प्रवेश सोनी, pravesh soni
(शब्द और रंग, दोनों दुनियाओं में बेहतरीन दख़ल रखने वाली प्रवेश सोनी हाल ही, क़रीब महीने भर की यूरोप यात्रा से लौटी हैं। कवि और कलाकार की नज़र से, आब-ओ-हवा के लिए अपनी इस यात्रा के कुछ विशिष्ट अनुभव क्रमबद्ध ढंग से वह दर्ज कर रही हैं। उनके शब्दों में ऐसी रवानी है कि शब्दों से ही चित्र दिखने लगते हैं। साप्ताहिक पेशकश के तौर पर हर बुधवार यहां पढ़िए प्रवेश की यूरोप डायरी - संपादक)

सैर कर ग़ाफ़िल...: एक कलाकार की यूरोप डायरी-6

               पेरिस : भाग-1
               24/4/2025
               पेरिस बनाम परेशानियां

ब्रसेल्स से हम बस द्वारा पेरिस पहुंचे। यह यात्रा लगभग 2 घंटे की होनी थी लेकिन पेरिस पहुंचने में हमें लगभग सायं 6 बज गये। हमारा प्लान था कि आज हम सिर्फ़ शॉपिंग करेंगे और अगले दिन घूमेंगे। लेकिन जो सोचते है वो हो नहीं पाता, परिस्थितियां ही सर्वोपरि हुआ करती हैं। तो हुआ यह कि सुबह 10 बजे जब हम बस में बैठे तो थोड़ी दूर चलने पर बताया गया कि बस में तकनीकी ख़राबी है और हमें दूसरी बस जो थोड़ी दूर नये स्टॉप पर मिलेगी, उसमें यात्रा करनी है। हम बस में बेबस होकर बैठे रहे, कुछ कर भी नहीं सकते थे सिवाय नयी बस के इंतज़ार के।

दूसरी बस की व्यवस्था में बहुत समय लग गया, बस का मालिक या मैनेजर जो भी था वो बार बार आकर खेद प्रकट कर रहा था और हम शांत बैठे शालीनता से उसका खेद स्वीकार कर रहे थे।

भारत के किसी छोटे मोटे शहर में ऐसी घटना हो जाती तो यात्रीगण अपने ख़ून में न जाने कितनी बार उबाल ले आते और ड्राइवर की मरहम पट्टी की भी आशंका बन जाती।

ख़ैर, बस आयी सभी यात्री सवार हुए, फिर दूसरी समस्या सामने खड़ी हो गयी, ऑटोमेटिक सिस्टम शायद सभी बस का अलग अलग होता होगा, नयी बस के सिस्टम की समझ में ड्राइवर थोड़ा नासमझ निकला। वो बार बार मोबाइल पर किसी से बात करके अपनी दुविधा दूर कर रहा था और हम यात्री हनुमान चालीसा पढ़ रहे थे। कुछ समय की बातचीत में वह सफल हुआ, तब जाकर हम सब यात्रियों की जान में जान आयी।

रास्ते में एक स्टॉप पर लंच के लिए बस रोकी गयी। यह हाईवे पर बना ढाबा कम, बड़ा रेस्टोरेंट ज्यादा था। जिसमें सभी तरह की सुविधाएं थी। एक बात बताना चाहूंगी, यहां (सभी जगह) जनसुविधाएं (WC), सुविधाएं न होकर सशुल्क व्यवस्था होती है। इस व्यवस्था का उपयोग करने के लिए प्रति व्यक्ति 2 से 3 यूरो देय होता है, यानी आपको अगर लघु या दीर्घशंका निवारण करना है, तो भारतीय मुद्रा में 200 से 300 रुपये दीजिए, इतने में तो…

पहली बार इस व्यवस्था से गुज़रे तो शॉक लगा। लेकिन नियम सख़्त हो तो उसकी पालना स्वतः ही होने लग जाती है। अब हम इसके लिए ख़ुद को तैयार कर चुके थे और खुले यूरो सम्भाल कर रखते। जिनके पास कैश न हो, तो क्रेडिट कार्ड से स्वाइप करने का भी प्रावधान होता है।

paris public utility

लंच में वही विभिन्न प्रकार की सजी धजी ब्रेड, जिन्हें देखते ही मुझे अरुचि होने लगी थी।बेटी ने कुछ रोल जैसा कुछ खाया, हम दोनों पति पत्नी ने कॉफी पीकर सब्र किया।

सुविधाओं का लाभ लेकर बस में बैठे और पेरिस पहुंचे।

स्टेशन से कैब करके होटल पहुंचे। रास्ते में विकसित पेरिस की कार्पोरेट कंपनियों के विशाल और गगनचुंबी भवन देखे। सभी रास्ते चुम्बकीय आकर्षण से भरे हुए। नज़रें इधर से उधर देख रही थीं मानो कशमकश हो कि कौन सा नज़ारा ज़्यादा आकर्षक है, जिसे पहले देखा जाये। नज़रों ने नज़ारों को मन भर देखा और लगभग दो घंटे तक सड़कों और आस पास के भवनों को देखते हुए मंज़िल पर पहुंचे।

होटल पहुंचकर फिर एक परेशानी का सामना हुआ। होटल की ऑनलाइन बुकिंग की थी, बुकिंग फ़र्म प्रॉपर्टी पर पहुंचने पर अनलॉक के लिए कोड प्रोवाइड करती है। बिटिया को जो कोड मिला वो काम नहीं कर रहा था। या तो ग़लत था या फिर वो उसे ठीक से प्रोसेस नहीं कर पा रही थी। तकनीकी युग में कोड ग़लत होने की संभावना न के बराबर थी। मेन एंट्रेंस, लिफ़्ट और रूम के ऑटोमेटिक लॉक, कोड से ही खुलने थे और हम कोड के प्रोसेस न होने पर रोड पर खड़े पसोपेश में, परेशान, करें तो क्या करें।

पेरिस का रोमांच ताले चाबी की लड़ाई में शहीद हो रहा था। डिजिटल युग की स्मार्टनेस में मुझे घर के अलीगढ़ी ताले और चाबियां ज़्यादा सुखदायी लग रही थीं।

आख़िर ऊपर वाले ने मदद भेजी और ऊपर से (बिल्डिंग से) एक जोड़ा अपने पालतू प्राणी के साथ भीतर से बाहर आया। उसका बाहर आना हमारे भीतर जाने का परमिट बना। अब रूम के भीतर जाने की जद्दोजहद थी। बिटिया तनाव में थी, सफ़र की थकान भी सिर पर चढ़ चुकी थी। जैसे तैसे बिटिया ने प्रोसेस ठीक से समझा और सफलता प्राप्त की।

रूम क्या यह दो कमरों का शानदार अपार्टमेंट था, जिसे देखकर बीते समय की सारी परेशानियां छूमंतर हो गयीं। कमरे सुंदर, सुसज्जित, सुविधाजनक थे। रसोई, ड्राइंग रूम से जुड़ी बाल्कनी, जहां से बाहर के मनमोहक दृश्य दिखायी दे रहे थे। थोड़ी दूरी पर गुज़र रही केनाल और साफ़ सुथरी फूलों से सजी हुई सड़क मनोरम लग रही थी। सब ओर मन को सुकून देने वाले दृश्य।

एक हज़ारी रोटी!

थकान और भूख हम पर हावी हो रही थी। रसोई में सब सुविधाएं थीं लेकिन आटा, दाल कहां से लाएं! तो तय किया कि यदि कोई सर्विस यहीं पर खाना पहुंचा दे तो उसका लाभ लेकर किसी रेस्टोरेंट से ऑर्डर किया जाये। बेटी न मोबाइल पर सर्च किया और खाना ऑर्डर कर दिया। दाल और चपाती आयी, साथ में अचार और प्याज़ भी। पांच चपाती और दो प्लेट दाल, यूरो को भारतीय मुद्रा में बदलकर देखें तो 7 हज़ार रुपये की थी। इसमें सर्विस टैक्स और भी कई टैक्स शामिल थे। मुझे तो वो रोटी बेशक़ीमती लग रही थी, जिसका एक टुकड़ा भी बर्बाद करना मेरे लिए कठिन था। भारतीय गृहिणियां घर बार बनाने में कितनी कठिनाइयों का सामना करती हैं, यह जानना हर किसी के लिए कहां संभव है। यहां तो एक रोटी वो भी सूखी, हज़ार रुपये की पड़ रही थी।

जैसा भी था, सब प्रभु इच्छा को समर्पित करके स्वीकार किया और सोने की तैयारी की।सुबह जल्दी उठकर हमें पेरिस पर्यटन का आनंद लेना था। पेरिस वैसे तो किसी परिचय का मोहताज नहीं है, फिर भी थोड़ा परिचय तो परम्परावश ज़रूरी है।

फ़्रांस की राजधानी और इसे City of Love और City of Light भी कहते हैं। यह यूरोप के सबसे सुंदर, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और ऐतिहासिक शहरों में से एक है। सीन (Seine) नदी के किनारे बसा खूबसूरत पेरिस फ़ैशन की दुनिया में अपनी विशेष पहचान रखता है। कल इसकी सुंदरता निहारेंगे।

क्रमशः…

प्रवेश सोनी, pravesh soni

प्रवेश सोनी

कविता और चित्रकला, यानी दो भाषाओं, दो लिपियों को साधने वाली प्रवेश के कलाकार की ख़ूबी यह है कि वह एक ही दौर में शिक्षक भी हैं और विद्यार्थी भी। 'बहुत बोलती हैं औरतें' उनका प्रकाशित कविता संग्रह है और समवेत व एकल अनेक चित्र प्रदर्शनियां उनके नाम दर्ज हैं। शताधिक साहित्य पुस्तकों के कवर चित्रों, अनेक कविता पोस्टरों और रेखांकनों के लिए चर्चित हैं। आब-ओ-हवा के प्रारंभिक स्तंभकारों में शुमार रही हैं।

4 comments on “सैर कर ग़ाफ़िल…: एक कलाकार की यूरोप डायरी-6

  1. चकाचौंध करती दुनिया में हिन्दुस्तान भी धड़कता रहा…
    बहुत-बहुत बधाई, दीदी

  2. यह अच्छा है कि आप इन अनुभवों को दर्ज कर पाए।

    1. यादगार पल रहें अनीता यह तो लिखने में आ गए

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