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'असद' को तुम नहीं पहचानते त'अज्जुब है..

             उर्दू अदब और फ़िल्मी दुनिया में असद भोपाली एक ऐसे बदक़िस्मत शायर-नग़मा निगार हैं, जिन्हें अपने काम के मुताबिक़ वह शोहरत, मान-सम्मान और मुक़ाम हासिल नहीं हुआ, जिसके कि वे हक़ीक़तन हक़दार थे। साल 1949 से लेकर साल 1990 तक यानी अपने चार दशक के लंबे फ़िल्मी करियर में उन्होंने तक़रीबन चार सौ फ़िल्मों में दो हज़ार से ज़्यादा गीत लिखे। अनेक गीतों ने लोकप्रियता के नये सोपान छुए और आज भी जब रेडियो और टेलीविज़न पर उनके गाने बजते हैं, तो दिल झूमने लगता है। असद भोपाली और उनके गीत याद आने लगते हैं।

‘असद’ को तुम नहीं पहचानते त’अज्जुब है
उसे तो शहर का हर शख़्स जानता होगा

असद भोपाली को पढ़ने-लिखने और शायरी का शौक़ अपनी नौजवानी के दिनों से ही था। ख़ास तौर से वे ग़ालिब के कलाम के बड़े क़द्र-दाँ और मद्दाह थे। शायरों के कलाम पढ़ते-पढ़ते, वे भी शायरी करने लगे। शायरी का जुनून कुछ ऐसा उनके सिर चढ़कर बोला कि उन्होंने मुशायरों में अपनी शिरक़त बढ़ा दी। आहिस्ता-आहिस्ता उनकी एक पहचान बन गयी और मुशायरों में उन्हें अदब से बुलाया जाने लगा। मिसाल के तौर पर उनके कुछ अश्आर :

न बज़्म अपनी न अपना साक़ी न शीशा अपना न जाम अपना
अगर यही है निज़ाम-ए-हस्ती तो ज़िंदगी को सलाम अपना
ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या
हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते

असद भोपाली शे’र-ओ-सुख़न की महफ़िलों में रमे-जमे थे ही, मगर दिल में एक हसरत-एक तमन्ना थी कि फ़िल्मों में मौक़ा मिले, तो वे उसके लिए गाने भी लिखें। उनकी यह आरज़ू जल्द ही पूरी हो गयी। ‘दुनिया’ असद भोपाली की पहली फ़िल्म थी। फ़िल्म के संगीतकार सी. रामचन्द्र थे। इस फ़िल्म में लिखा उनका नग़मा ‘अरमान लुटे दिल टूट गया…’ ख़ूब मक़बूल हुआ। लेकिन फ़िल्मी दुनिया में उन्हें पहचान और शोहरत निर्देशक बीआर चोपड़ा की फ़िल्म ‘अफ़साना’ के गीतों से मिली। इस फ़िल्म के सारे गाने ही मक़बूल हुए। इस बीच उन्हें फ़िल्म ‘पारसमणी’ के गीत लिखने की पेशकश हुई। साल 1963 में जब यह फ़िल्म रिलीज हुई, तो न सिर्फ़ इसका गीत-संगीत लोकप्रिय हुआ, बल्कि गानों के ही बदौलत फ़िल्म भी सुपर-डुपर हिट हुई। फ़िल्म के सभी गाने एक से बढ़कर एक हैं और आज भी लोगों की ज़बान और यादों में ज़िंदा हैं। ख़ास तौर से ‘हँसता हुआ नूरानी चेहरा…’ और ‘वो जब याद आये, बहुत याद आये…’। ‘पारसमणि’ के बाद साल 1965 में आई फ़िल्म ‘हम सब उस्ताद हैं’ में भी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल और असद भोपाली की जोड़ी ने कामयाबी का वही इतिहास दोहराया। इस फ़िल्म के भी सभी गाने पसंद किये गये। ‘अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो’, ‘प्यार बांटते चलो..’ जैसे गीतों ने गीतकार असद भोपाली के नाम को मुल्क में घर-घर तक पहुंचा दिया। सदाबहार गाने देने के बाद भी असद भोपाली के करियर में उतार-चढ़ाव आते रहे। अपने और अपने परिवार की गुज़र-बसर के लिए, उन्हें जो काम मिला उसे पूरा किया। बस इस बात का ख़याल रखा कि कभी अपने गीतों का मेयार नहीं गिरने दिया।

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‘रोशनी, धूप, चांदनी’ असद भोपाली की अदबी किताब है, जिसमें उनका कलाम यानी ग़ज़लें हैं। मुहब्बत, जुदाई के एहसास में डूबी उनकी कुछ मक़बूल ग़ज़लें हैं। कुछ शेर:

ज़िंदगी का हर नफ़स मम्नून है तदबीर का
वाइज़ो धोका न दो इंसान को तक़दीर का
कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते
हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते
जब ज़रा रात हुई और मह ओ अंजुम आये
बार-हा दिल ने ये महसूस किया तुम आये

कुछ फ़िल्मी दुनिया की मसरूफ़ियत, कुछ मिज़ाज का फक्कड़पन जिसकी वजह से असद भोपाली अपने अदब को किताबों के तौर पर दुनिया के सामने नहीं ला पाये। उनकी लिखी सैकड़ों नज़्में और ग़ज़लें जिस डायरी में थी, वो डायरी भी बरसात की नज़र हो गयी। इस वाक़ये का ज़िक्र उनके बेटे ग़ालिब असद भोपाली जो ख़ुद फ़िल्मी दुनिया से जुड़े हुए हैं, ने अपने एक इंटरव्यू में इस तरह से किया है, ‘‘उन दिनों हम मुंबई में नालासोपारा के जिस घर में रहा करते थे, वह पहाड़ी के तल पर था। मामूली बारिश में भी बाढ़ के हालात हो जाते थे। ऐसी ही एक बाढ़, उनकी सारी ‘ग़ालिबी’ यानी ग़ज़ल, नज़्म आदि बहा ले गयी। उनकी प्रतिक्रिया, मुझे आज भी याद है। उन्होने कहा था, ‘‘जो मैं बेच सकता था मैं बेच चुका था, और जो बिक ही नहीं पायी वो वैसे भी किसी काम की नहीं थी।’’ एक शायर का अपने अदब और दुनिया के उसके जानिब रवैये को उन्होंने सिर्फ़ एक लाइन में ही बयां कर दिया था।

जाहिद ख़ान

जाहिद ख़ान

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से लेखन की शुरुआत। देश के अहम अख़बार और समाचार एवं साहित्य की तमाम मशहूर मैगज़ीनों में समसामयिक विषयों, हिंदी-उर्दू साहित्य, कला, सिनेमा एवं संगीत की बेमिसाल शख़्सियतों पर हज़ार से ज़्यादा लेख, रिपोर्ट, निबंध,आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित। यह सिलसिला मुसलसल जारी है। अभी तलक अलग-अलग मौज़ूअ पर पन्द्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ‘मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मिला है। यही नहीं इस किताब का मराठी और उर्दू ज़बान में अनुवाद भी हुआ है।

3 comments on “‘असद’ को तुम नहीं पहचानते त’अज्जुब है..

  1. अपरिचय से परिचित कराती बहुत बढ़िया प्रस्तुति

  2. बहुत शानदार आलेख,इतने कमाल के गीतों को लिखने वाले व्यक्ति को ना जानना हमारी कमनसीबी है। बहुत शुक्रिया परिचय करवाने का..

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