
- July 15, 2025
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'आख़िरी गीत मुहब्बत का...' शायराना नग़मों का राजा
फ़िल्मी दुनिया में शकील बदायूंनी, मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी और कैफ़ी आज़मी जैसे नामी-गिरामी शायर-नग़मा निगारों के बीच राजा मेहदी अली ख़ान ने जो ग़ज़लें और नग़मे लिखे, उनका कोई जवाब नहीं। वे वाक़ई लाजवाब हैं। शायर-नग़मा निगार राजा मेहदी अली ख़ान ने बीसवीं सदी की चौथी दहाई से अपना अदबी सफ़र शुरू किया, जो तीन दहाइयों तक जारी रहा। उनका क़लम से तअल्लुक़ एक सहाफ़ी के तौर पर शुरू हुआ। अपने मामू के अख़बार ‘ज़मींदार’ के अलावा बच्चों की एक पत्रिका ‘फूल’ में उन्होंने जर्नलिस्ट की हैसियत से काम किया। साल 1942 में राजा दिल्ली चले आये और वहां ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में स्टाफ़ आर्टिस्ट के तौर पर जुड़ गये। वहीं उनकी मुलाक़ात हुई, मशहूर उर्दू अफ़साना निगार सआदत हसन मंटो से। मंटो से उनकी अच्छी दोस्ती हो गयी, जो आख़िरी वक़्त तक क़ाइम रही।
‘आठ दिन’ वह फ़िल्म थी, जिससे राजा ने फ़िल्मों में शुरूआत की। ‘आठ दिन’ की स्क्रिप्ट लिखने के साथ-साथ उन्होंने और मंटो ने इस फ़िल्म में अदाकारी भी की। राजा बुनियादी तौर पर शायर थे और जल्द ही उन्हें अपना मनचाहा काम मिल गया। ‘फ़िल्मिस्तान स्टूडियो’ के मालिक एस. मुखर्जी ने जब फ़िल्म ‘दो भाई’ बनाना शुरू की, तो इस फ़िल्म के गीत लिखने के लिए उन्होंने राजा मेहदी अली ख़ान को साइन कर लिया। इस तरह फ़िल्मों में गीतकार के तौर पर उनकी इब्तिदा हुई, जिसे उन्होंने आख़िरी दम तक नहीं छोड़ा।
फ़िल्म ‘दो भाई’ की रिलीज़ के एक साल बाद ही, साल 1947 में मुल्क आज़ाद हो गया, लेकिन हमें यह आज़ादी बंटवारे के तौर पर मिली। मुल्क में हिंदू-मुस्लिम फ़साद भड़क उठे। नफ़रत और हिंसा के माहौल के बीच मुल्क हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के नाम से तक़्सीम हो गया। लाखों हिन्दू और मुसलमान एक इलाक़े से दूसरे इलाक़े में हिजरत करने लगे। ज़ाहिर है, राजा के सामने भी अपना मादर—ए-वतन चुनने का मुश्किल वक़्त आ गया। उनके पुश्तैनी घर-द्वार, रिश्तेदार-नातेदार, दोस्त अहबाब सब पाकिस्तान में थे। लेकिन उन्होंने वहां न जाते हुए, हिन्दुस्तान में ही रहने का फ़ैसला किया। ऐसे माहौल में जब चारों और मार-काट मची हुई थी और एक-दूसरे को शक, अविश्वास की नज़रों से देखा जा रहा था, राजा का हिन्दुस्तान में ही रहने का फ़ैसला, वाक़ई क़ाबिल-ए-तारीफ़ था। ख़ैर, वो संगीन दिन भी गुज़रे।
साल 1948 में राजा मेहदी अली ख़ान को ‘फ़िल्मिस्तान’ की ही एक और फ़िल्म ‘शहीद’ में संगीतकार ग़ुलाम हैदर के संगीत निर्देशन में गीत लिखने का मौक़ा मिला। इस फ़िल्म में उन्होंने चार गीत लिखे। जिसमें ‘वतन की राह में, वतन के नौजवान’ ऐसा गीत है, जो आज भी राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि के मौक़े पर हर जगह बजाया जाता है। राजा मेहदी अली ख़ान की सबसे अच्छी जोड़ी मूसीकार मदन मोहन और ओ.पी. नैयर के साथ बनी। साल 1951 में आई फ़िल्म ‘मदहोश’ से मदन मोहन ने अपने संगीत करियर का आग़ाज़ किया। इस फ़िल्म के सारे गीत राजा मेहदी अली ख़ान ने लिखे। ‘मेरी याद में तुम न आंसू बहाना..’, ‘मेरी आंखों की नींद ले गया..’ समेत सभी गीत ख़ूब पसंद किये गये। इस फ़िल्म के संगीत की कामयाबी के बाद राजा मेहदी अली ख़ान, मदन मोहन के पसंदीदा गीतकार बन गये। मदन मोहन उम्दा शायरी के शैदाई थे और राजा मेहदी अली ख़ान के शायराना नग़मों को उन्होंने अपनी ख़ास धुन में ढालकर अमर कर दिया।
राजा मेहदी अली ख़ान ने साल 1951 से लेकर 1966 तक यानी पूरे डेढ़ दशक, मदन मोहन के लिए एक से बढ़कर एक गीत लिखे। इस जोड़ी के सदाबहार गानों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। जिसमें से कुछ गाने ऐसे हैं, जो आज भी उसी शिद्दत से याद किये जाते हैं। इन गानों को सुनते ही श्रोता, ख़ुद भी इनके साथ गुनगुनाने लगते हैं। ‘आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे’, ‘है इसी में प्यार की आबरू’ (फ़िल्म-अनपढ़ साल-1962), ‘मैं निग़ाहें तेरे चेहरे से हटाऊं कैसे..’, ‘अगर मुझसे मुहब्बत है’ (फ़िल्म-आपकी परछाइयां, साल-1964), ‘जो हमने दास्तां अपनी सुनायी आप क्यों रोये’, ‘लग जा गले’ (फ़िल्म-वो कौन थी, साल-1964), ‘आख़िरी गीत मुहब्बत का सुना लूं’ (फ़िल्म-नीला आकाश, साल-1965), ‘नैनों में बदरा छाये’, ‘आप के पहलू में आकर रो दिये’ (फ़िल्म-मेरा साया, साल-1966)। इन गीतों में से ज़्यादातर गीत सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने गाये हैं। यह गीत न सिर्फ़ राजा मेहदी अली ख़ान और मदन मोहन के, बल्कि लता मंगेशकर के भी सर्वश्रेष्ठ गीतों में शुमार किये जाते हैं।

जाहिद ख़ान
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से लेखन की शुरुआत। देश के अहम अख़बार और समाचार एवं साहित्य की तमाम मशहूर मैगज़ीनों में समसामयिक विषयों, हिंदी-उर्दू साहित्य, कला, सिनेमा एवं संगीत की बेमिसाल शख़्सियतों पर हज़ार से ज़्यादा लेख, रिपोर्ट, निबंध,आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित। यह सिलसिला मुसलसल जारी है। अभी तलक अलग-अलग मौज़ूअ पर पन्द्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ‘मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मिला है। यही नहीं इस किताब का मराठी और उर्दू ज़बान में अनुवाद भी हुआ है।
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