
- June 23, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
डॉ. सतीश 'बब्बा' की इस कहानी में सरल आम जीवन का कथानक है, इसमें उल्लेख के लायक़ नया कुछ नहीं है। फिर भी प्रस्तुत कहानी का आकर्षण उसकी अत्यंत सरलता में है। असंख्य कहानियों के आकाश छूते ढेर में विचित्र कथा वस्तुओं, परिनिष्ठित अकादमिक भाषा-शब्दों के गुंफन से आज़ाद, वनप्रांतर की शुद्ध निर्मल हवा-सी कथा है। - शशि खरे (संपादक-कथा प्रस्तुति)
बेटी बहुत रुलाती है
जन्मदिन था आज मेरी रचना बिटिया का! दामाद जी के साथ आयी थी हमारे घर, अपने मां-बाप के घर जन्मदिन मनाने से रचना को उसके बचपन की बातें याद आ ही जाती हैं।
मुझे रचना के जन्म से लेकर आज तक की सभी बातें याद आने लगी थीं। रचना का जन्म सुबह-सुबह ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। तब लड़की के जन्म में छलनी लेकर नाला काटने वाली के घर जाते थे, उसे बुलाने के लिए! सूपा लेकर लड़का के जन्म में जाते थे। लड़की के जन्म में कोई गाने नहीं गाये जाते थे। लड़के के जन्म में थाली बजाकर सोहर गीत गाये जाते थे, बाजा भी बजता था।
मेरे घर ईश्वर की यह अद्भुत रचना अच्छे मुहूर्त, अच्छे समय में आयी थी, मैं खुश था, मेरी पत्नी को क्या था मैं नहीं जानता, क्योंकि उस समय प्रसूति का के पास कोई पुरुष नहीं जा सकता था, मैं, पति भी नहीं! ईश्वर की इस अनुपम रचना का मैंने नाम रचना रखने का निश्चय कर लिया था।
घर में वैसी खुशी नहीं थी, जैसी होनी चाहिए; मैं महसूस कर रहा था। मैं अपनी पत्नी भारती से मिलने के लिए उतावला था। छठी के दिन उड़ती नज़र से मैंने उसे देखा था, बात नहीं हो पायी थी; मेरी अम्मा जो उसकी रखवाली करती थी।
दस-बारह दिन में मैं उसके पास गया था। खड़े-खड़े बात की थी; अम्मा का डर सता रहा था। मैंने कहा, “भारती, मैं बहुत खुश हूं, मेरे घर लक्ष्मी आयी है; तुम्हारी कोख पवित्र कर दी है!” भारती ने कहा, “आपकी खुशी में मेरी खुशी है! मुझे तो लगता था आप खुश नहीं होंगे!”
मैंने भारती को पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया था। मेरी पत्नी भारती के चेहरे पर चमक आ गयी थी क्योंकि, पति अनुकूल है तो, सारी दुनिया प्रतिकूल हो जाये स्त्री को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।
धीरे-धीरे समय बीतता गया। मैंने इसका नाम रचना रखा है, जब भारती को बताया था, तब भारती बहुत खुश हो गयी थी। रचना को तरह-तरह की घघरिया लाकर पहनाया करता था, वह बिल्कुल गुड़िया-सी लगती थी। जब मेरी, मेरे भारती की रचना धीरे-धीरे आंगन में ठुमक-ठुमक कर चलने लगी थी, तब मैं उसके लिए पायल लेकर आया था; आंगन में जब वह चलती थी छुन-छुन की आवाज़ करते हुए, तब बहुत ही अच्छा लगता था।
तीन साल की रचना तोतली बोली में बात करने लगी थी। तभी उसके भाई का जन्म हुआ था। रचना अपने भाई को बहुत प्यार करती थी। रचना अपने भाई को नहीं छोड़ती थी। बाल स्वभाव से वह भी बराबर हक़ जमाती थी। अब भाई पांच साल का हो गया था, रचना आठ की! भाई को साथ स्कूल लेकर जाती थी। स्कूल में वह अपने भाई का बराबर ख्याल रखती थी। घर में अपने भाई को पढ़ाती थी।
कक्षा आठ तक स्कूल गांव में था। रचना की पढ़ाई कक्षा आठ के बाद बंद कर दी गयी थी। मैं, मेरी पत्नी भारती तब भी रोये थे। गरीबी, अभाव के कारण, स्कूल दूर होने के कारण, बिटिया होने के कारण हम अपनी बिटिया रचना को पढ़ा नहीं सके थे।
बिटिया पराया धन होती है, इन विचारों ने हमें भी प्रभावित किया था। हमारी रचना पढ़ने में बहुत अच्छी थी; फिर भी तेरह साल की उम्र में ही हमने रचना की पढ़ाई बंद करवा दी थी। अब रचना को चूल्हा-चौका में हमने झोंक दिया था। रचना को घर का काम उसकी मां भारती ने सिखाया था। रचना से अच्छा खाना कोई नहीं बना पाता था।
रचना मेरा, भारती का, अपने भाई का पूरा ख्याल रखती थी। रचना सुबह हम सबसे पहले जागती थी, चूल्हा, चौका-बर्तन सब कुछ साफ़ करती थी। पूरे घर में झाड़ू रचना ही लगाती थी। रचना हमें बहुत प्यारी थी। मैंने, भारती ने न चाहते हुए भी, उसे घर के काम में दक्ष कर दिया था। कलेजा मज़बूत करके हम उससे काम लेते थे; ताकि ससुराल में हमारी बेटी रचना को हमारी वजह से ताने नहीं सुनने को मिलें! भारती को रचना काम नहीं करने दिया करती थी।
ऐसे-ऐसे में रचना कब अठारह साल की हो गयी हमें पता ही नहीं चला! मैं रचना के लिए वर तलाश करने लगा था। मैं जब यह सोचता कि रचना चली जाएगी, तब मैं भारती से छुपकर रोया करता था। भारती भी मुझसे छुपकर रोती थी। हमारा बेटा, भारती का भाई शहर में पढ़ने चला गया था। उस समय अच्छा दूल्हा खोजने में बड़ी मशक्कत थी; दहेज प्रथा ज़ोरों पर थी।
आख़िर बेटे की पढ़ाई का ख़र्च भी हमारे पास था। खेती के अलावा कोई आमदनी नहीं थी। हम दोनों ने खेत गिरवी रखकर कुछ पैसे इकट्ठे कर लिये थे। एक गांव में एक किसान का लड़का, जो पढ़ने में अच्छा था, कुछ कम दहेज में मिल गया था। रचना की शादी हमने तय कर दी थी।
हमारा बेटा पढ़ाई में फेल होकर घर में, गांव में आवारा हो सकता था इसलिए उसे हम पढ़ाते रहे थे; ताकि कहीं इसकी भी शादी हो जाये!
नियत समय पर बारात आयी थी। सभी रस्में-रिवाज पूरे किये गये थे। हमने कितना कठोर हृदय करके अपनी बेटी रचना को बिदा किया था, यह कल्पना आज भी हमें रुलाती थी। रचना ने ससुराल में हमारी नाक नीचे नहीं होने दी थी। ससुराल में रचना की सभी प्रशंसा करते थे। ससुराल, ससुराल होती है। ससुराल में सास भूल जाती है कि मैं भी कभी बहू बनकर आयी थी।
फिर भी बहू के रूप में रचना सभी को संतुष्ट करने में सक्षम थी। दामाद तो बहुत अच्छा था। दामाद पढ़ने में अच्छा था, इसलिए उसे एक सरकारी नौकरी मिल गयी थी। हम लोग रचना का जन्मदिन नहीं मनाया करते थे। दामाद ने रचना का जन्मदिन मनाना शुरू कर दिया था। हमारी बेटी रचना को शहर के अनुसार ढलने में ज्यादा समय नहीं लगा था। दामाद ने रचना को थोड़ी-सी, प्राथमिक अंग्रेज़ी भी सिखा दी थी।
जब रचना चिट्ठी लिखकर भेजती थी तब लगता था कि यह दूसरे से लिखवाकर भेजती होगी। वह चिट्ठी हमारी रचना लिखती है, हमें उसकी काबिलियत पर बहुत भरोसा था। हम उसे पढ़ा नहीं सके, इस बात के पछतावे से भी हम दोनों रोते थे। अगर रचना को पढ़ा पाते तो वह बहुत अच्छी नौकरी पा सकती थी; तब बेटियों को कम ही पढ़ाया जाता था।
अच्छा दामाद पाकर हम खुश थे। फिर भी रचना की पाती पढ़कर हम ख़ूब रोते थे। हमारे लिए रचना हमसे लड़ जाती थी। रचना कहती थी कि, “मेरे पापा, मेरी अम्मा जिस तरह से भैया को जन्म दिया है आपने, उसी तरह से मुझे भी जन्म दिया है। फिर मैं परायी हो गयी हूं, क्यों?” दामाद भी कहते थे कि, “पापा मुझे भी बेटा मान लीजिए, मैं आपके, अपने माता-पिता के आशीर्वाद से पैसा कमाता हूं, जिस दिन से मेरी ज़िंदगी में आपकी रचना आयी है, सबकुछ अच्छा ही हुआ है। अब आपकी उमर हो गयी है, मेहनत कम कर दीजिए!”
हम उनको कोई जवाब नहीं देते हैं। उनकी यादें हमें सिर्फ़ रुलाती रहती हैं। हमने कुछ पुण्य किये थे, जो रचना हमें बेटी के रूप में मिली है। हमारे बेटे की भी शादी हो गयी है। बहू अच्छी है, बेटा निकम्मा है। रचना अपने भाई का भी ख्याल रखती है। रचना नहीं होती तो हम कहां से कहां भटक रहे होते।
हमारे घर रचना जन्मदिन मनाने आयी है, ऐसा लगता है जैसे, उसने आज ही जन्म लिया है। “पापा-पापा, कहां खो गये पापा!” कहकर मुझे रचना ने झकझोर दिया था। मुझे मानो होश आ गया है, मैं जैसे गहरी नींद से जाग गया था।
मेरी बिटिया रचना अब भी मुझे पकड़ कर खड़ी थी। मुझे वह छोटी-सी घघरिया वाली रचना लग रही थी। मन करता था गोद में उठा लूं! मैं खड़ा हो गया था। अपनी प्यारी बेटी रचना को अपनी छाती में छुपा लिया था, मैं दहाड़ मारकर रो पड़ा था। मेरी भारती भी रो रही थी। रचना तो ऐसी रोयी थी कि, मेरी छाती भीग गयी थी। दामाद जी की आंखों से आंसू बह चले थे। दामाद ने हमें अलग किया था, यह दामाद ही तो हैं जो उड़ाकर ले जाते हैं, हम बापों की पाली-पोसी चिड़िया को!
‘केक हमारा है’, यह मुझसे कहा था मेरे बेटे ने! केक काटा गया था। सभी खुश थे। मैं, भारती अब बूढ़े हो गये हैं। कुछ दिन बाद इस दुनिया से हमारा भी दाना-पानी उठ जाएगा। तब तक हमारी बेटी रचना आती रहेगी; हमारे आंगन में खुशियां लेकर!
पता नहीं क्यों? रचना के सभी जन्मदिनों पर मुझे ऐसा लगता है कि वह पायल पहने छोटे-छोटे पांव मेरे आंगन में थिरक रहे हैं! बेटी रचना के बचपन की बातें, यादें ताज़ा हो जाती हैं! बस एक एहसास खुशी के साथ बहुत रुलाता है। रचना फिर चली जाएगी। उड़ा ले जाएगा समय का तूफ़ान, हमारी चिड़िया को! जिसे पाल-पोसकर बड़ा करके, मज़बूत पंखों से भरपूर कर दिया था हमने!
जिस दिन से आयी, खुशी के आंसू रुलाती रही, इस रुलाई में भी भरपूर प्यार है, जिसका एहसास हमें एक अजीब-सी चमक देता है; ज़िंदगी जीने के लिए!

डॉ. सतीश 'बब्बा'
कथा लेखन के साथ ही डॉ. सतीश 'बब्बा' कवि भी हैं। आपकी रचनाएं अनेक भारतीय एवं तिब्बती पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। एक कविता संग्रह और आधा दर्जन से अधिक कथा संग्रह प्रकाशित हैं। अनेक समवेत संकलनों में आपकी रचनाएं शामिल हैं। आप पेशे से पत्रकार रहे हैं और भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ उप्र इकाई के संरक्षक हैं।
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बहुत सुंदर प्रस्तुति, सादर आभार आपका