
- July 15, 2025
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जद्दोजहद, पुनर्वास, विस्थापन... आज के समाज का उपन्यास
हिंदी की जानी-मानी लेखिका प्रज्ञा का उपन्यास ‘कांधों पर घर’ कुछ समय पहले प्रकाशित हुआ। उनके चार कहानी संग्रह हैं। उपन्यास त्रयी के रूप में ‘गूदड़ बस्ती’ और ‘धर्मपुर लॉज’ के बाद यह तीसरा महत्वपूर्ण उपन्यास है। यह देश की राजधानी दिल्ली के उस समाज की कहानी कहता है, जो सुविधाओं और संपन्नता से कोसों दूर है। शहर के चमकीले चेहरे के पीछे छिपे ये लोग कब गुमनामी के अंधेरे में खो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। देश की राजधानी दिल्ली में एक नदी है यमुना, यमुना पुश्ते पर अनगिनत बस्तियां बसती रही हैं। जीने की चाह लिये रोजी रोटी की तलाश में देश के कोनों से हज़ारों-लाखों की संख्या में यहां लोग आते रहे हैं, बसते रहे हैं। ये बस्तियां जहां भाईचारा है, सामूहिक जीवन है, सुख-दुख में एक-दूसरे का साथ है, एक दिन वे उजड़ती हैं और हज़ारों की तादाद में लोग बेघर हो जाते हैं। विस्थापन – फिर जीने की जद्दोजहद के साथ पुनर्स्थापन… और फिर विस्थापन। यह सिलसिला एक बड़ी आबादी की नियति बन गया है। यह उपन्यास व्यवस्था के विकास के मॉडल पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। प्रज्ञा बधाई की पात्र हैं। अपनी सूक्ष्म दृष्टि से यमुना पुश्ते पर फैली इस आबादी पर नज़र डालते हुए ढेर सारे पात्रों के जीवन की सुबह-शाम से रूबरू होते हुए और उन धड़कनों को साकार करते हुए इस रचना के लिए जो पाठक के सामने पर्त-दर-पर्त उजागर होती है।
उपन्यास की शुरूआत में कानपुर की पूनम, सूरज की पत्नी के रूप में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर बदायूं में आती है। जीवन में आगे बढ़ने का सपना लिये वे दिल्ली आ जाते हैं। बड़े-बड़े थैलों में बंद सूरज की किताबों की दुकान है, जिन्हें वह साइकिल पर लादकर रोज़ ले जाता है और रात में थैले घर आ जाते हैं। दिल्ली के फ़ुटपाथों ने उस जैसे अनगिनत लोगों को रोज़ी-रोटी दी है। इन्हीं में सूरज के शहर का नेचू भी है, जो फ़ुटपाथ पर मोज़े-बनियान आदि बेचता है। रिहाइश – ईंटों की चार दीवारें – टीन की छत, कबाड़ी के यहां से लाकर लगाया गया एक दरवाज़ा.. और घर का सपना पूरा! संजय-अमर कालोनी के बाशिन्दों का यही संसार है। यहां फ़रीदा, रफ़ीकुद्दीन, गुड़िया, अमीना, राधा… और सैकड़ों परिवार हैं। सुगंधा के घर काम करने वाली मुनमुन का परिवार भी है। वह सभी घरों में तथा बेटे मोटे काम करते हैं। औरतों के नशेड़ी पति भी हैं। औरतें पिटती भी हैं। यह पूरा संसार है, जिसका बेहद विश्वसनीय रूप से प्रज्ञा ने चित्रण किया है।
पूनम समझदार, संवेदनशील और पढ़ी-लिखी है। बस्ती के बच्चों को आवारा घूमते देखकर स्कूल खोलती है, जो सबके सहयोग से चल निकलता है। महावीर सिंह जैसे स्थानीय नेता भी मदद करते हैं। पति से अलग रहने वाली साधन संपन्न सुगंधा समाजसेवी है और ‘जनमंच’ संगठन के माध्यम से पुश्ते के स्लम में रहने वालों की मदद भी करती है। पूनम भी सुगंधा के जनमंच से जुड़ जाती है। उसकी बस्ती में भगाकर लायी गयी तीन नाबालिग लड़कियों को पुलिस की मदद से छुड़वाती है। फ़रीदा का बेटा बोलता नहीं और इसके लिए वह झाड़-फूंक, मौलवी के चक्करों में है। पूनम उन्हें लेकर डॉक्टर के पास जाती है और समस्या का समाधान होता है।
देश में चल रही राजनीति, वी.पी. सिंह के प्रधानमंत्रित्व के समय उठने वाला आरक्षण का मुद्दा और आंदोलनों से निर्मित वातावरण भी अनेक कथा-प्रसंग बनाते हैं। यह पिछली सदी के आठवें-नवें दशक का समय है, जब हिंदुस्तान बदल रहा है। टी.वी. और ढेर सारे चैनल… समाज की नयी तस्वीर बना रहे हैं। पुश्ते में भी केबल टी.वी. का प्रवेश हुआ है और इसके साथ ही नये सपने, नयी आशाएं हैं।
सुगंधा का बेटा अनीश नये बनते भारतीय समाज का एक और चेहरा है। यह पढ़ा-लिखा, महत्वाकांक्षी युवा है जिसके सरोकार नितांत आत्मकेंद्रित हैं। लक्ष्य प्राप्ति के रास्ते में यहां उचित-अनुचित कुछ नहीं होता। भारत न्यूज़ अख़बार से पत्रकारिता की शुरूआत करने वाले अनीश जैसे अन्य अनेक हैं, जिनके विचार से यमुना पुश्ते की बस्तियां और ऐसे स्लम देश-समाज का बदसूरत चेहरा हैं। इनकी राय में, यहां रहने वाले लोग नशेबाज़ हैं, अपराधी हैं, जिन्हें हटाना और साफ़ करना ज़रूरी है। उसकी सहकर्मी उमा, जिसके पति उसके मन में प्रेमभाव हुआ करता था, वह तिरोहित हो जाता है, जब वह भारत न्यूज़ चैनल के लिए पुश्ते की बस्ती को ज़मींदोज़ करने और बड़ी आबादी के विस्थापन के ख़िलाफ़ रिपोर्ट बनाकर लाती है। अनीश अब न्यूज़ चैनल के मालिकों का कृपापात्र है और सीनियर पद पर है।
सुगंधा अनीश से कहकर मुनमुन के भतीजे परवेज़ को उसके आफ़िस में लगा देती है। वह दसवीं पास है और आगे पढ़ने की इच्छा रखता है। एक दिन पुलिस उसे बांग्लादेशी, आतंकवादी मुसलमान कहकर उठा ले जाती है और फिर उसकी पुलिस हिरासत में ही मौत हो जाती है। यह न्यूज़ चैनल मेहनत मज़दूरी करने वाले बंगाली मुसलमानों को बांग्लादेशी घुसपैठियों के रूप में चिह्नित करते हैं।
आज का बनता भारत… नफ़रत की राजनीति… पत्रकारिता का बदलता स्वरूप… इस उपन्यास का विस्तृत फ़लक है, जो आज के समाज और राजनीति का रेशा-रेशा अलग कर पाठकों को संवेदित करता है। इस महत्वपूर्ण कृति के लिए प्रज्ञा को बधाई।

नमिता सिंह
लखनऊ में पली बढ़ी।साहित्य, समाज और राजनीति की सोच यहीं से शुरू हुई तो विस्तार मिला अलीगढ़ जो जीवन की कर्मभूमि बनी।पी एच डी की थीसिस रसायन शास्त्र को समर्पित हुई तो आठ कहानी संग्रह ,दो उपन्यास के अलावा एक समीक्षा-आलोचना,एक साक्षात्कार संग्रह और एक स्त्री विमर्श की पुस्तक 'स्त्री-प्रश्न '।तीन संपादित पुस्तकें।पिछले वर्ष संस्मरणों की पुस्तक 'समय शिला पर'।कुछ हिन्दी साहित्य के शोध कर्ताओं को मेरे कथा साहित्य में कुछ ठीक लगा तो तीन पुस्तकें रचनाकर्म पर भीहैं।'फ़सादात की लायानियत -नमिता सिंह की कहानियाँ'-उर्दू में अनुवादित संग्रह। अंग्रेज़ी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में कहानियों के अनुवाद। 'कर्फ्यू 'कहानी पर दूरदर्शन द्वारा टेलीफिल्म।
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