ज़ह्र-ए-इश्क़, zehr e ishq

अपने वक़्त में ही कल्ट बन गयी थी यह इश्किया मसनवी

              “शौक़ का अस्ल काम दरअस्ल ये है कि उन्होंने लखनवी क़िस्सागोई को तिलिस्म और जादू से आज़ाद करके सफ़ाई-ए-ज़बान के जादू से सामईन (श्रोता) को मस्हूर (चमत्कृत) किया… कहानी को कहानी की हैसियत से सुनने के क़ाबिल बनाया और एक हद तक मुख़्तसर (संक्षिप्त) कहानी की तरफ़ क़दम उठाया।”
– डाक्टर सय्यद अबदुल्लाह

ज़ह्र-ए-इश्क़ एक संक्षिप्त इश्क़िया मसनवी है, जो नवाब मिर्ज़ा शौक़ लखनवी की सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना है। इसमें भावनाओं और अनुभूतियों को किरदारों की ज़बानी सादा और मधुर शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। जिसकी मिसाल नहीं मिलती। इसमें लखनऊ की बेगमाती ज़बान, मुहावरों और कहावतों को काफ़ी महारत से इस्तिमाल किया गया है। अशआर को विशिष्ट ढंग में पेश किया गया है।

जब ये मसनवी बाज़ार में आयी तो हाथो-हाथ ली गयी और तक़रीबन हर घर में इस की प्रतियां थीं। मगर लोग छुप-छुप कर पढ़ते थे। अक्सर बड़े लोग छोटों के हाथ में इसको नहीं जाने देते थे क्योंकि इस पर इल्ज़ाम था कि इस में निर्लज्जता से काम लिया गया है। अपशब्द और बेहूदगी है। मगर इसमें उस ज़माने के लखनऊ के हालात को ईमानदारी से पेश किया गया था। कामुकता, आवारगी और इश्क़ की मिसालें मिलती थीं। मिर्ज़ा शौक़ ने बेबाकी से माहौल को चित्रित किया है। इसका कई थिएटर कंपनियों ने बाक़ायदा मंचन भी किया।

कहते हैं कि एक बार एक कंपनी ने इसका जब लखनऊ में मंचन किया तो उसके प्रभाव में एक लड़की ने अत्यधिक भावुक होकर ख़ुदकुशी कर ली। तब हुकूमत ने इसके मंचन पर प्रतिबंध लगा दिया, साथ ही किताब के प्रकाशन पर भी पाबंदी लगा दी। 1919 में लोगों की कोशिशों से पाबंदी हटायी गयी।

“ज़ह्र-ए-इश्क़” की लोकप्रियता को देखते हुए बहुत से प्रकाशकों ने मामूली शाइरों से इसी तरह की मसनवियां लिखवाकर फ़ायदा उठाना चाहा। चुनांचे ख़ंजर-ए-इश्क़, क़हर इश्क़ जैसी मसनवियाँ बाज़ार में आयीं, जिन्हें शौक़ का बताया गया था ताकि लोग उन्हें खरीदें।

आम तौर से लखनऊ की मसनवियों में विचित्र और जादुई वातावरण होता था। उनसे अलग “शौक़” ने सादा ज़बान में ज़िंदगी के हालात को पेश किया है, जिनमें सिर्फ़ शब्दों का गोरखधंधा नहीं था बल्कि बाक़ायदा मानवीय भावनाओं की तर्जुमानी थी। उनकी मसनवियों की ऐसी शोहरत मिली कि लोग पुरानी मसनवियों को भूल बैठे। तीनों मसनवियाँ एक ही बह्र में हैं यानी बहर-ए-खफ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून मक़तू या महज़ूफ़ जिसका वज़्न है- फ़ाएलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन, इसमें साढे़ पाँच सौ से ज़्यादा अशआर हैं।

इस मसनवी में मुहब्बत का एक वाक़िया है, जो मानवीय भावनाओं का आईना है। आशिक़ एक ख़ुशहाल ख़ानदान का मनचला नौजवान है। माशूक़ा महजबीन एक सौदागर की अतिसुंदर लड़की है। दोनों में इश्क़ हो जाता है। दोनों मिलने के लिए बेक़रार रहने लगते हैं। मिलने मिलाने के अवसर भी निकल आते हैं। मगर राज़ खुल जाता है। लड़की बदनामी के डर से नौजवान से मिलती है और ख़ुदकुशी करने का प्रण करती है। लेकिन लड़के को यक़ीन नहीं आता कि वो ऐसा करेगी। मगर महजबीन ज़ह्र खाकर जान दे देती है। वो उसके जनाज़े में शामिल होता है और घर आकर ख़ुद भी ख़ुदकुशी की कोशिश करता है मगर कामयाब नहीं होता। लोगों का कहना है कि यह एक तरह से मिर्ज़ा शौक़ की अपनी ही कहानी है यानी आप-बीती।

ज़ह्र-ए-इश्क़, zehr e ishq

शौक़ लखनवी : एक नज़र

नाम मिर्ज़ा अख़लाक़ हुसैन ख़ान उर्फ़ीयत नवाब मिर्ज़ा और तख़ल्लुस “शौक़” था। उनके पिता हकीम आग़ा अली लखनऊ के नामी-गिरामी हकीमों में गिने जाते थे। बाद में इसी ख़ानदान से मशहूर-ए-ज़माना हकीम मसीह उल-मुल्क भी हुए। ख़ानदानी पेशा तबाबत था ही सो वो भी तबीब बन गये। शौक़ शायरी के ज़ौक़ से कैसे महरूम रहते। ख़्वाजा आतिश की शागिर्दी इख़्तियार की और ग़ज़ल कहने लगे। मगर ग़ज़ल से उनका दिल ज़्यादा मुतमइन नहीं था सो मसनवी कहने लगे। पहली मसनवी फ़रेब-ए-इश्क़ (1846), दूसरी बिहार इश्क़ (1847) और आख़िरी ज़ह्र-ए-इश्क़ (1862) है, जो सबसे मशहूर है। 91 साल की उम्र में उनका इंतिक़ाल 30 जून 1871 को हुआ।

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डॉक्टर मो. आज़म

बीयूएमएस में गोल्ड मे​डलिस्ट, एम.ए. (उर्दू) के बाद से ही शासकीय सेवा में। चिकित्सकीय विभाग में सेवा के साथ ही अदबी सफ़र भी लगातार जारी रहा। ग़ज़ल संग्रह, उपन्यास व चिकित्सकी पद्धतियों पर किताबों के साथ ही ग़ज़ल के छन्द शास्त्र पर महत्पपूर्ण किताबें और रेख्ता से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ल विधा का शिक्षण। दो किताबों का संपादन भी। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी सहित अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मानित, पुरस्कृत। आकाशवाणी, दूरदर्शन से अनेक बार प्रसारित और अनेक मुशायरों व साहित्य मंचों पर शिरकत।

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