
चौंकाती, परेशान करती आर्थिक असमानताओं का समय
एक तरफ़ इस बात का हल्ला हुआ कि भारत दुनिया की 5 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हुआ और उसने जापान को पीछे छोड़ दिया। लेकिन इस बात को उतनी ही धमक के साथ सामने नहीं लाया गया कि भारत 50 सबसे ग़रीब देशों की उस सूची में भी शामिल है, जो प्रति व्यक्ति जीडीपी पर आधारित है। ये दो ख़बरें विरोधाभासी हैं लेकिन यही हमारे समय के विकास और व्यवस्थागत नीतियों के सामने बड़ी चुनौतियां भी बनी हुई हैं।
जब भारत सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में जापान से कुछ आगे सरका तब विश्व आर्थिक मंच के पूर्व प्रबंध निदेशक क्लॉड स्मदज़ा ने कहा कि भारत को आत्मसंतुष्ट नहीं होना चाहिए क्योंकि इस उपलब्धि के बावजूद भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी जापान के मुक़ाबले साढ़े आठ गुना तक कम है। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की सूची में भारत की चिंताजनक स्थिति के आंकड़े देखने योग्य हैं। इस सूची में कितनी विडंबनाएं हैं और भारत की अर्थव्यवस्था में कितनी, यह भी समझने की दरकार है।
भारत में प्रति व्यक्ति जीडीपी
2878 अमरीकी डॉलर, हर भारतीय के हिस्से में औसतन यह रक़म है। देश की कुल जीडीपी को उसकी आबादी से जब विभाजित किया जाता है तो यह आंकड़ा निकलता है। इस सूची में सबसे ग़रीब देश के तौर पर दक्षिण सूडान शामिल है जिसकी प्रति व्यक्ति जीडीपी स़िर्फ 251 डॉलर है। देखिए, सबसे कमज़ोर प्रति व्यक्ति जीडीपी की सूची में 50 स्थानों के फेर में ही ऐसे दो देश (डेटा उपलब्ध न होने के कारण पाकिस्तान इस सूची में शामिल नहीं है) शामिल हैं, जिनकी स्थिति में 11 गुना का फ़र्क है।
ऐसे आंकड़ों को विश्लेषित करने वाले एक लेख के मुताबिक़ ऐसे में भारत की तुलना नाइजीरिया जैसी अर्थव्यवस्था से की जाना चाहिए क्योंकि वहां भी एक समर्थ अर्थव्यवस्था के बावजूद प्रति व्यक्ति जीडीपी सिर्फ़ 807 डॉलर की ही है।
ग़ौर करने लायक़ तथ्य यह भी है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय फ़ंड द्वारा अप्रैल 2025 में जारी इस सूची के अनुसार सब सहारा अफ़्रीका दुनिया का सबसे कमज़ोर वित्तीय स्थिति वाला महाद्वीपीय क्षेत्र है। यहां दुनिया की 19 फ़ीसदी आबादी बसती है लेकिन दुनिया की जीडीपी में इसका योगदान महज़ 3 फ़ीसदी का है। इसके बरअक्स दक्षिण एशिया की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है। सब सहारा अफ़्रीका की प्रति व्यक्ति जीडीपी जहां 1.55 हज़ार डॉलर है, वहीं दक्षिण एशिया में यह आंकड़ा 2.71 हज़ार डॉलर का है।
आर्थिक असमानता कैसे समझें?
भारत की आर्थिक वृद्धि महत्वपूर्ण असमानताओं को छुपाती है, यह कहना है ईटीवी भारत की एक विश्लेषणात्मक रपट का। इसके अनुसार भारत की 1% आबादी का नियंत्रण देश की लगभग 40% संपत्ति पर है। इसके उलट जापान में धन के वितरण में अधिक असमानता नहीं है। यानी भारत में पूंजी का संकेन्द्रण कई जोखम पैदा करता है:-
- आर्थिक अस्थिरता: जनसंख्या के निचले 43% लोगों को सीमित क्रय शक्ति के कारण 2022 में खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ा।
- सामाजिक तनाव: शहरी-ग्रामीण विभाजन और उच्च युवा बेरोज़गारी (शहरी क्षेत्रों में 17.2%) भारत में असंतोष बढ़ाती है। सामाजिक शांति के लिए जोखम है।
- राजनीतिक प्रभाव: 1% लोगों के हाथों में धन का संकेन्द्रण नीतिगत कब्ज़े का जोखम पैदा करता है, जिससे लोकतांत्रिक निष्पक्षता कमज़ोर होती है।
- युवा हताशा: देश में 65.7% बेरोज़गार व्यक्ति शिक्षित हैं लेकिन उच्च तकनीक भूमिकाओं के लिए कौशल संपन्न नहीं।
यह रपट यह भी बताती है कि अप्रैल 2025 में भारत की बेरोज़गारी दर 5.1% थी जबकि जापान की 2.5%। जापान के श्रम बाज़ार को कम बेकारी और अत्यधिक कुशल आबादी का लाभ मिलता है जबकि भारत में तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में बेमेल कौशल से रोज़गार में असमानता बढ़ती है।
ऐसे अनेक बिंदुओं की चर्चा में मध्यम वर्गीय उपभोक्ताओं के उछाल और इस वर्ग की संरचना, स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों आदि का भी विवेचन किया गया है और कुछ नीतिगत सुझाव देने का प्रयास भी।
निष्कर्ष यह कि दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना, भारत के लिए गौरव का क्षण तो है लेकिन आर्थिक असमानताओं की चौड़ी होती जा रही खाई के बारे में तत्काल विचार, विमर्श एवं समाधान का मौक़ा भी है। जापान के न्यायसंगत विकास मॉडल से भारत को सबक़ लेने की ज़रूरत विशेषज्ञ बताते हैं। भारत अपनी युवा आबादी के कौशल विकास और समाज के सभी वर्गों की भागीदारी के साथ तर्कसंगत विकास की रणनीति से एक बेहतर अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ सकता है।
विपक्ष के आरोप
राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे आरोप लगा चुके हैं आर्थिक असामनता भयावह स्तर पर है। अरबपति, खरबपति बन बैठे हैं और ग़रीब कंगाल हो रहें हैं। उन्होंने एक्स पर लिखा : “ब्रिटिश-राज पूर्व, 1820 में, मध्यम वर्ग की आमदनी की जो स्थिति थी, वह आज हो गई है। ILO के आंकड़ों बताते हैं-
- भले ही वह कोई उन्नत डिग्री वाला व्यक्ति हो या कोई कुशल नौकरी कर रहा हो, फिर भी उसे दुनिया में सातवीं सबसे कम मज़दूरी दी जाती है।
- मज़दूरी वृद्धि दर 2006 में 9.3% से घटकर 2023 में 0.1% हो गयी है। भारतीय कर्मचारी की औसत प्रति घंटा आय दुनिया में पाँचवीं सबसे कम है।
- टैक्स की मार, महँगाई और आर्थिक कुप्रबंधन से मध्यम वर्ग, ग़रीब और उपेक्षित वर्ग सिमट रहा है और मोदी सरकार “सबका-साथ, सबका विकास” का ढिंढोरा पीटती फिर रही है!
—आब-ओ-हवा डेस्क