आंसू, tear

मोनोलॉग:- और ख़ुदा रो पड़ा..!

             बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही है। अपने कमरे में बैठा, मैं उसी बच्चे के बारे में सोच रहा हूं। वही मासूम, जो नफ़रत का मतलब भी नहीं जानता, आज आईसीयू में ज़िंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है। 24 जून 2025, मॉस्को एयरपोर्ट की वह हृदयविदारक घटना, जिसने मानवता को झकझोर कर रख दिया। एक मानसिक रूप से असंतुलित इज़राइली युवक ने एक अठारह महीने के ईरानी बच्चे को ज़मीन पर पटक दिया। यह सिर्फ़ एक अपराध नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक मानवता पर एक काला धब्बा है। यह एक बच्चे की त्रासदी नहीं, हम सबकी हार है। इस घटना ने विश्व भर में सदमे और आक्रोश की लहर दौड़ा दी।

इधर, मेरा दुखी और व्याकुल मन, किसी परछाईं की तरह उस आईसीयू में भटकने लगा है। एक दृश्य मेरी आँखों में कौंध रहा है- आईसीयू का ठंडा, धुंधला कमरा, मशीनों की बीप-बीप करती धड़कन और वह अठारह महीने का एक बच्चा, अचेत, आँखें बंद, पर आत्मा जागी हुई। शायद उसके अवचेतन में कोई संवाद चल रहा है अपने ईश्वर से, या शायद हम सबसे।

“मैंने माँ की कोख में ही सुन ली थीं कुरान की आयतें। और यह भी कि ख़ुदा निगहबान है। वह सब देखता है भूत, भविष्य, वर्तमान। जो कुछ इन दिनों गुज़र रहा है, जाने क्या है उसका इतिहास, भूगोल, धर्म, दर्शन, राजनीति, या वह तमाम बड़ी-बड़ी बातें? उनका मुझसे क्या लेना-देना? सिर्फ़ अठारह महीने का ही तो छोटा-सा इतिहास था मेरा! मेरी माँ की गोद ही मेरा भूगोल थी। उससे ज़्यादा की कोई चाह नहीं थी मेरी। उसका राज-दुलारा बना रहूँ, बस इतनी-सी राजनीति थी मेरी। मैं अपनी माँ का संसार था, और मेरी माँ ही मेरा ख़ुदा। बस इतना-सा ही तो दर्शन था मेरा। उसकी गोद मेरी इबादत थी, उसका प्यार मेरा मज़हब। तू इसी बात पर खफ़ा था ना? बस दो पल के लिए मेरा ख़ुदा मुझसे दूर क्या हुआ और मेरी दुनिया उजड़ गयी। सुना है हर कोई अपने कर्मों का फल भोगता है। बता, मेरा जुर्म क्या था? अपने कौन-से कर्मों का फल भुगत रहा हूँ मैं? मैंने तो अभी जाना भी नहीं था नफ़रत और हिंसा का मतलब… आज जाना कि तूने कुछ ऐसे इंसान भी बनाये हैं, जिन्हें तितलियों को दबोचने, फूलों को रौंदने और खिलौनों को पटककर तोड़ने में मज़ा आता है। जो हम मासूमों पर गुज़र रही है, वह क़यामत नहीं तो क्या है? पता नहीं तू और किस क़यामत के इंतज़ार में था? जब तबाह हो ही रही है दुनिया, तो क्यों पैदा करता है तू हम मासूमों को? सुना है क़यामत का दिन तय है, उस दिन तू सबका हिसाब देखेगा। पर उससे पहले तुझे हम बच्चों के सवालों से गुज़रना होगा। उस दिन क़यामत क्यों नहीं लायी तूने, जब धरती बँट गयी थी फ़िरकों में? जब सारे धर्मों के रास्ते तुझ तक ही जाते हैं, तो उन रास्तों में फूलों की जगह अंगारे क्यों हैं? बता, उस दिन क़यामत क्यों नहीं आयी, जब एक काल्पनिक जन्नत की तलाश में तेरे बंदे इस धरती को दोज़ख़ बना रहे थे? अगर ऐसी ही जन्नत मिलती है, तो जहन्नुम में जाये ऐसी जन्नत! तूने इतने संगदिल इंसान क्यों बनाये, जिन्हें हम बच्चे सिर्फ़ खिलौने नज़र आते हैं? जब तुझे बुत जैसे पत्थरदिल इंसान ही गढ़ने थे, तो फिर बता, तुझे क्या हक है कि बुतपरस्त को तू काफ़िर कहे? जब तक तू हमारे इन सवालों का जवाब न दे, तुझे क्या हक है कि तू क़यामत के दिन किसी से हिसाब माँगे? छोड़ अपनी सल्तनत। तेरे बस की नहीं यह ख़ुदाई। औरतों को दे दे अपनी सल्तनत, वो तुझसे बेहतर खुदा होती हैं। काश मेरी माँ ने आयतों की जगह उमर ख़य्याम की रुबाइयाँ पढ़ी होतीं, तो शायद हालात यूँ नासाज़ न होते। तब आसमान से शोले नहीं, मोहब्बत की शराब बरस रही होती। धरती पर बारूदों की जगह फूल खिले होते।”

अचानक आईसीयू में गहरी ख़ामोशी छा गयी। सिर्फ़ मशीनों की बीप की आवाज़ बची। बाहर तेज़ गरज के साथ बारिश हो रही है। शायद ख़ुदा ज़ार-ज़ार रो रहा है..!

यह सिर्फ़ एक बच्चे की कहानी नहीं, बल्कि उस दुनिया की सच्चाई है, जहाँ नफ़रत और हिंसा ने मासूमियत को कुचल दिया। क्या हम सचमुच इतने असंवेदनशील हो गये हैं कि एक करुण पुकार भी हमें नहीं जगाती?

पंकज निनाद, pankaj ninad

पंकज निनाद

पेशे से लेखक और अभिनेता पंकज निनाद मूलतः नाटककार हैं। आपके लिखे अनेक नाटक सफलतापूर्वक देश भर में मंचित हो चुके हैं। दो नाटक 'ज़हर' और 'तितली' एम.ए. हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में भी शुमार हैं। स्टूडेंट बुलेटिन पाक्षिक अख़बार का संपादन कर पंकज निनाद ने लेखन/पत्रकारिता की शुरूआत छात्र जीवन से ही की थी।

3 comments on “मोनोलॉग: और ख़ुदा रो पड़ा..!

  1. उफ ..
    बच्चे के सवाल ही हम सबके सवाल है ।खुदा है या नही ?

  2. हृदयबेधक ।

    इन तमाम तमाम सत्ताधारियों के कारण ही ये मंजर देखना पड़ते हैं।

  3. मर्मस्पर्शी मोनोलॉग, हर संवेदनशील इंसान को झकझोर कर रख देगा।ये प्रश्न एक सच्चे इन्सान की आत्मा पर हथोड़े सी चोट करने वाले हैं।पूरा मोनोलॉग पढ़ने के बाद मन आई सी यू में पड़े उसी बच्चे की तरह बेचैन हो जाता है कि आखिर यह दुनिया नफरत की आग में कब तक झुलसती रहेगी।

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