
- July 14, 2025
- आब-ओ-हवा
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(विधाओं, विषयों व भाषाओं की सीमा से परे.. मानवता के संसार की अनमोल किताब -धरोहर- को हस्तांतरित करने की पहल। जीवन को नये अर्थ, नयी दिशा, नयी सोच देने वाली किताबों के लिए कृतज्ञता का एक भाव। इस सिलसिले में लगातार साथी जुड़ रहे हैं। साप्ताहिक पेशकश के रूप में हर सोमवार आब-ओ-हवा पर एक अमूल्य पुस्तक का साथ यानी 'शुक्रिया किताब'... -संपादक)
आज तक हिम्मत देती है यह प्रसिद्ध किताब
1982-83 के साल में गुजराती साहित्य में भूकंप आ गया हो, ऐसा माहौल पैदा हुआ था! वैसे भी 1975 वर्ष को संयुक्त राष्ट्र द्वारा वैश्विक नारी वर्ष, बाद में नारी दशक और फिर 1990 में बालिका वर्ष और बाद में बालिका दशक की घोषणा की गयी थी और आज तक नारी समस्याओं के मुद्दों पर बहस चल रही है। हमें महसूस होता है दुनिया एक साथ तीन-चार सदी में साथ साथ चल रही है। ऐसे समय में गुजराती साहित्य में नवलकथा ‘सात पगलां आकाश मां’ प्रकाशित हुई और मैंने अपनी सखी आशा वीरेन्द्र के कहने पर इसे पढ़ा। आज तक इस नवलकथा का असर मुझ पर रहा है।
योगानुयोग से कुन्दनिका जी ने भी वलसाड के नज़दीक नंदिग्राम की स्थापना की और हमारा परिचय बढ़ता गया! वलसाड की ही रहने वाली हम सात स्त्रियों ने मिलकर वलसाड में ‘अस्तित्व (महिला उत्कर्ष)’ संस्था की स्थापना की। स्त्रियों पर हिंसा के बारे में सोचना और इन समस्याओं को सुलझाने के लिए मानो हम डट गये। ‘सात पगलां आकाशमां’ पढ़ने के बाद जो हिम्मत पैदा हुई, यह उसी का परिणाम था। बाद में मैंने मकरंद भाईजी के अनुरोध से कुन्दनिका बहन से साथ मिलकर नवलकथा के पाठकों के पत्रों का संपादन ‘आक्रंद और आक्रोश’ नाम से किया था, तब मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा।
नवलकथा में ऐसा क्या है कि आज भी जब आम औरतें इसे पढ़ती हैं तो उन्हें लगता है मानो वे ख़ुद की कहानी पढ़ रही हैं! वसुधा नामक मध्यमवर्गीय महिला शादी के बाद एकविध, परंपरागत और रूढ़िग्रस्त (Monotonous, Traditional and Stereotype) ज़िंदगी का सामना कर रही है और ऐसा जीवन सामान्यत: करोड़ों औरतें जी रही हैं। लेकिन वसुधा को हमेशा लगता कि मुझे पहले व्यक्ति का दर्जा मिलना चाहिए। उसका जीवनसाथी व्योमेश आम पुरुषों की तरह काम करता, पैसे लाता और अपनी ज़िंदगी को अपने तरीक़े से जीता। व्योमेश की बुआजी ने उसको पाला और वह भी उनके साथ रहतीं। वसुधा ने तीन बेटों को जन्म दिया और उन्हें पालने में व्यस्त हो गयी। समानांतर रूप से वसुधा अपने सपनों की दुनिया में भी जीती रही। व्योमेश पुरुषसत्तात्मक मानसिकता का प्रतीक और आज भी कई ऐसे व्योमेश हैं। चूँकि बदलाव दिखता है लेकिन स्त्रियों की स्थिति ‘एक क़दम आगे तो दो क़दम पीछे’ जैसी सी होती है, ऐसा मैं उस अनुभव के आधार पर कह रही हूं जो अनेक स्त्रियों के बीच काम करने से हासिल हुआ।
वैसे हम बात वसुधा-व्योमेश की कर रहे थे, एक दिन वसुधा एक नयी-नयी परिचित लड़की को अपने घर ले के आती है और उसे अहसास होता है जिस घर में वह रही है और नंदनवन बनाने की कोशिश कर रही है, वह तो व्योमेश का है! यहाँ जो भी निर्णय लिये जाएँगे वह व्योमेश के होंगे। बच्चे बड़े होकर पढ़ाई पूरी कर शादीशुदा ज़िंदगी जी रहे थे। एक बच्चा परदेश था। वसुधा ख़ुद के घर में ही अपनी अलग जगह चाहती है और बनाती भी है, व्योमेश के साथ बहस होती रहती है! जब उसे अपना रिश्ते का भाई विनोद मिलता है और वह आनंदग्राम आती है, तबसे वह महसूस करने लगती है कि उसके लिए सच्ची प्रेमभूमि यहीं है!
इब्सन की नोरा ने घर छोड़ा और उसके पछाड़े हुए कपाट की बुलंद आवाज़ यूरोप भर में गूँज उठी। उसी तरह वसुधा ने आनंदग्राम में बसने का निर्णय लिया, तब कितने परिवारों में हुआ और आज भी विचार-विमर्श जारी है। यह नवलकथा की उपलब्धि है।
इस नवलकथा का प्रधान सुर है ‘मनुष्य होना’, समानता, समादर, सौहार्द्र, सम्मान, स्नेह, सबका समर्पित होना, मैत्रीपूर्ण व्यवहार जैसे मानवीय मूल्य रखना और सबकी स्वतंत्रता और व्यक्तित्व को स्वीकारना। वैसे तो समाज में पुरुषसत्तात्मक मानस ही है फिर भी स्वरूप, विनोद, गगनेन्द्र जैसे समानतापूर्ण व्यवहार करने वाले लोग भी इस कथा में हैं। ईशा, सुमित्रा, एना, जया बहन, सलीना, आभा जैसे कई पात्र हैं, जो अलग सोच रखते हैं।
नवलकथा में अक्सर विचार-विमर्श का जो माहौल पैदा होता रहता है और स्वरूप की शांत, मृदुल अभिव्यक्ति होती रहती है, वह मुझे सबसे ज़्यादा संतर्पक लगती है। मॅन/वुमॅन नहीं ह्यूमन की विभावना ज़्यादा स्वीकार्य लगती है। इसलिए हमने अस्तित्व का सूत्र रखा था ‘अस्तित्व से व्यक्तित्व से सहअस्तित्व।’ वैसे तो इस पुस्तक से बहुत सारे उद्धरण यहाँ लिख सकती हूँ लेकिन अभी चार-पाँच उद्धृत करती हूँ:
- “मैंने बृहद परिवार की बात की थी, परिवार विकासशील विभावना है- इवॉल्विंग कॉनसेप्ट। हम ऐसे परिवार का सर्जन कर सकते है जहां पूर्व-पाश्चात्य जीवनशैली की उत्तम रीति-नीति अपनायी जाएं और दोष निकाले जाएं।”
- “प्रेम का वर्तुल विशाल हो, अरस-परस सब अवलंबित होने से ज़्यादा प्रेम, हूंफस भर सातत्यपूर्ण जीवन-व्यवस्था करें, एक को अगर तकलीफ़ हो तो दूसरा उसे आश्वस्त रखे, सबके समान व्यक्तित्व का स्वीकार हो। अपने यहाँ जो सहज लगता है कि अगर एक के लिए दूसरे को अपनी इच्छा का बलिदान देना पड़े, ऐसा कभी न हो, किसी का किसी पर आधिपत्य न हो और काम की न्यायिक व्यवस्था हो।”
- “स्त्री होने का अर्थ समर्पण-ऐसी तुलना करके स्त्री का मूल्य आँकना बहुत बेहूदा बात है। प्रेम में समर्पण होता है लेकिन प्रेम की भावना दोनों तरफ़ से समान होनी चाहिए। किसी की सत्ता के सामने समर्पित होने में अक़्लमंदी हो सकती है, सत्त्वशीलता नहीं है।
- “कृत्रिम व्यवहारों में ज़िन्दगी बीत गयी। अभी सबकी अपनी-अपनी सांसारिक ज़िन्दगी है, जहाँ मैं हूँ? हूँ तो कहाँ हूँ? मेरा कौन है? जब मेरे लिए मैं ही हूँ, तो ज़िन्दगी का सार क्या है?”
- “स्वतंत्रता की चाहत आदिम है, प्रेम की इच्छा, प्रेम पाने की और देने की चाहत मनुष्य के मनुष्य होने में है… स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व की परिभाषा समानांतर चलती है।”
- अंत में स्वरूप ईशा से कहते हैं, “आनंदग्राम विधाता का ऐसा चित्र है, जहाँ पूर्ण से पूर्ण निकल जाये तो पूर्ण ही रहता है। तब हमें लगता है कि पूर्णत्व की झाँकी ऐसी भी हो सकती है। मनुष्य होने की यात्रा यही है।”
तो ऐसी कई बातें हमें इस नवलकथा से अपनी ज़िंदगी से जोड़ती हैं और जीना सिखाती हैं, ज़िंदगी का अर्थ-मर्म समझने में सहायक होती हैं और स्वरूप-ईशा के रूप में आदर्श दंपति की परिभाषा स्पष्ट करती हैं इसलिए इस नवलकथा से मैं बेहद प्रेम करती हूँ। इस लेख के ज़रिये मुझे हिन्दी साहित्य वर्तुल में जोड़ने के लिए मैं भवेश जी की शुक्रगुज़ार हूँ।
(क्या ज़रूरी कि साहित्यकार हों, आप जो भी हैं, बस अगर किसी किताब ने आपको संवारा है तो उसे एक आभार देने का यह मंच आपके ही लिए है। टिप्पणी/समीक्षा/नोट/चिट्ठी.. जब भाषा की सीमा नहीं है तो किताब पर अपने विचार/भाव बयां करने के फ़ॉर्म की भी नहीं है। [email protected] पर लिख भेजिए हमें अपने दिल के क़रीब रही किताब पर अपने महत्वपूर्ण विचार/भाव – संपादक)

बकुला घासवाला
कर्मशील-लेखिका-अनुवादक-कवि। क़रीब आधा दर्जन किताबें लेखन-सहलेखन में प्रकाशित हैं। गुजराती साहित्य परिषद द्वारा 2005 का भगिनी निवेदिता अवार्ड (प्रथम)। मृणालिनी साराभाई की अंग्रेज़ी आत्मकथा ‘द वॉइस आफ़ द हार्ट' का गुजराती अनुवाद 'अंतर्नाद-एक नृत्यांगना जीवन’ को साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा 2019 में पुरस्कृत किया गया। हाल ही ऑडियो नॉवेल ‘सात पेटी ना संबंधे’ जिज्ञेश पटेल की आवाज़ में प्रसारित हुई। आकाशवाणी से प्रसारित। वलसाड की 'अस्तित्व' संस्था की स्थापना व सक्रियता में विशिष्ट योगदान। समाज-संस्कृतिसेवी।
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