एक और तस्वीर

     एक और तस्वीर

सलमा सिद्दीक़ी

       हमारे यहां उस समय बम्बई के राइटरों और शायरों की एक गोष्ठी होने वाली थी। राइटर और शायरों से अदबी जलसों और मुशायरों में मुलाक़ात कीजिए, तो वह मज़ा नहीं आता, जो लुत्फ़ उनको घरेलू माहौल और बे-तकल्लुफ़ महफ़िल में देखकर, आता है। हक़ीक़त में ज़िंदगी के हर मैदान में लोगों के चेहरों पर जो एक मुलम्मा या एक नक़ाब होती है, वह ऐसी घरेलू महफ़िलों में ऐसे अनजाने-बूझे तरीक़े से आहिस्ता-आहिस्ता उतर जाती है कि इंसान के चेहरे की वास्तविक रूप-रेखा देखने का मौक़ा हाथ आ जाता है। मैं ऐसे मौक़ों की ताक में रहती हूं। वर्ना नकाबपोश चेहरों से तो इतना साबका रहता है कि ख़ुद भी अक्सर चेहरे पर गिलाफ़ चढ़ाके ही इस दुनिया में मिलना-जुलना पड़ता है।

            धीरे-धीरे सूरज ढलने लगा, आहिस्ता-आहिस्ता हवा में खुनकी हवा रचने लगी और हौले-हौले शाम अपने क़दम बढ़ाने लगी। मैंने बैठने के कमरे पर नज़र डाली। खाने की मेज़ का जाइज़ा लिया। फूलों की डंडियां एक बार फिर फूलदानों में संवारी। कुर्सियों पर नज़र न आने वाले गर्द-ओ-ग़ुबार को फिर साफ़ कर दिया। और ख़ुद बड़े आईने में अपना एक भरपूर जाइज़ा लिया। साड़ी की शिकनें संवारी। लिपस्टिक को गहरा किय। और अपने ख़याल में अपने चेहरे पर एक बड़ी निथरी और निश्छल मुस्कान पैदा की और बैठने के कमरे में सामने की कुर्सी पर एक ख़ास एंगिल से बैठकर, बाहर सड़क की तरफ़ देखने लगी। यानी मुकम्मल तौर पर मेहमानों के आने का इंतज़ार करने लगी। लेकिन मेहमान सिर्फ़ मेहमान ही तो न थे, जो वक़्त पर आ जाते। वे अदीब भी तो थे, जो अगर वक़्त पर आ जाते, तो उनके अदब पर हरूफ़ न आ जाता ? अचानक एक निहायत लंबी-चौड़ी इंपाला फाटक पर आकर रुकी और मेहमान के स्वागत के लिए जल्दी से फाटक की तरफ़ भागी। जल्दी में और इंतज़ार की रौ में मुझे यह भी याद न रहा कि फ़िलहाल किसी इम्पाला का इतना नसीब नहीं है कि वह किसी अदीब की होके उसके घर में आ बसे। पहले ज़माने में ख़रीदार की मर्ज़ी पर यह निर्भर होता था कि वह जिस चीज़ को चाहे, उसे ख़रीद सकता था। अब हालात बदल चुके हैं और अब किसी चीज़ का बिकना, महज़ ख़रीदार की मर्ज़ी या सामर्थ्य पर नहीं, बल्कि बिकने वाली चीज़ के पद और रुतबे पर भी निर्भर है। जिस तरह पहले ज़माने में बड़े घरानों की लड़कियां सिर्फ़ मुनासिब घराने देखके ही ब्याही जाती थीं, उसी तरह आजकल बड़े कारखानों की बड़े हसब-नसब (वंश) की गाड़ियां भी मुनासिब वर (दूल्हा) यानी उपयुक्त ख़रीदार देखके ही कारखाने की दहलीज़ छोड़ने पर आमादा होती हैं।

            मेरा ख़याल ग़लत निकला। वह किसी फ़िल्म सितारे की गाड़ी थी और यह भी केवल इत्तिफ़ाक़ था कि दम लेने को उसने मेरे घर के सामने की सड़क को चुना था। और यूं कुछ देर को मेरे घर के सामने भी नंगे-भूखे बच्चों और नौजवान ख़ूबसूरत कपड़े पहने लड़की-लड़कों की एक भीड़ लग चुकी थी। इम्पाला रुख़्सत हो गई और दूर तक गर्द-ओ-ग़ुबार की एक धुंध छोड़ गई। मजमा छंट गया और मैं अदीबों के इंतज़ार में अपने छोटे से सहन में टहलने लगी।

ख़ुशगवार मौसम और चाय, यह साहिर को बर्दाश्त नहीं

साहिर लुधियानवी आये, तो साढ़े सात बज चुके थे। उन्होंने ऐसे ख़ुशगवार मौसम में लोगों को चाय पीते देखा, तो एक अफ़सोसनाक नज़र सब पर डाली। जब मैंने उनको चाय पेश की, तो उन्होंने बड़ी शाइस्तगी से जवाब दिया कि

            ‘‘चाय वह इस वक़्त नहीं पीते हैं।’’

            जब कुछ खाने का इसरार किया, तो उन्होंने कहा कि ‘‘वह इस वक़्त कुछ खाते भी नहीं हैं।’’

            यह कहकर वह कृश्नजी के लिखने के कमरे में जा बैठे। थोड़ी देर बाद जब मैं इस्मत चुग़ताई और कुर्रतुल-एन-हैदर के खै़र-मक़दम के लिये बाहर गयी और वहां से वापस आयी, तो मुझे यह देखकर बड़ी हैरत हुई कि बैठने के कमरे में सिर्फ़ चंद महिलाएं ही रह गयी हैं। बाकी लोग आहिस्ता-आहिस्ता कृश्नजी के कमरे में जा रहे थे। मैंने बड़ी कठिनाई से कमरे में झांककर देखा, तो क्या देखा कि चाय के प्याले बड़ी बे-रहमी से मेज़ से हटाकर, नीचे धर दिये गये हैं और उनकी जगह ‘गिलासों’ ने ले ली है और कमरे में निहायत मज़ेदार क़िस्म की गप चल रही है। थोड़ी देर पहले जो गंभीरता का माहौल छाया था, वह धीरे-धीरे घट रहा था। और गिलास के साथ लोग भी एक-दूसरे के गले मिल-मिलके बड़ी मुहब्बत और ख़ुलूस ज़ाहिर कर रहे थे। कुछ ऐसे लोग भी वहां जमा थे, जो आम तौर से एक-दूसरे की संगत पसंद नहीं करते हैं और साहित्यिक और काव्य-संबंधी नोंक-झोंक के अलावा एक-दूसरे से निजी तौर पर भी अधिक स्नेह नहीं रखते हैं, लेकिन आज की महफ़िल में वे लोग एक-दूसरे से इस क़दर स्नेह दिखा रहे थे कि लगता था, उनकी आपस में गहरी छनती है !

 ‘कुछ नहीं, ज़रा झाड़ू दी जा रही है !’

इस्मत चुग़ताई कमरे में दाख़िल हुईं और एक बड़ी उचटती-सी नज़र इधर-उधर डालके दीवान पर कुछ बैठने और कुछ लेटने के अंदाज़ में बैठ रहीं। इस्मत आपा का किसी महफ़िल में ख़ुद से पहुंच जाना नामुमकिन है। उन्हें बुलाईए, तो बार-बार उनको याद दिलाते रहिये। उनको घर से लाने और घर तक पहुंचाने का बंदोबस्त कीजिये। उनकी इस अदा पर बहुत हैरत होती है। जो औरत अपने अफ़सानों में और अपने ख़यालात में इस क़दर उदारमना हो, वह आने-जाने और घूमने-फिरने के सिलसिले में इस क़दर पुरातनपंथी हो, अजीब बात है। आज जाने किस तरह वह अपने घर से हमारे घर तक अकेली आ गयी थीं।

मैंने पूछा, ‘‘इस्मत आपा ! बड़ी देर कर दी आपने !’’

बोलीं, ‘‘अरे भई ! क्या करते, हम तो पांच बजे से, घर से चले हुये हैं !’’

मैंने कहा, ‘‘अरे, इतनी देर तक कहां रहीं ?’’

बड़ी लापरवाही से बोलीं, ‘‘टैक्सी में !’’

मैंने फिर पूछा, ‘‘क्या रास्ता भूल गयी थीं ?’’

बोलीं, ‘‘पता नहीं !’’

यह क्या जवाब हुआ। मैंने फिर पूछा, ‘‘रास्ता याद नहीं रहा होगा, आपको !’’

कहने लगीं, ‘‘जाने क्या हुआ, बांद्रा तक तो टैक्सी ठीक से पहुंची। उसके बाद कुछ गड़बड़ा गये !’’

‘‘वह कैसे ?’’ मैं भी उन्हें चिढ़ाने पर आमादा थी।

झुंझला के बोलीं, ‘‘अरे वाह, जान के पीछे ही पड़ गयी है। कह तो दिया….टैक्सीवाला रास्ता भूल गया था !’’

‘‘फिर क्या हुआ ?’’

‘‘होता क्या…..कमबख़्त सारे रास्ते बुरा-भला कहता रहा। इतनी देर तक टैक्सीवाले मनहूस की डांट सहती आयी हूं….!’’

‘‘वाह, तो आपने उसे डांटा क्यों नहीं ?’’ मैंने कहा।

‘‘वाह !’’ बेहद बिफरकर बोलीं, ‘‘हम क्यों डांटते उसे ? ठीक तो कह रहा था वह। आख़िर ठीक रास्ता तो उसको बताना ही चाहिए था….!’’

‘‘फिर बताया क्यों नहीं ?’’

‘‘हमें रास्ता याद ही कब था !’’

            इस तरह की बातचीत करना इस्मत चुग़ताई का ख़ास स्टाइल है। बेहद चुभती हुई बात कहके, इस क़दर मासूम नज़र आना और कभी मामूली-सी बात कहते समय दार्शनिकों जैसी मुद्रा धारण कर लेना। मैंने एक दिन पहले सुबह को उनको बुलाने के लिए जो टेलीफ़ोन किया था, वह कुछ इस तरह था-

‘‘इस्मत आपा हैं !’’

रिसीवर उठाने की आवाज़ आयी मगर जवाब में कुछ देर हुई। मैंने फिर कहा,

‘‘हलो…इस्मत आपा हैं !’’

‘‘अरे बोलो तो !’’ आवाज़ आयी।

मैंने कहा, ‘‘मैं सलमा हूं।’’

बोलीं, ‘‘कौन सलमा ?’’

मैंने कुछ अता—पता बताया, तो बोलीं ‘‘अच्छा….अच्छा…..कहो कृश्न…..?’’

‘‘ठीक हैं……आप कहिये क्या हो रहा है ?’’ मैंने यों ही बातचीत आगे बढ़ाने के लिए पूछा।

बोलीं, ‘‘क्या हो रहा है ? अभी देखकर बताती हूं।’’

थोड़ी देर बाद आवाज़ आयी, ‘‘कुछ नहीं, ज़रा झाडू दी जा रही है !’’

मैंने इस वक़्त उस टेलीफ़ोन की याद दिलाई और झाड़ू वाले ‘फ़िक़रे’ की बहुत दाद दी, तो तुनककर बोलीं,

‘‘सचमुच झाडू तो दी ही जा रही थी……फिर और क्या बताती ? तुम्हारा सवाल ही औंधा था…?’’

फिर कृश्नजी के कमरे की तरफ़ झांककर बोलीं, ‘‘क्या हो रहा है ?’’

मैंने कहा, ‘‘ख़ुद ही देख लीजिए !’’

बोली, ‘‘ऐ हें, अभी तो सब बड़े शरीफ़ नज़र आ रहे हैं…..मालूम होता है, अभी शुरू की है !’’

मैंने कहा, ‘‘हां, थोड़ी देर ही हुई है।’’

बोलीं, ‘‘अभी तक किसी का दंगा-फ़साद नहीं हुआ ?’’

‘‘नहीं तो…!’’

‘‘फिर तो ड्रिंक में कोई गड़बड़ होगी !’’

‘‘क्यों ?’’ मैंने पूछा।

‘‘अरे भई ! यह कैसे मुमकिन है कि ऐसे-ऐसे मूंजी जमा हों, पी रहे हों और कोई झगड़ा नहीं हो रहा है !’’

मैंने कहा, ‘‘अभी तो ‘इब्तिदा-ए-इश्क़’ है, आगे-आगे देखिए होता है क्या ?’’

बोलीं, ‘‘होगा क्या ?……वही होगा, जो हमेशा होता है…!’’

मैंने कहा, ‘‘यानी ?’’

बोलीं, ‘‘पहले सब एक-दूसरे से झगड़ेंगे, गाली-गलौज होगी…..फिर गले मिलकर रोयेंगे सब…..!’’

बम्बई की साहित्यिक गोष्ठियों के रसिया

            कृश्नजी के कमरे में मजमा इतना बढ़ चला था कि कमरा उससे छोटा नज़र आने लगा था, जितना कि वह है। अब लोग अपने-अपने गिलास के साथ बड़े कमरे में आने लगे थे, बल्कि टहलने लगे थे। भारतीजी के हाथ में गिलास नहीं, चाय की प्याली थी और वह कमरे में नहीं, बरामदे में सरसराते हुए नारियल के पत्तों की छांव में टहल रहे थे। लोग उनके पास आते-जाते रहते, वह दूसरों की ख़ातिर एक मुस्कराहट भी अपने चेहरे पर पैदा करते, लेकिन उनके मूड से साफ़ पता चलता था कि इस वक़्त की उनकी मुस्कराहट, ज़बरदस्ती की मुस्कराहट है! भारती यों देखने में बड़े ख़ामोश और मासूम जान पड़ते हैं, मगर उनका सही पता लगाना हो, तो उनकी आंखों में देखना चाहिए। बड़ी ज़हीन और गहरी आंखें हैं उनकी। वह बम्बई की साहित्यिक गोष्ठियों के रसिया हैं। कभी-कभी उन्हें साहित्यकारों की आपस की नोंक-झोंक में मज़ा भी आता है। एक ही गोष्ठी में बैठ के धीमे-धीमे मुस्करायेंगे, और पान खाते रहेंगे, बल्कि ज़रूरत हुई तो सुलझाने के पर्दे में थोड़ा-सा और उलझा देंगे……लेकिन भारतीजी यह कहां जानेंगे….दूसरे की बात न मानना उनका धर्म है। इसलिए तो कोई दूसरा उनकी बात जल्दी से मान ले, तो फ़ौरन उदास हो जाते हैं।

            एक दफ़ा मुझसे कहने लगे, ‘‘भाभी, आपके ड्राइंग रूम का रंग अगर गुलाबी हो जाये, तो कितना अच्छा लगे।’’

            मैंने कमरे का रंग गुलाबी करवा दिया और उनको इत्तिला भी दे दी, मगर फिर वह चार-छह महीने हमारे घर नहीं आये। जब आये, तो दीवारों का रंग फिर से हरा हो चुका था।

और फिर वतन की कच्ची धरती की सोंधी-सोंधी महक

            भारतीजी अपने असली रंग में उस वक़्त होते हैं, जब उनके फ्लैट की खुली छत पर बे—तकल्लुफ़ दोस्तों की महफ़िल हो, पान और शर्बत का दौर चल रहा हो, सहन में मोटे-मोटे गद्दों पर उजली चांदनी बिछी हो, और कुशन और गाव तकिये के सहारे बैठे और लेट के मज़े की बातें हो रही हों। उस वक़्त ऐसा महसूस होता है जैसे हम बम्बई जैसे बड़े औद्योगिक और शोर-शराबे वाले किसी बड़े नगर में नहीं, बल्कि अपने उत्तर प्रदेश के किसी क़स्बाई मकान की छत पर हैं और गरमी की शाम है, सहन में कोरी सुराहियां और ठलियां धरी हुई हों, क़रीब की किसी क्यारी में बेले-चमेली की कलियां महक रही हों, अंदर कमरे में अगर की बत्तियां सुलग रही हों, हाथों मेंं लखनऊ के खस की पंखियां थिरक रही हों। भारतीजी अपने माहौल में कुछ इतने जंचते हैं कि उस माहौल का हिस्सा नज़र आने लगते हैं। ऐसे वक़्त में भारतीजी यदि मूड में आ जायें, तो उनकी बातचीत से अपने वतन की, कच्ची धरती की, सोंधी महक आने लगती है। मैं तो बम्बई में बहुत दिनों तक अजनबी ही रहती, यदि भारतीजी के घर का सुकून भरा माहौल कभी-कभी न हासिल हो जाता। भारती और पुष्पा से मिलकर, इस शहर का अजनबीपन कुछ देर को मिट जाता है और ‘होम सिकनेस’ ख़त्म होने लगती है। कृश्नजी कितने जलते हैं, जब हम लोग आपस में अपनी तरफ़ (उत्तरप्रदेश) की बातें करते हैं।

            ‘‘हाय, अपने यहां के पान !’’ और ‘‘हाय, अपने यहां के आम !’’ और ‘‘हाय, अपने यहां के त्यौहार !’’ और ‘‘हाय, अपना रीति-रिवाज, अपनी मिठाइयां, अपनी ककड़ी, खरबूजे और खट्टियां !’’

            कृश्नजी कभी-कभी जलके कहते हैं, ‘‘अरे, आप यूपी वाले ! आप लोगों को बस, ख़ुदा ने ज़बान दे दी है, जिस बात को चाहे जो रंग दे दें ! !’’

            जो बात दूसरे करें, यह भारती कैसे करें। दूसरे टेरीलिन की पतलून पहनते हैं, भारती हैंडलूम की। दूसरे हैंडलूम पहनने लगते हैं, तो भारती सिक्किम से कोई नया कपड़ा तलाश कर लाते हैं। दूसरे अमरीका जाते हैं, भारती इंडोनेशिया। दूसरों को बीसवीं सदी पसंद है, उन्हें मोहनजो-दड़ो का ज़माना। अपने मिज़ाज और तबीयत में कृश्न चंदर की उलट हैं। भारती ठेठ भारती हैं और कृश्न ठेठ पश्चिमी। मैंने बहुत चाहा दोनों को लड़वा दूं, मगर दोनों कभी खुलकर नहीं लड़ते। हर गोष्ठी में एक-दूसरे के निकट बैठे-बैठे हाई क्वालिटी सिगरेट की तरह धीरे-धीरे सुलगते रहते हैं। और पान खाते रहते हैं!

(किताब: ‘कुछ उनकी यादें, कुछ उनसे बातें’, उर्दू से हिंदी लिप्यंतरण और संपादन: ज़ाहिद ख़ान, प्रकाशक: एशिया पब्लिशर्स दिल्ली-110085, मूल्य: 300 रुपये… यह पुस्तक आब-ओ-हवा के लिए विशेष रूप से अंश प्राप्त।)

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