मैंने मांडू नहीं देखा
मानसिक बीमारियां कई तरह की होती हैं- अवसाद, मेनिया, बाइपोलर, पर्सनैलिटी डिसऑर्डर, स्प्लिट पर्सनैलिटी.. जैसी। हमारे देश में शहरों को छोड़ दिया जाये तो इसे बीमारी के रूप में गिना ही नहीं जाता। मानसिक रोगी पर स्वदेश दीपक ने लिखा। कुछ कविताएं आयीं। मगर हिंदी साहित्य में बहुत कुछ ज़्यादा नहीं लिखा गया। प्रस्तुत कोलाज में बाइपोलर बीमारी के विभिन्न पहलुओं को छूने का प्रयास लेखक ने किया है।

कोलाज — बाइपोलर

             ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ में स्वदेश दीपक का उवाच:

-मुझे अवाक् देख समझ गयी कि मैं नहीं समझा।
-मेरा सामान्य ज्ञान बढ़ाया। मांडू का महल रानी रूपमती और बाज बहादुर के प्रेम का प्रतीक है।
-माथे में बैठा हैंड ग्रेनेड हाथों में सरक आया और उसे कहा-‘देन गो एंड सी मांडू’
‘बट आई वांट टू सी मांडू विथ यू’
‘यू ब्लडी वुमन। डू यू थिंक आई एम ए मेल प्रॉस्टिट्यूट’
-झगड़े में बिचौलिये की इंट्री-‘शी हैज़ सेड नथिंग इंसलटिंग। एस वी इन्वाइट समवन फॉर ए कप आफ़ टी, शी इन्वाइटेड यू टू सी मांडू।’
-ख़ूबसूरत औरतों से मेरा रण ठना रहता था। उन्हें पराजित करने का एक कारगर तरीक़ा- एक कमीनी रणनीति- हिटिंग बिलो द बेल्ट।

सूत्रधार-

मांडू देखा या नहीं- गौण सवाल। हां, अस्पताल देखे, लंबे समय तक। वे अस्पताल पहले जिन्हें पागलख़ाना कहते थे। अब समय, नाम और सोच बदल गयी। फिर भी प्रतिक्रियाएं इस बीमारी के लिए नफ़रत भरी और डंक मारने वाली ही होती हैं। अपने वाले परेशान, दोस्त हैरान और कभी पीठ पीछे मज़ाक़ उड़ाते हुए। लेखक की पहले की कुछ रचनाओं में भी यह मनोदशा झलकी। मानसिक बीमारी से कुछ निजात पाने के बाद उसने इस मनोदशा पर इस किताब को लिखा। फिर एक दिन लेखक लापता। भाप की तरह उड़ गया। बारिश भी नहीं हुई। पानी भी नहीं गिरा। लेखक भी नहीं मिला आज तक।
यह है भूमिका इस मानसिक बीमारी की।

लेखकीय-

-पृथ्वी के दो ध्रुव। उत्तर और दक्षिण। यानी दो पोल्स।
-पृथ्वी टेढ़ी घूमती रहती इनकी धुरी पर। और ज़िंदगी भी कुछ ऐसे ही घूमती है शायद। टेढ़ी।
-चांद भी चक्कर लगाता है घूमती पृथ्वी के चारों ओर। अपनी कलाएं दिखाते हुए। कभी चमकदार पूर्णिमा तो कभी अंधियारी मावस।
-चांद, पृथ्वी के पानी को आकर्षित भी करता और विचलित भी। (उसी पृथ्वी पर मानव शरीर। 70% पानी से भरा।)
-कभी ज्वार लाता। यानी उत्तेजना भरा दौर। सब कुछ लीलने को तत्पर। डरावना, भयावह।
-मैं, मैं और बस मैं। सब हां में हां करें। दिन कहूं तो दिन, रात कहूं तो रात। कोई सवाल, तर्क या बहस नहीं। चाहिए बस समर्पण।
-मान लीजिए यह है उत्तरी ध्रुव। बाइपोलर का एक पोल।

-चांद कभी भाटा भी लाता। भाटा यानी उतार। सब कुछ छोड़ जाने को तत्पर। शांत, नैराश्य, सिमटना, दूर होते जाना।
-तलछट पर गंदगी का छा जाना।
-देखकर घिन आती, उबकाई आती। ख़ुद पर। ज़िंदगी बेकार लगती।
-इसे मान लीजिए दक्षिणी ध्रुव। बाइपोलर का दूसरा पोल।

-पृथ्वी पर पंचतत्व का बना शरीर
जल – बहाव, गति
आग- तपन, जलन
हवा – हल्कापन, उमंग-तरंग, असंतुलन
ज़मीन- स्थिर, संतुलित, जोड़ने वाली
ब्रह्मांड- अध्यात्म, शून्य, मोह माया से मुक्त

-इन दो पोल्स के बीच भूमध्य रेखा।
-भूमध्य रेखा यानी फैलाव ही फैलाव।
-फैलाव अनियंत्रित हो गया तो विचार पारा बनकर उत्तर से दक्षिण, दक्षिण से उत्तर तक डोलते रहेंगे। इधर से उधर, उधर से इधर। छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित होंगे। जुड़ेंगे। बिखरेंगे। तो कभी अनियंत्रित हो ख़त्म हो जाएंगे।
-टूटना, जुड़ना अपनों को पतली डोरी पर टांगे रहेगा।

उत्तरी ध्रुव की यात्रा-

‘हेलो’- महिला की आवाज मोबाइल पर।
‘हेलो। कौन बोल रहा?’
‘मैडम आपके पति कहां है, मालूम है आपको?’
‘आप कौन? क्या काम है?’
‘आपके पति आपको धोखा दे रहे है। कैंटीन में मेरे साथ बैठे रहते। तारीफ़ करते रहते हैं मेरी सुंदरता की’
‘आप कौन? परिचय दीजिए’-आवाज़ रुंध सी गयी।
‘अरे, मैं सविता। तेरी बहन’
‘जान निकाल दी तूने तो’- खुलकर रोते हुए।
‘नया नंबर लिया था। सोचा तुझसे मज़ाक़ कर लूं। मज़ाक़ भी नहीं समझती’

-मज़ाक़ मज़ाक़ में शंका का जन्म हो चुका था।
-ट्रिगर दब चुका था। उत्तेजना का। पारा बिखर चुका था। छोटे-छोटे चमकदार छर्रे यात्रा शुरू कर चुके थे। तीव्र गति से। अनियंत्रित।

परिणाम –
-ऑफ़िस में तुम्हारे साथ कौन-कौन काम करती हैं?
-काम करते हो या बातें ही करते रहते हो लड़कियों के साथ।
-प्यार करते हो मुझसे?
-कौन है वो जो तुम्हें अच्छी लगती?
-जाओ, रहो उसी के साथ। कर लो दूसरी शादी।

-बवंडर उठता है। दावानल धू-धू कर पूरे शान्तिवन को जला देता।
-थोड़ी चुप्पी। मौन यदि संभव हुआ तो। या फिर प्लासी, सीरिया, यूक्रेन।
-बम पर बैठा परिवार।
-दौड़-भाग। मान-मनोवल। डॉक्टरों के चक्कर।
-लिथियम, सीज़डोन। क्लोनोट्रिल। शराब…
-उत्तरी ध्रुव की ओर की यात्रा पर व्यवधान के प्रयास।
-पूर्णिमा के चांद को अमावस की ओर धकेलने की कोशिशें।

दक्षिणी ध्रुव की यात्रा-

‘हेलो’- फोन पर दोस्त की आवाज़
‘हेलो, इतनी रात। क्या हो गया?’
‘……’
‘ऐसा कैसे हो गया!…. शाम को ही तो साथ में चाय पी थी।..कौन से अस्पताल में? अब कैसा है?’- सवालों के साथ ट्रिगर दब चुका था।
-डर का जन्म हो चुका था।

परिणाम

-मेरे सिर में दर्द है/ पेट में दर्द है/ दिल पर ज़ोर पड़ रहा है। बाईं ओर दर्द है। हाथ में भी। या ऐसा ही कुछ और।
-अटैक आ रहा।
-मेरी चिंता नहीं किसी को!
‘मशीन तो 138/86 बता रही’
‘मशीन का क्या भरोसा ! मौत तो बस आने वाली।’
‘चलो, डॉक्टर के पास’

-हर बार की तरह नंबर/लाइन, चेकअप, टेस्ट, ईसीजी, एंडोस्कोपी। ज़्यादा हुआ तो 2D-3D, सीटी स्कैन, एमआरआई। जो भी, परिस्थिति के अनुसार डॉक्टर बोल दें। मजबूरी में या धंधे के हिसाब से।
-विश्वास की कमी और बदलते डॉक्टर, स्पेशलिस्ट।
-रिपोर्ट नॉर्मल, बीपी नॉर्मल, ईसीजी नॉर्मल।
‘ईसीजी मशीन क्यों नहीं ख़रीद लेते। जितनी मुझे फ़ीस देते हैं इतने में तो आ जाएगी’ -डॉक्टर का सुझाव।
‘मगर मेरा दर्द?’
-घंटी बजी। नर्सिंग स्टाफ़ आया।
‘ड्रिप चढ़ा दो। मल्टीविटामिन। वावीरान। और… और…।’
-लंबा समय और लंबा बिल।
‘सॉरी सर, मानसिक बीमारी है। मेडिक्लेम में कवर नहीं होती। बिल पास नहीं हो सकता।’
-बजट बिगड़ने की शुरूआत। तनाव बढ़ने की शुरूआत।
-उदासी, चुप्पी, अकेलापन, डर, नींद, कामकाज से दूरी।
-नींद ज़्यादा है तो आरमोड, वेलमोड ले लो।
-अलप्रेक्स, डोसुलेपिन- आरमोड। सिगरेट…
-दक्षिण की ओर की यात्रा पर अब व्यवधान के प्रयास।
-अमावस के चांद को पूनम ओर धकेलने की कोशिशें।

भूमध्य रेखा-

-ऊपर से नीचे यानी उत्तेजना से निराशा, मेनिया से अवसाद की यात्रा।
-नीचे से ऊपर यानी निराशा से उत्तेजना, अवसाद से मेनिया की यात्रा में कई बार संतुलन बन जाता।
-चाहें क्षणिक समय के लिए ही।
-आदमी तब सुस्ता सकता है। गहरी राहत भरी सांस के साथ फैले धरातल पर जिंदगी का अर्थ भी तलाश सकता है।
-तब तक दो विपरीत चीजों की आदत लग गई होती हैं। क्लोनोट्रिल-आरमोड। शराब-सिगरेट। अल्प्रेक्स-सिजडॉन। चरस,गांजा-तंबाकू।
-हल्का सा ट्रिगर होता है और पारा छर्रो में बदलकर अनियंत्रित सा लुढ़कने लगता हैं। हर समय बम फटने, बिखरने का डर।
-फिर यात्रा शुरू हो जाती। कभी उत्तर की ओर, कभी दक्षिण की ओर।
-दोनों ओर के अपने खतरे। दोनों ओर की अपनी परेशानियां।

उत्तरी ध्रुव की यात्रा की झलक-

-सब चोर हैं।
-अपनी ज़िम्मेदारी दूसरे पर डाल देते हैं।
-मैं क्यों करूं यह काम। मेरा काम नहीं।
-मुफ़्त की पगार ले रहे हैं सब।
-और ऐसा ही कुछ। स्त्री-पुरुष के रिश्ते। रिश्तों की कुंठाएं।
-हथियारों से लैस पराजय।

अंतिम परिणाम- झगड़े। गाली-गलौज। हो-हल्ला। चीख-पुकार। अशांति।

दक्षिणी ध्रुव की यात्रा की झलक-

-मैं किसी लायक़ नहीं।
-मैं कोई काम नहीं कर सकता। मुझसे नहीं होगा।
-मुझे नौकरी से निकाल देंगे।
-कोई मेरी तारीफ़ नहीं करता।
-मुझे तो जीना ही नहीं चाहिए।
-और ऐसा ही कुछ। डर, भय और भ्रांतियों का जाल।
-हारी हुई योग्यता।

अंतिम परिणाम- शारीरिक दर्द। बीमारी। चुप्पी। उदासी। अकेलापन। कुएं-तालाब, रेल की पटरी, सेल्फाज, फंदे के उपयोग के ख्याल।

क्षितिज से दर्शन-

लंबी कष्ट भरी यात्रा। काउंसलिंग और दवाएं।
सवाल और जवाब-
‘कोई इलाज?’
‘है भी और नहीं भी।’
‘ठीक हो पाएंगे?’
‘हां भी और नहीं भी दोनों ही गलत उत्तर होंगे।’
‘कब तक चलेगा?’
‘वैक्सिंग और वानिंग विल गो आन ‘

सवाल ही सवाल-
-परवरिश की समस्या?
-केमिकल लोचा?
-इगो का ईड़ पर कंट्रोल नहीं?
-दो विपरीत नशों का प्रभाव?
-चाहत,मजबूरी, सामंजस्य की कमी?… ?..?

कवि का प्रवेश-

सोच की खोज के
बारिक तार पर
डोलती है जिंदगी
बार-बार, हर बार।
नट की तरह
चल लिए तो ताली है
गिर गए तो गाली है
सच, अब दिखता नहीं
दुःख कभी मिटता नहीं
सोच का घोड़ा
बेलगाम हो जब दौड़ा
सोच जो ले सोच
वो है थोड़ा।
उसके आगे तो बस
हाथ जोड़ा/बोड़ा है।

सूत्रधार-

मांडू में प्रेमी रूपमती और बाजबहादुर के सपनों का महल खंडहर बन चुका। प्रेम वहां है/था या नहीं पर खंडहर के दर्शन करने वाले दर्शकों की कमी कहां है! आप मांडू देखें या नहीं देखें, आपमें लोग मांडू ढूंढ ही लेंगे। आनंद ले भूल भी जाएंगे। महल से खंडहर में बदलने की पीड़ा को वहीं समझ सकेगा जो खंडहर में बदलता है या बदलने की प्रक्रिया का दर्शक होता हैं। मानसिक रोगी लेखक स्वदेश दीपक होना तकलीफदेह होता हैं।

(कृपया ध्यान दें- कोलाज में दवाओं के नाम का उल्लेख रचनात्मकता के लिए हुआ है। इनके उपयोग के लिए डॉक्टर की सलाह ज़रूरी है- लेखक)

विवेक मेहता, vivek mehta

विवेक मेहता

शिक्षा से सिविल इंजीनियर। पेशे से अध्यापक रहे। "क़िस्से बदरंग कोराना के संग", "बैताल कथाएं", "बेमतलब की" जैसे कॉलम थोड़े बहुत चर्चा में रहे। छुटपुट कहानी, कविता आकाशवाणी से प्रसारित होती रही और प्रकाशित भी होती रहती है। कोई पुस्तक, कोई पुरस्कार नहीं।

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