
- July 11, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
अफ़नासी निकितिन यदि आज भारत आता..?
पन्द्रहवीं शताब्दी में एक रूसी यात्री भारत आया नाम था अफ़नासी निकितिन। उसने सुन रखा था कि भारत विचित्रताओं और रहस्यों से भरा देश है। पश्चिम में भारत सपेरों, तांत्रिकों, काले जादू, भूतों और पुनर्जन्म के क़िस्सों के कारण चर्चा में रहता था। बस उन्हीं क़िस्सों की उत्सुकता उसे हमारे देश में खींच लायी थी।
यहाँ आकर उसने जो देखा और जाना वो उन क़िस्सों से कम विचित्र नहीं था। उसने देखा कि राज परिवारों और श्रेष्ठी लोग तो मंहगे आभूषणों और रेशमी वस्त्रों को धारण किये होते थे, लेकिन अधिकांश प्रजा के पास तन ढंकने के लिए सिर्फ़ लँगोट ही थी। आये-दिन होने वाले युद्धों, महामारियों, सूखा और बाढ़ के कारण प्रजा निर्धन थी। सारा वैभव सिर्फ़ राजप्रासादों और धर्म स्थलों तक ही सीमित था। मंडियों में मवेशियों के साथ अश्वेत ग़ुलाम भी बिकते थे। बाक़ायदा उनकी बोलियां लगायी जाती थीं। राजा अपनी अजीबो-ग़रीब वेशभूषा के कारण नमूना लगता था। राजाओं की स्तुति गान के लिए भाट कवियों को रखा जाना प्रचलन में था। प्रजा ढेर सारे धर्मों, संप्रदायों और जातियों में बँटी हुई थी। इन अलग अलग सम्प्रदायों और जातियों के लोग एक-दूसरे के साथ खाना-पीना भी नहीं करते थे।राजाओं की भी भरसक कोशिश होती थी कि यह बंटवारा क़ायम रहे।
उसने जब हाथी पर बैठे महावतों को भिक्षाटन करते देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वो लिखता है कि इस अजीबो-ग़रीब देश में कुछ भिखारी इतने धनवान हैं कि हाथी पर बैठकर भिक्षा मांगते हैं। उसके आश्चर्य का इज़ाफ़ा यह देखकर हुआ कि इतनी निर्धनता के बावजूद यहाँ के लोग इतने उत्सवजीवी और मनोरंजन प्रिय होते हैं कि उसके लिए अच्छा-ख़ासा समय और पैसा ख़र्च कर देते हैं।
ख़ैर यह तो मध्ययुग की बात हुई, लेकिन मैं यह सोचता हूँ कि वह यदि आज यानी इक्कीसवीं सदी में भारत आया होता तो क्या देखता? उसे पता चलता कि आज भी हालात कुछ ख़ास नहीं बदले हैं। बड़ी-बड़ी आलीशान इमारतों के पीछे आज भी झुग्गी बस्तियाँ हैं। ग़ुलामों की मंडियां तो अब नहीं है लेकिन मानव तस्करी अब भी जारी है। देह मंडियों में आज भी औरतों की बोलियां लगती हैं।
आज भी यहाँ की प्रजा बहुत सारे धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों में बंटी हुई है। उनके बीच में आज भी रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं है। आज भी दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को इज़्ज़त की ज़िंदगी जीने का हक़ नहीं है। आज भी उनके ऊपर पेशाब कर अपमानित किया जाता है। अमीर बहुत अमीर और ग़रीब बहुत ग़रीब हैं। प्रजा की नग्नता भले ही ख़त्म हो गयी है लेकिन राजनीति पूरी तरह नंगी हो गयी है। राजा आज भी अजीबो-ग़रीब वेशभूषा पहनकर नमूना बना घूमता है। आज भी राजा अपनी स्तुतिगान करने के लिए भाट कवियों, लेखकों को तनख़्वाह पर रखता है। न्यूज़ चैनल भी अब ख़बरें कम मनोरंजन ज़्यादा करते हैं।
प्रजा आज इतनी ज्यादा उत्सववादी और मनोरंजन प्रेमी हो गयी है कि उसके लिए अपनी आने वाली नस्लों को भी तबाह करने को तैयार है। यहां तक कि अपने मनोरंजन के लिए प्रधानमंत्री तक को चुन लेती है। इक्कीसवीं सदी में भी अफ़नासी निकितिन को मध्ययुग वाला ही अनुभव होता।

पंकज निनाद
पेशे से लेखक और अभिनेता पंकज निनाद मूलतः नाटककार हैं। आपके लिखे अनेक नाटक सफलतापूर्वक देश भर में मंचित हो चुके हैं। दो नाटक 'ज़हर' और 'तितली' एम.ए. हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में भी शुमार हैं। स्टूडेंट बुलेटिन पाक्षिक अख़बार का संपादन कर पंकज निनाद ने लेखन/पत्रकारिता की शुरूआत छात्र जीवन से ही की थी।
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कड़वा सच है ये ।