Aab-O-Hawa Weekly Newsletter

हफ़्ते भर की ख़बर

(आब-ओ-हवा वीकली न्यूज़लेटर)

कंटेंट : भवेश दिलशाद, आकांक्षा, ग़ज़ाला तबस्सुम


“रोज़ाना कम से कम एक गीत सुनें, एक अच्छी कविता पढ़ें, एक सुंदर तस्वीर देखें, और मुमकिन हो तो कुछ सार्थक शब्द बोलें.” – गोएथे

 

  • दक्षिण और भाषा: कई पहलू
  • रस्किन का 91वां बॉण्ड
  • लखनऊ में साहित्य पार्क
  • याद आएंगे खगोल वैज्ञानिक, साई-फ़ाई लेखक नार्लीकर
  • स्तंभकार की अश्लील भाषा
  • यूट्यूबर जासूस!
  • आब-ओ-हवा पर ख़ास ख़बरें
  • एक और संस्था की लुटिया डूबी!

दक्षिण और भाषा: कई पहलू

अब कर्नाटक और आंध्र प्रदेश। दक्षिण भारत के लिए या ग़ैर हिन्दीभाषी राज्यों के लिए केंद्र सरकार की तीन भाषा नीति को लेकर तमिलनाडु सरकार अपना विरोध जता चुकी है। इस नीति पर विरोध को हिन्दी विरोध के तौर पर देखा गया। ​दक्षिण में हिन्दी का का विरोध नयी बात नहीं है। समय समय पर कुछ न कुछ हंगामा चलता ही रहा है। हालांकि इस विवाद में अब आंध्र प्रदेश से एक अलग दृष्टिकोण सामने आया है।

आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने हाल ही एक बयान में न सिर्फ़ हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा कहा बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि इसे अनावश्यक राजनीति का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए और हिन्दी व अंग्रेज़ी सीखने के महत्व को समझा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि क्षेत्रीय भाषा के साथ ही देश और दुनिया की भाषाएं सीखने में ही समझदारी है। यही नहीं, उप मुख्यमंत्री पवन कल्याण ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने की ​वकालत भी की और कहा कि किसी भाषा से नफ़रत किये जाने का रवैया बदले जाने की ज़रूरत है। (विस्तार से द वायर पर)

वास्तव में, हिन्दी को लेकर अनेक स्तरों पर दक्षिण से हो रहे विरोध के समय में ये दो बयान महत्वपूर्ण समझे जाने चाहिए। पिछले दिनों प्रसिद्ध अभिनेता व नेता प्रकाश राज ने अलगाव बढ़ाते शब्दों में कहा था, ‘अपनी हिन्दी हम पर मत थोपो’। पवन कल्याण ने इस बयान को भी निशाना बनाया। यहां तक कह दिया अगर तमिलनाडु हिन्दी के इतना ख़िलाफ़ है तो तमिल फ़िल्में हिंदी में डब क्यों डब की जा रही हैं!

इधर, गायक सोनू निगम ने एक्स पर कर्नाटक के भाजपा नेता तेजस्वी सूर्या को जवाब देते हुए लिखा, ‘कन्नड़ फ़िल्मों को न तो हिंदी में डब किया जाये, न पूरे भारत में रिलीज़। क्या आपमें हिम्मत है कि अपने फ़िल्मी सितारों से आप ऐसा कह सकें?’ इससे पहले सूर्या ने एक बैंककर्मी व बैंकग्राहक के बीच हिन्दी कन्नड़ विवाद पर अपनी प्रतिक्रिया दी थी कि अगर आप कर्नाटक में ग्राहक सेवा के व्यवसाय में हैं तो आपको स्थानीय भाषा अपनाना चाहिए। (विस्तार से फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस पर)

हुआ यह था कि बेंगलुरु में स्टेट बैंक आफ़ इंडिया की एक शाखा प्रबंधक ने एक ग्राहक से कन्नड़ में बात करने से इनकार कर दिया था। ग्राहक ने कहा था, मैडम यह कर्नाटक है तो शाखा प्रबंधक ने कहा था, यह भारत है और मेरी मातृभाषा हिंदी है। यह वीडियो वायरल हुआ। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया सहित कई नेताओं ने इस बर्ताव को ग़लत बताया था और कुछ ही देर बाद शाखा प्रबंधक ने टूटी फूटी कन्नड़ में वीडियो जारी कर ग़लती मानी और माफ़ी मांगी। (विस्तार से बिज़नेसस्टैंडर्ड पर)

ख़बरें और भी हैं। बेंगलुरु में गूगल कंपनी में काम करने वाले एक युवक ने लिंक्डइन पर एक लंबा पोस्ट लिखते हुए यह बताया कि उसका क़सूर सिर्फ़ इतना था कि उसने एक वाहनसवार व्यक्ति से हिंदी में कह दिया कि थोड़ी जगह दीजिए, नतीजा यह हुआ कि उसे वाहन पार्क करने की इजाज़त नहीं दी गयी। (विस्तार से न्यूज़18 पर)

भाषाओं के झगड़ों मुद्दतों से देश में चल रहे हैं। राहत की बात रही कि पिछले हफ़्ते के इन तमाम मामलों में कोई उपद्रव नहीं भड़का। ऐसा भी नहीं हुआ कि किसी भाषा को लेकर किसी सियासी शख़्सियत ने कोई आपत्तिजनक बयान दिया हो। किसी को कोई भाषा बोलने को लेकर ‘कठमुल्ला’ या ‘देशद्रोही’ कहने जैसी घटनाएं इन मामलों में नहीं हुईं।

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रस्किन का 91वां बॉण्ड

बॉण्ड, रस्किन बॉण्ड। नाम तो सुना होगा आपने। भारत का एक चहेता लेखक। बीते 19 मई को 91 बरस के हो गये रस्किन बॉण्ड। पहाड़ों में रहते हुए, शानदार साहित्य की विरासत खड़ी करते हुए रस्किन बॉण्ड देश के उन चुनिंदा लेखकों में हैं, जो न सिर्फ़ सेलिब्रिटी लेखक का दर्जा रखते हैं बल्कि प्रतिबद्धताओं के लिए भी जाने जाते हैं। इस साल उन्होंने पहलगाम की घटना के मद्देनज़र एक वीडियो जारी करते हुए अपने प्रशंसकों से कहा कि वह सार्वजनिक रूप से अपना जन्मदिन नहीं मनाएंगे। कोई जश्न नहीं होगा। बल्कि यह एक मौक़ा होगा कि हम आत्मावलोकन करें, शांति के साथ।

हालांकि इस जन्मदिन के मौक़े पर भी बॉण्ड की एक नयी किताब जारी हुई। लाइफ़्स मैजिक मूमेंट्स शीर्षक की इस किताब के बारे में उन्होंने बताया कि इस किताब में कुछ निबंधों का संग्रह है, जो उनके पत्र से लिये गये अंश या चिंतन हैं। इस किताब के लिए बधाई के साथ ही आब-ओ-हवा परिवार की ओर से उन्हें स्वस्थ एवं दीर्घायु की असीम शुभकामनाएं।

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अर्णब गोस्वामी की माफ़ी भी धोखा?

अपने न्यूज़ चैनल पर अर्णब गोस्वामी को यह कहते सुना और देखा गया कि भारत की कांग्रेस पार्टी ने तुर्किए में अपना एक दफ़्तर खोला। नेशन वॉण्ट्स टू नो वाले अंदाज़ में उन्होंने यह भी कहा, क्यों खोला? कौन है वह मुसलमान जो उस दफ़्तर का संचालन कर रहा है? फिर पता चला कि वह दफ़्तर तुर्किए का कांग्रेस सेंटर का था न कि भारत की कांग्रेस पार्टी का। अब कांग्रेस ने कोर्ट में जाकर इस फ़ेक न्यूज़ की शिकायत की और अर्णब के साथ ही भाजपा की आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय पर दावा दायर कर दिया। इधर अर्णब के चैनल ने इस समाचार को वीडियो संपादक की भूल चूक बताकर एक माफ़ीनामा जारी किया, लेकिन सवाल यह खड़ा हो गया कि वीडियो संपादक ने तो फ़ुटेज जुटाया होगा, उसे प्रस्तुत करने वाले, ‘नेशन वॉण्ट्स टू नो’ पूछने वाले और एंकर की भूमिका निभाने वाले तो साक्षात अर्णब ही थे! यह पूरा मामला कई यूट्यूब वीडियो पर और अनेक समाचार पत्रों पर विस्तार से समझा जा सकता है।

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खगोल वैज्ञानिक, साई-फ़ाई लेखक नार्लीकर नहीं रहे

विज्ञान संचारक और पद्मविभूषण से सम्मानित डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर 87 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गये। ‘अपनी वास्तविक समस्याओं का सामना करने और तार्किक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए उनका समाधान करना ही भारत के लिए चुनौती है।’ ये शब्द ‘द रिपब्लिक ऑफ रीजन’ के लिए उनके द्वारा लिखी गयी प्रस्तावना से हैं। इस पुस्तक में मारे गये तर्कवादियों गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर, एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश आदि के चुनिंदा लेख आप पढ़ सकते हैं।

19 जुलाई, 1938 को जन्मे डॉ. नार्लीकर ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और कैम्ब्रिज से अपनी शिक्षा पूरी की थी। कैम्ब्रिज में वह गणितीय ट्रिपोस में रैंगलर और टायसन पदक विजेता रहे थे। यही नहीं, विज्ञान कथाओं और कथेतर लेखन के क्षेत्र में भी नार्लीकर सक्रिय रहे। उनकी दर्जनों किताबें आज भी विज्ञान के जिज्ञासुओं के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।

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स्तंभकार की अश्लील भाषा

भाषा की सीमाएं लांघ जाने का एक और मामला एक पत्रकार के संदर्भ में चर्चा का विषय रहा। दिल्ली उच्च न्यायालय ने ओपइंडिया के स्तंभकार अभिजीत अय्यर-मित्रा को आदेश दिया कि वह उस अपमानजनक पोस्ट को इंटरनेट से हटाएं जिसमें उन्होंने डिजिटल न्यूज़ आउटलेट न्यूज़लॉन्ड्री को ‘वेश्यालय’ और वहां की महिला पत्रकारों को ‘वेश्या’ कह दिया। न्यायाधीश पुरुषेंद्र कुमार कौरव ने अय्यर-मित्रा के ‘शब्दों के चयन’ को बेहद ग़ैर ज़िम्मेदाराना बताते हुए कहा कि ‘सभ्य समाज में यह स्वीकार्य नहीं’ है। न्यूज़लॉन्ड्री की नौ महिला पत्रकारों ने अय्यर-मित्रा के खिलाफ 2 करोड़ रुपये के हर्जाने का दावा दायर किया था। इसकी सुनवाई के दौरान न्यायाधीश ने चेताया कि पोस्ट न हटाये जाने पर अय्यर-मित्रा के ख़िलाफ़ एफ़आईआर का आदेश दिया जा सकता है। (विस्तार से लाइव लॉ पर)

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यूट्यूबर जासूस!

33 वर्षीय ज्योति रानी  यूट्यूब पर एक ट्रैवल शो चलाती है। ‘ट्रैवल विद जो’ के नाम से इस चैनल के क़रीब पौने चार लाख सब्सक्राइबर्स हैं। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसियों के लिए जासूसी करने का आरोप ज्योति पर लगाया गया। हरियाणा पुलिस ने हिसार में ज्योति को कोर्ट में पेश कर पांच दिन की रिमांड भी हासिल कर ली। केंद्रीय एजेंसियां ज्योति से पूछताछ कर रही हैं।

ख़बरों में पुलिस के हवाले से कहा गया है कि दिल्ली स्थित पाकिस्तान हाई कमीशन के एक अधिकारी के साथ ‘संवेदनशील जानकारी’ ज्योति ने शेयर की। ख़बरें ये भी हैं कि हरियाणा पुलिस ने इसी सप्ताह पानीपत से एक युवक को भी पाकिस्तान में कई लोगों के साथ संवेदनशील सूचनाएं साझा करने के आरोप में गिरफ्तार किया था।

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आब-ओ-हवा पर ख़ास ख़बरें

  • ‘एंड द इंटरनैशनल बुकर प्राइज़ गोज़ टू… हार्ट लैंप’, और इस वाक्य के साथ सभागार में तालियां भी बजीं, हर्ष ध्वनि भी गूंजी। कन्नड़ लेखक बानू मुश्ताक़ और अनुवादक दीपा भास्ती मंच पर पहुंची और उन्होंने ट्रॉफ़ी क़बूल की। (विस्तार से यहां पढ़ें)
  • अभिनेता और एक्टिविस्ट वीरा साथीदार की याद में एक आयोजन हुआ तो नागपुर पुलिस ने सिर्फ़ इसलिए आयोजकों पर राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर लिया क्योंकि उस आयोजन में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की मशहूर नज़्म ‘हम देखेंगे’ गायी गयी। यही नहीं, एफ़आईआर में कविता की जो पंक्ति दर्ज करवायी गयी, वह भी ठीक नहीं थी। (विस्तार से यहां पढ़ें)
  • मध्य प्रदेश सरकार के प्रदेश के उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा ने यह बयान देकर विवाद खड़ा कर दिया कि भारतीय सेना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चरणों में नतमस्तक है। बाद में आलोचनाएं हुईं तो रिपोर्ट्स के मुताबिक़ शब्द पलटते हुए कहा मेरा मतलब था, ‘देश की जनता भारत की सेना के चरणों में नतमस्तक है’। इससे पहले, मंत्री विजय शाह ने सैन्य अधिकारी सोफ़िया क़ुरैशी के संदर्भ में जो बयान दिया, उच्च न्यायालय ने उसे ‘गटरछाप भाषा’ की संज्ञा देते हुए इस बयान को भारत की एकता, अखंडता, संप्रभुता के लिए ख़तरा तक क़रार दिया। नेताओं की भाषा, सोच और नीयत साफ़ हो जाने के बाद भी उन पर कोई ठोस कार्रवाई न की जा सकी लेकिन इधर, हरियाणा स्थित अशोका यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद को एक फ़ेसबुक पोस्ट लिखने के सिलसिले में गिरफ़्तार कर लिया गया। ताज़ा समाचार हैं कि अली को अंतरिम ज़मानत दी गयी। (विस्तार से यहां पढ़ें)

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और हॉं…

एक और संस्था की लुटिया डूबी!

-भवेश दिलशाद

 

देश में जिन बची खुची संस्थाओं से थोड़ी सी उम्मीद रह गयी है, क्या वो भी हताशा में बदल जाएगी? संस्थाएं ख़त्म किये जाने के समय में अब क्या खोज खोजकर संस्थाओं को बर्बाद करने का दौर आ गया है? सवाल ज़रा परेशान भी कर सकता है और आपको एक उकताहट भी हो सकती है लेकिन इन सवालों से बचना भी तो कोई रास्ता नज़र नहीं आता। इस बार बात महिला आयोग जैसी संस्था की है।

एक बड़ा वर्ग है, जो इस और ऐसे कई सवालों से मुंह फेर चुका है। उसने मान लिया है कि प्रधानमंत्री मोदी या केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के ख़िलाफ़ कुछ लोग, कुछ वर्ग एक मुहिम चला रहे हैं। मान लिया है कि ऐसा करने के लिए इन लोगों को ग़ैर क़ानूनी ढंग से या विदेशों से आपत्तिजनक फ़ंडिंग हो रही है। मान लिया है कि ये मार्क्सवादी या साम्यवादी विचारधारा/दल से संबद्ध हैं इसलिए बस कहने को कहे जा रहे हैं। मान लिया है कि कोई दूसरा विकल्प हो ही नहीं सकता, सो जो है वो बाक़ी सबसे बेहतर है। और ऐसा ही बहुत कुछ मान लिया है पर इस एक बड़े वर्ग ने इसके पीछे के तर्क और तथ्य नहीं जुटाये।

ऐसा इसलिए क्योंकि इस बड़े वर्ग की धारणा का बड़ा आधार वह मीडिया है, जो सत्ता का ही पक्षधर है। यही नहीं, इस मीडिया पर फ़ेक न्यूज़ और मनगढ़ंत थ्योरीज़ बनाये जाने के आरोप लगते रहे हैं। दूसरी तरफ़ जो विरोधी वर्ग है, वह लगातार इस मीडिया और सत्ता को सवालों के कठघरे में खड़ा कर रहा है। मुख्यधारा के मीडिया के बरअक्स इसकी पहुंच कम है फिर भी यह शिद्दत से तमाम आरोपों, दमन और ख़तरों का सामना करता हुआ समानांतर सक्रियता बनाये हुए है।

अब इन दोनों को अगर छोड़ दिया जाये तब भी एक कॉमन सेंस (जो शायद अब बहुत कॉमन दिखता नहीं) आधारित पत्रकारिता शायद थोड़ी बहुत कहीं बची है। दोनों ख़बरें आपने जगह जगह अलग अलग पक्ष से सुनीं, पढ़ीं। पहली मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह के ‘ख़तरनाक’ बयान संबंधी और दूसरी अली ख़ान महमूदाबाद को गिरफ़्तार किये जाने संबंधी। इन दोनों ख़बरों को जोड़कर भी दिखाया गया, लेकिन एक पक्ष पर ग़ौर नहीं किया जा सका। और वह है महिला आयोग की भूमिका।

यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अली के मामले में हरियाणा राज्य महिला आयोग द्वारा नोटिस जारी किया गया। म​हिला आयोग की जिन रेणु भाटिया ने अली पर गंभीर आरोप लगाये, शिकायतें दर्ज कीं, टीवी डिबेट में वह देर तक इस सवाल का कोई ढंग का उत्तर नहीं दे सकीं कि ‘अली की पोस्ट में आपत्तिजनक क्या है?’ तमाम बुद्धिजीवी और स्वतंत्र पत्रकार कहते नहीं थके कि अली की पोस्ट में कुछ भी ऐसा न था, जिसे विवादित कहा जाये।

और अब, अपनी विशिष्ट पक्षधरता के लिए परिचित पत्रकार राजदीप सरदेसाई का एक लेख 23 मई के दैनिक भास्कर में है, जिसमें उन्होंने लिखा है, ‘मैंने जो लेख कुछ दिन पहले माय नेम इज़ रहीम ख़ान’ शीर्षक से लिखा था, अली की घटना के बाद लगता है उसका शीर्षक ‘माय नेम इज़ अली ख़ान महमूदाबाद होता’। वह इस लेख के ज़रिये देश में मुसलमान होने के कारण हो रहे ‘विक्टिमाइज़ेशन’ पर बात कर रहे हैं।

इतना सब कुछ लिखे जाने के बावजूद महिला आयोग की भूमिका की बात इस सिरे से नहीं हुई कि इस आयोग को कहां बोलना चाहिए था। अली की पोस्ट में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा था, जो महिला आयोग के दायरे में समझा जा सके। वही कॉमन सेंस। दूसरी तरफ़ देखिए तो विजय शाह का बयान पूरी तरह से सैन्य अधिकारी सोफ़िया क़ुरैशी के ख़िलाफ़ था। यूट्यूब पर टिप्पणीकार और लोककलाकार नेहा राठौर ने अपनी टिप्पणी में कहा भी कि  भाजपा नेता ने देश की उस बेटी का अपमान किया है, जिस पर पूरे देश को नाज़ है। इसके बावजूद न तो राज्य महिला आयोग ने और न ही राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस बयान पर कोई आपत्ति दर्ज करवायी।

कॉमन सेंस से सोचिए यहां महिला आयोग को स्वत: संज्ञान लेते हुए क्या ऐतराज़ नहीं जताना था? जबकि उच्च न्यायालय तक ने इस बयान को देश की संप्रभुता के लिए ‘ख़तरनाक’ बतलाया, तब क्या गृह मंत्रालय के अंतर्गत यह मामला नहीं आना चाहिए था? उल्टे महिला आयोग एक ऐसी पोस्ट पर अनाप शनाप शिकायतें और बयानबाज़ी कर रहा है, जिससे उसका कोई लेना देना भी नहीं बनता।

इधर, उच्चतम न्यायालय ने ईडी पर ‘हर सीमा तोड़ने, संविधान का उल्लंघन’ करने तक का आरोप लगा दिया है। पहले भी न्यायालयों से ईडी (अन्य कुछ एजेंसियों को भी) को मनमाने तरीक़ों के लिए डांट फटकार पड़ती रही है। तो क्या अब यह समझ लिया जाना चाहिए कि ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग, इनकम टैक्स, मीडिया आदि की तरह देश की एक और संस्था महिला आयोग भी अपना अस्तित्व खो चुकी है?

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(सरोकारों और रचनात्मकता का सिलसिला — साहित्य, कला और परिवेश के दस्तावेज़ आब-ओ-हवाका साप्ताहिक न्यूज़लेटर.. फिर मिलते हैं अगले हफ़्ते)

1 comment on “हफ़्ते भर की ख़बर

  1. सार्थक और अनुपम प्रयोग.
    आप निरंतर कईयों को “पानी” पिला रहे हैं और कईयों की “हवा” निकाल रहे हैं.
    शुभकामनाएं

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