहधर्मिणी है। इसलिए निर्देशक ने उसे गाने पर होंठ हिलाते नहीं दिखाया। बहरहाल, यह गाना सुनकर हर एक मानेगा कि दिलीप कुमार से कुछ और गाने गवाये जाते, तो उनके लाखों चाहने वालों के लिए एक बड़ा तोहफा होता।

         सुधिजन, आपको बता दें लता मंगेशकर और दिलीप कुमार के बीच लम्बी अनबन इसी गाने की रिकॉर्डिंग के समय शुरू हुई थी, जो लगभग तेरह साल तक चली।

विवेक सावरीकर मृदुल

सांस्कृतिक और कला पत्रकारिता से अपने कैरियर का आगाज़ करने वाले विवेक मृदुल यूं तो माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्ववियालय में वरिष्ठ अधिकारी हैं,पर दिल से एक ऐसे सृजनधर्मी हैं, जिनका मन अभिनय, लेखन, कविता, गीत, संगीत और एंकरिंग में बसता है। दो कविता संग्रह सृजनपथ और समकालीन सप्तक में इनकी कविता के ताप को महसूसा जा सकता है।मराठी में लयवलये काव्य संग्रह में कुछ अन्य कवियों के साथ इन्हें भी स्थान मिला है। दर्जनों नाटकों में अभिनय और निर्देशन के लिए सराहना मिली तो कुछ के लिए पुरस्कृत भी हुए। प्रमुख नाटक पुरूष, तिकड़म तिकड़म धा, सूखे दरख्त, सविता दामोदर परांजपे, डॉ आप भी! आदि। अनेक फिल्मों, वेबसीरीज, दूरदर्शन के नाटकों में काम। लापता लेडीज़ में स्टेशन मास्टर के अपने किरदार के लिए काफी सराहे गये।

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