
- May 30, 2025
- आब-ओ-हवा
- 9
और ज़ुबान जीत जाती है
चमत्कारों पर भरोसा न करने वाले सलमान रश्दी ने माना कि जानलेवा हमले से उनका ज़िंदा बच जाना किसी चमत्कार से कम नहीं रहा। जादुई यथार्थवाद के प्रतिनिधि लेखक कहे जाने वाले रश्दी ने लिखा: “शायद मेरी किताबें दशकों से एक पुल बना रही थीं और कोई चमत्कार ही उसे पार कर सकता था। जादू ही यथार्थ बन गया। शायद मेरी किताबों ने ही मेरी जान बचायी।”
किताब, दरअसल लेखक की ज़ुबान है। लेखक वही है, जो अपनी ज़ुबान पर पाबंदी के ख़िलाफ़ है। कितने ही कवियों ने क़लम के आज़ादी से चलने और बोलने की हिमायत की। फ़ैज़ की पुकार थी, ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’। कवि स्वभाव है ही कि वह बोलने से डरे नहीं। बोलने का अर्थ अभिव्यक्ति, प्रतिरोध और समाज को आईना दिखाने के संदर्भ में सार्थक है। इस सार्थक्य के सारथी हैं ज़ुबान को बरतने के कई जादू जैसे अलंकार, ध्वनियां, तर्ज़े-बयान और वक्रोक्तियां वग़ैरह।
विचार, शायरी या साहित्य जब तेवर के साथ बोलता है तो दुनिया को डर लगता है। लगता रहा है, शायद लगता रहेगा भी। दुनिया, यानी वो लोग जो मनमानी से एक बड़े वर्ग को दरअसल शोषित करना चाहते हैं और बस एक समूह विशेष को लाभान्वित। ऐसी ही दुनिया बोलने या ज़ुबानों के आवाज़ बनने से घबराती है। ख़ुद डरती है इसलिए ज़ुबान वालों को समय-समय पर डराती है।
मप्र उर्दू अकादमी की नुसरत मेहदी ने 26 नवंबर 2024 को एक पोस्ट लिखी। जिन्हें मुशायरों में दावत नहीं दी जा रही, उन शायरों को निराशा से बचने की सलाह के तौर पर लिखा — “तन्ज़िया बात या शायरी नहीं करें, आपके ज़रिये हवा में छोड़े हुए तीर कभी-कभी आपकी सलाहियतों को पहचानने वाले और आपको मौक़ा देने वालों को ही ज़ख़्मी कर देते हैं। ऐसी बातें या शायरी कोई अच्छा संदेश नहीं देती।”
किसी संदर्भ विशेष में यह सलाह ठीक हो भी, लेकिन इस हिदायत को अगर शायरी या बोलने के संदर्भ में देखा जाये तो? तन्ज़िया शायरी की पूरी एक रिवायत रही है। मीर से लेकर हम तक। और अब तो वो शायर भी इस लहजे की शरण में दिख रहे हैं, जो रेख़्ता की बासी चाशनी में ही बरसों गुलगुले तलते रहे। ‘तन्ज़िया शायरी न करें’… यह रूढ़िवादी हिदायत उसी दुनिया की घबराहट सुनायी देगी, जिसे आवाज़ से ख़तरा महसूस होता है।
बोलने से तो बात बिगड़ेगी
चुप रहा मैं तो ज़ात बिगड़ेगी
बात बिगड़ने का ख़तरा तो होता है, लेकिन ‘बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करेंगे’ तो प्रेमचंद जैसे पुरखे नाराज़ हो जाएंगे। अब दो-चार नुसरत मेहदियों को नाराज़ किया जाये या अपने किसी विराट् पुरखे को? यह फ़ैसला आपको करना होता है। मेरा ख़याल है आप मौक़ापरस्त नहीं हैं तो आप बोलना चुनेंगे, और मुझे यह भी यक़ीन रहता है कि आपकी आवाज़ ही आपको कभी न कभी जीत दिलाएगी।
जैसे बानू मुश्ताक़ जीत गयीं। मज़हब से, निज़ाम से हक़ छीनने के लिए लड़ीं। इस लड़ाई में कभी हताश भी हुईं। कहानियां भी लिखीं तो अपने किरदारों को अपनी आवाज़ बनाया। शोषण नहीं सहा। परंपराओं और पाबंदियों के पिंजरे तोड़े। और फिर उनकी बात एक मुक़ाम तक पहुंची। उन्हें बुकर पुरस्कार से नवाज़ा गया।
बानू की बुकर विजेता किताब ‘हार्ट लैम्प’ की बात चलती है तो यह भी ज़ेह्न में आता है कि जीत किस भाषा की है? बुकर हो या कॉमनवेल्थ फ़ाउंडेशन, ऐसे वैश्विक मंचों पर हिंदोस्तानी लेखकों का डंका तो बजता रहा है, लेकिन हिन्दी और अन्य कई भारतीय भाषाओं की स्वीकृति अब भी नहीं है। जैसे जीतने के लिए ‘रेत समाधि’ को ‘टूम्ब आफ़ सैण्ड’ होना पड़ा, वैसे ही ‘हृदय दीप’ भी अंग्रेज़ी में ही जीत सका। इस नज़र से भाषा की लड़ाई यहां चिंता का सबब ज़रूर हो, लेकिन आवाज़ के लिहाज़ से बानू की जीत बड़ी घटना है। जैसा रश्दी ने कहा कि उनकी किताब ने उन्हें बचाया, वैसे ही बानू के शब्द अंधेरे में लैम्प की तरह हैं… “मैंने अपने जीवन में तमाम रूढ़ियां तोड़ीं और अब मेरी किताब ने भी यही किया।” तो दोस्तो, बोलो कि हम बोलेंगे।
आपका
भवेश दिलशाद

भवेश दिलशाद
क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।
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सार्थक आलेख ..
शुक्रिया मधु जी
बोलने से तो बात बिगड़ेगी
चुप रहा मैं तो ज़ात बिगड़ेगी।
बेबाक सम्पादकीय के लिए बहुत बहुत बधाई।यह तय करना वाकई मुश्किल है कि जीत भाषा की हुई है या आवाज़ की बहरहाल बानू जी की उपलब्धि आश्वस्त करती है कि आवाज़ सुनी जा रही है, आवाज़ पहुंच रही है।
शुक्रिया अशोक जी, आपने चिंता का ठीक सिरा पकड़ा है, राष्ट्रवाद के शोर में भाषा को अग्रणी बनाने का बीड़ा अब तक उठाया जाता दिख नहीं रहा है। शायद मैं ही नहीं, बहुत से लोग यह महसूस कर पा रहे हैं…
शानदार
शुक्रिया ग़ज़ाला जी
शानदार
शुक्रिया दीक्षा जी
अच्छा आलेख है। एक नुसरत का क्या कहें, आजकल तो नुसरत बनने की होड़ सी लगी हुई है। आजकल गई इन नुसरतों की पूछ-परख राजधानी के साहित्यिक हल्के में बढ़ी हुई है। मुलाकातियों की बाढ़ सी आई है। हर कोई आने वाले समय में किसी न किसी पुरस्कार को हथियाने की जुगत में है। पुरस्कार भी अपने अवमूल्यन पर धार-धार रो रहा है। आप तो बोलते रहिए कि बोलना जरूरी है।