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नयी सदी की चुनौतियांँ और नवगीत कविता-5

            कविता की सही पहचान पढ़ने,‌ गुनगुनाने व सुनने से ही हो पाती है, यह बात छांदस कविता और गद्य कविता दोनों के लिए बराबर सही है। गद्य कविता के लिए तो रूप का कोई महत्व है भी नहीं। गद्य कविता के कवि ने रूप की इसी महत्वहीनता की आड़ में लय व प्रवाह को भी किनारे रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसा करना उसके लिए बहुत सरल भी है क्योंकि लय और प्रवाह दिखायी नहीं देता। लय और प्रवाह की परीक्षा कविता को बिना पढ़े, बिना सुने नहीं की जा सकती। पढ़ने-सुनने के मानदण्ड पर पुख़्ता न उतरने के कारण ही आम पाठक या श्रोता या कहें कि आदमी ही उसे कविता की तरह स्वीकार नहीं कर पाया। किन्तु छांदस कवि के लिए और विशेषतः नवगीत कविता के कवि के लिए यहाँ बहुत सजग रहने की ज़रूरत होती है।

         किसी कथ्य या विचार को गीतात्मक रूप यानी मुखड़ा, अंतरा, तुकांतता और ध्रुपद के साथ लिखने से वह गीत की तरह दिखायी देने लगता है। किन्तु उसकी भी असली परीक्षा उसे पढ़ने-गुनगुनाने या सुनने के साथ पाठक या श्रोता के भीतर उठती लय, रागात्मक भाव-प्रवाह, कविता के विचार या भाव से उसकी संपृक्ततता से ही होती है। यदि पाठक या श्रोता के भीतर, उसकी सांसों में भी उसी कविता की लय न उठने लगे, उस कविता के विचार से उसकी सम्पृक्तता न होने लगे तो, उस रचना के कविता होने में संदेह होना चाहिए और होता भी है।

          ऐसा बहुत बार होता है कि कोई रचनाकार छंद सृजन में कुशलता प्राप्त कर पूरी कलात्मकता से रचना करता है। किंतु, कथ्य, ज़रूरी विचार या भाव व समकालीनता से शून्यता के कारण उसे कविता की कोटि में रख पाना मुश्किल होता है। कविता नहीं होने के कारण वह गेय होकर भी गीत या नवगीत नहीं होती।

            किसी भी गीतात्मक रचना के लिए सुगढ़ छंद में होने के बावजूद गीत या नवगीत होने की चुनौती हमेशा बनी रहती है। इस चुनौती से निपटने के लिए आचार्यों ने सूत्र दिये हैं। जैसे- साहित्य दर्पणकार चौदहवीं शताब्दी के आचार्य विश्वनाथ लिखते हैं- ‘वाक्यं रसात्मकम् काव्यम्’, ईशोनिषद के आठवें मंत्र का ऋषि कहता है- ‘कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू’, भामह लिखते हैं- ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’, इसके साथ ही आचार्यों ने यह भी कहा कि कविता का विन्यास जितना अधिक वाक्य के निकट होगा, वह उतना ही अधिक सहज और प्रभावी होगी। एक दूसरी बात यह भी है कि नवगीत कवि को कविता के विन्यास में गणनात्मक पैटर्न के साथ भाव, विचार, लय व प्रवाह का पैटर्न बनाये रखना ज़रूरी होता है। इसे बनाये रखना भी चुनौतीपूर्ण हो सकता है, किन्तु इस सबके साथ इनमें अन्विति का होना भी आवश्यक है। इससे ही कविता में सहजता और संप्रेषणीयता आती है। इसके अभाव में कलात्मकता ही रह जाती है।

           यह समझना बहुत ज़रूरी है कि कविता कला हो कर भी हुनरबाज़ी या कलाबाज़ी नहीं है। कला सीखी जा सकती है, कविता सीखना संभव नहीं है। यह कथ्य, भाव, विचार, समय और लोक से संपृक्त हुए बिना संवेदना, दया और करुणा से भरे बिना संभव नहीं है। केवल कला ही हो, तो कोई रचना कविता का मात्र भ्रम पैदा कर सकती है। वास्तव में कविता होने के लिए कवि के पास उपरोक्त सम्पदा का होना ज़रूरी है। संवेदना, दया, करुणा, लोक संपृक्ति, समय की पहचान, कथ्य, विचार, भाव-संपदा आदि मिलकर रचनाकार को कवि बनाती हैं। एक समर्थ कवि के भीतर उठता काव्य-प्रवाह व लय उससे गीत की रचना करवाते हैं। इस तरह अपने समय को, समाज को व्यक्त करने वाली गीत रचना ही नवगीत बनती है।

राजा अवस्थी

राजा अवस्थी

सीएम राइज़ माॅडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कटनी (म.प्र.) में अध्यापन के साथ कविता की विभिन्न विधाओं जैसे नवगीत, दोहा आदि के साथ कहानी, निबंध, आलोचना लेखन में सक्रिय। अब तक नवगीत कविता के दो संग्रह प्रकाशित। साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित 'समकालीन नवगीत संचयन' के साथ सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय समवेत नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित। पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, दोहे, कहानी, समीक्षा प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्र जबलपुर और दूरदर्शन केन्द्र भोपाल से कविताओं का प्रसारण।

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