
- July 18, 2025
- आब-ओ-हवा
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बरसात पर 11 समकालीन हिंदी कविताएं
प्रस्तुति – ब्रज श्रीवास्तव, विदिशा
1
रस्सियाँ
रस्सियों को अफ़सोस है
वे इस सावन में
पेड़ों तक नहीं पहुँच पायीं
नहीं पहुँच पायीं हवाओं तक
नहीं पहुँच पायीं मल्हारों तक
नहीं पहुँच पायीं चिड़ियों के विस्मय तक
क़ैद रहीं
बड़ी-बड़ी इमारतों में ही
छत की कड़ियों पर ही
टँगी रहीं
लोहे के पाइपों पर ही
लटकती रहीं
नहीं देख पायीं इस बार
बारिश में भीगते हुए बाग़
पत्तों से टपकती हुई बूँदें
बादलों का अटूट बादलपन
नहीं भीग पायीं ख़ुद भी
महीन झींसियों में
रस्सियों को अफ़सोस है
वे इस बार
सावन को नहीं कर पायीं कृतार्थ
लड़कियों में नहीं बाँट पायीं खिलखिलाहटें
आसमान को खोलकर नहीं दिखा पायीं
अपनी एक-एक पींग।
—सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी, लखनऊ
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2
यह मद्धम मद्धम सी साँझ
यह उगी हुई सी रात
भींगा हुआ सिरहाना
कोई तो ले आओ
वह दोपहर की धूप
वह बगिया का ठौर
दबे दबे से निकले
बचपन के वे पाँव
कोई तो ले आओ
वह अनमनी सी नींद
वह बाहर का बौरापन
हुल्लड़ मित्रों की टोली
कोई तो ले आओ
धीमी धीमी बारिश
कीचड़ वाले पाँव
तीता तीता तन मन
कोई तो ले आओ
कहानी वाला चंदा
टिम टिम करती रातें
नानी की वह थपकी
कोई तो ले आओ
गुल्लक से निकले पैसे
पैसों की वह चोरी
थोड़ी सी हवा मिठाई
कोई तो ले आओ
वे बेफिक्र रातें
मीठे मीठे सपने
सपने में चंदा मामा
कोई तो ले आओ
—राकेश पाठक, बनारस
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3
बूंदन-बाजा
श्याम घन से
आकाश सजा है
हवा में लहराती
नभ छूती शाखाएं
पात पात हुलसे
तालियां बजाये
दूर कहीं पर
मांदल बजा है
अपने में सिमटी
धरा लजा रही
दूर्वांचल से वह
मुँह छुपा रही
यह तो, मन से
मन की रज़ा है
आंगन आंगन वह
खूब थिरक रही
पुरवा संग झूम
झूम, बहक रही
बूंदन बाजा भी
घर घर बजा है
—अरुण सातले, खंडवा
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4
मालवा में आषाढ़
आषाढ़ मात्र नमी लिये था
जल से रहित था उसका पात्र
सबकी आँखें प्रतीक्षा की प्रत्यंचा पर चढ़ी
उदास ही रहीं
चाँद बादलों की चिलमन में छुपा
निष्ठुर प्रियतम था
तारिकाएं उतारू थीं
ऐय्यारी पर!
धरती बाम पर इंतज़ार करती
विरहणी थी
बादलों के जवाबी ख़त नदारद थे
सूरज की आंखमिचौली से
दिन ठिठका हुआ हिरण था
नदियाँ झीलें पोखर बावड़ी
भेज रहीं थीं, शिकायती चिट्ठियाँ!
पर छली आषाढ़ तरसाता ही रहा
छा छा के उम्मीदें बंधा बंधा के
अपना निकम्मा कार्यकाल पूरा कर
निकल गया, बिना बरसे ही..
धरा की
सब्ज़ रंग आँखें उम्मीद से
बाट जोह रही हैं
सावन की लड़ियों की!
—आरती तिवारी, मंदसौर
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5
सखि री! आया सावन द्वार
मौसम ने ली है अंगड़ाई
नभ में श्याम बदरिया छाई
बरखा रानी लेकर आयी, बूँदों का गलहार
सखि री! आया सावन द्वार।
चल कर लें शृंगार, सखि री! आया सावन द्वार
छोड़ सखी! अब क्यों है सजना!
पास नहीं जब मेरे सजना
बिन उनके दिल करता रहता, कैसा हाहाकार,
सखि री! आया सावन द्वार।।
चल कर लें शृंगार, सखि री! आया सावन द्वार
मेघा जब छमछम बरसेंगे
सजना भी तब दौड़ पड़ेंगे
अच्छे दिन फिर से आएँगे, क्यों माने तू हार,
सखि री! आया सावन द्वार।।
चल कर लें शृंगार, सखि री! आया सावन द्वार
देख लगे वृक्षों पर झूले।
चल हम भी हर गम को भूलें
थोड़ा तो मेरा दिल रख ले, करती हूँ मनुहार,
सखि री! आया सावन द्वार।।
चल कर लें शृंगार, सखि री! आया सावन द्वार
तू भी विरहन, मैं भी विरहन।
बहुत नहाये नैनन-अँसुवन
हम दोनों भी चल अब जी लें, खुशियों के दिन चार,
सखि री! आया सावन द्वार।।
चल कर लें शृंगार, सखि री! आया सावन द्वार
—गीता चौबे गूँज, रांची
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6
भरी बरसात में बेवजह मुस्कुराती लड़की
इतनी थी बारिश कि घर लौटते हुए
मुश्किल हो रहा था इधर-उधर देखना
तभी अगली गली से निकल कर
एक स्कूटर अचानक
दौड़ने लगा मेरे स्कूटर के साथ-साथ
जिसकी पिछली सीट पर बैठी थी वह लड़की
मूर्ति की तरह भीग रहा था जिसका शरीर
अचानक मुस्कुराने लगी लड़की मुझे देखकर
बारिश की तरह रुकता ही नहीं था उसका मुस्कुराना
अचरज की बात यह कि
बरसाती टोपी और लम्बे कोट में छुपे मुझको
पहचान लिया उसने भरी बरसात में
शायद रहती हो मेरे घर के आस-पास
कॉलेज की पुरानी कोई सहपाठी
पत्नी की सहेली
या टीचर रही हो बेटी की
बौछरों को भेदते हुए
पहुँच रही थी मुझ तक उसकी मुस्कुराहट
घूम गया हो उसका सिर किसी सदमे से
और निकल रहा हो दु:ख मुस्कुराहट बनकर
जब गूँजता है कोई शोक गीत अन्दर
होठों पर यूँ ही आ जाती है हँसी यकायक
कहीं जा तो नहीं रही किसी रिश्तेदार के साथ
इसी हँसी का इलाज करवाने
सोचता हूँ वह बीमार ही रही होगी
जो मुस्कुराती रही लगातार अपने दु:ख में
सुखी आदमी कहाँ मुस्कुराते हैं राह चलते
—ब्रजेश कानूनगो, इंदौर
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7
पहली बूंद नीली थी
वह मुझे बादल सौंपती थी
मैं उसे बारिश
कल आकाश ने मुझसे कहा
वह छिटकाता था प्यार के बीज
मैं हरी हो जाती थी
कल धरती ने मुझसे कहा
मैंने उसे चाँद की किरणें दीं
और सूरज की रोशनी भी
मेरी स्थिरता और उसकी चपलता
हम एक दूजे के लिए ही बने हैं
तारे मेरी आँखें हैं
मैं रोज़ उसे खरबों आंखों से ताकता हूँ
कल आकाश ने मुझसे कहा
उफ़ मैं उसे हर बहाने ताकती हूँ
उसका नीलापन मोह लेता है
उसे देख मेरा सागर नीला हो जाता है और
नदी का उत्स भी उजला
मेरे पहाड़ उसको छूना चाहते हैं और
पेड़ भी कोशिश करते रहते हैं
कल धरती ने मुझसे कहा
मेरा ब्रह्मांड
उसके आँचल के सामने बौना है
उसके भीतर छुपे हैं
असंख्य रत्न, अनेक बीज
रत्न के लिए चीरते हैं उसकी छाती
और बीज खुद ब खुद
फाड़ देता है उसका सीना
उफ़ मैं सह नही पाता
उसका सहना, तपना
और ये सिलसिले
तब मैं रोता हूँ
और हो जाती है बारिश
—सोनू यशराज, जयपुर
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8
बहती रही क़तरा क़तरा
अब के सावन में यूं
टूट कर बरसा पानी
अब के मुलाकात
अधूरी सी लगी
अब के पंछी भी
शाखों पे अनोखे से दिखे
कजरी मल्हार भी
ढोलक पे अचीन्ही सी लगी
एक घटा घुमड़ कर
घिर आयी मुझमें
देर तक फिर चली
तूफानी हवा
सांकलें खुलने लगीं
यादों की आहिस्ता
कुछ अधूरे से गीत
हवाओं में गूंजे
कांच के ख्वाब पर
मुझको जो सँवारा उसने
तेज़ बारिश थी
बहती रही कतरा कतरा
अब के सावन भी करिश्माई लगा
एक कसक बो गया जाते-जाते
—संतोष श्रीवास्तव, भोपाल
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9
तेज़ बारिश,
कार के शीशे चढ़ा लिये मैंने,
ट्रैफिक सिग्नल पर
स्कूटर पर
किसी के पीछे बैठी वो
तरबतर,
कंधे से और सट गयी है
खिलखिलाती
देख रही हूं
खुशी और सुख के बीच
कितना फासला है
—वनिता बाजपेई, विदिशा
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10
बरसात से
अबकी भी बरसात में लौटे है
वही सफ़ेद फुदनेदार
अमरूद के फूल
जो तुम्हें सबसे ज्यादा
पसन्द थे
नदी में लौटी हैं पूरे आवेग से
जलधाराएँ
पुल के ऊपर से
बह रही हैं वे, हरहराती
पहले जैसी
जिसका शोर सुनकर
धड़कने लग जाता था
तुम्हारा दिल
तालाब लबालब भरे हैं पानी में
जिन पर लौट आये हैं
जलमुर्गी, बत्तखें, मछलियां,
बरसाती, सांप, केकड़े,
रात के सन्नाटे को तोड़ते
मेंढक टर्र-टर्र कर रहे हैं
लगातार,
पानी की सतह पर
उछाल कर मारना चाहता हूँ
एक दो तीन चार… उछाल
एक पत्थर, पर तुम्हारी
याद रोकती है ऐसा करने से
लौट आये हैं बया पंछी
पेड़ पर लगे अपने
घोंसलों में
तरकु निकल पड़ा है,
अपने खेत बीज बोने
बैल और हल लिये, उमगता जोश में
अभी अभी गुज़र रहा है मेरे
सामने से
रमवती और उसका पति
लगे हैं सुबह से अपनी
झोपड़ी की छानी पर फैले
कुम्हड़े, लौकी तरोई के
लतरों को अलग अलग करने में
लगातार कई दिन की
बारिश में गलियां, रास्ते
सड़कों के किनारे लगी
झाड़ियां, पेड़, घास सब
धूल पोंछ तरोताज़ा हो
चले हैं
लौट आयी है धरती
अपने हरे रंग में
शहर के अंतिम छोर पर के
पहाड़ पर आकर ठहर गये हैं बादल
जिसे देख
कितना तो खुश होती थीं तुम
अमरूद के फुदनेदार सफ़ेद
फूलों
नदी, तालाब, पोखर के पानी,
तरकु के चेहरे की चमक,
रमवती के छानी पर लगी
लतरों की छीमियों,
पेड़, पौधों,
जंगल सहित धरती की हरियाली
पहाड़ पर जलभरे मेघ में
तुम लौट आती हो हर बार
जाने के बाद भी दूर देश
सुना है, प्रेम लौटता है
किसी ना किसी रूप में
कहीं ना कहीं
इसलिए तुम्हारी यादों के लौटने से
मुझे प्रेम है
इसलिए भी मुझे बरसात से
प्रेम है
—मिथिलेश रॉय, शहडोल
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11
ये तुम्हारा मूड है
या चेरापूंजी की बरसात?
सुबह धूप भेजता हूँ
दोपहर तक भीग जाती है
मैंने देखा है
तुम्हारे चेहरे पर
बादलों की बैठक चलती है,
कभी आँखें गरजती हैं,
तो कभी होंठ
फुहारों में बदल जाते हैं
तुम्हारे मूड का मौसम विभाग
हमेशा छुट्टी पर रहता है
कोई पूर्वानुमान नहीं,
बस बेमौसम हरियाली
या बेमौसम बाढ़
कल तुम मुस्कुराई थीं
तो गमले में पहली बार फूल खिला
आज चुप हो
तो मोबाइल में नेटवर्क तक गुम है
बताओ न
यह तुम्हारा मूड है
या चेरापूंजी की बरसात?
—अंशुमान, दिल्ली

ब्रज श्रीवास्तव
कोई संपादक समकालीन काव्य परिदृश्य में एक युवा स्वर कहता है तो कोई स्थापित कवि। ब्रज कवि होने के साथ ख़ुद एक संपादक भी हैं, 'साहित्य की बात' नामक समूह के संचालक भी और राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक आयोजनों के सूत्रधार भी। उनके आधा दर्जन कविता संग्रह आ चुके हैं और इतने ही संकलनों का संपादन भी वह कर चुके हैं। गायन, चित्र, पोस्टर आदि सृजन भी उनके कला व्यक्तित्व के आयाम हैं।
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