
- June 6, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
छवि काव्य : चित्र पर कविताएं
किसी वस्तु से निकलने वाले विकिरण को किसी संवेदनशील माध्यम पर रेकार्ड करके जब कोई स्थिर छवि बनायी जाती है तो छायाचित्र बन जाता है। एक छायाचित्र भी संवेदना जागृत करने का सबब होता है। एक मौज़ूं तस्वीर न जाने कितने कितने विचारों को जन्म देती है। जो अभिव्यक्ति का एक सुन्दर और विरेचक प्रतिदर्श होता है। एक फ़ोटो/छवि में हमेशा कोई कहानी या कविता छिपी होती है… यहां प्रस्तुत है एक तस्वीर जिसे आनंद सौरभ उपाध्याय ने खींचा, उस पर आयीं इन कविताओं को पढ़कर हम और अधिक संवेदना समृद्ध होंगे।
– ब्रज श्रीवास्तव (संपादक-काव्य प्रस्तुति)
1.
चलती रेल खिड़की पर
ठहरी नन्ही आँखें
रुकी हुई खिड़कियों से
बहुत देखी
चलती हुई इक दुनिया
चलती हुई रेल खिड़की
पर ठहर सी
गयीं हैं नन्ही मुन्नी आँखें
लोग-बाग, गाड़ियाँ, मोटर
देखे बहुत दौड़ते-भागते
पेड़, पौधे, पर्वत, नदियाँ
आसमां भी यहां टाटा करे
ज़ूम करो तो दिखायी देगा
कौतूहल का
एक पूरा सफ़र आँखों में
अचरज है, ख़ुशी है, उनमें
ले जाएंगी घर
बटोर के मंज़र ये दो डिबियां
चलती हुई रेल खिड़की
पर ठहर सी
गयी हैं नन्हीं मुन्नी आँखें
रुकी हुई खिड़कियों से
बहुत देखी
चलती हुई इक दुनिया!
—रीतेश खरे ‘सब्र’
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2. देखता दूर तक
खिड़की से
हवा ही नहीं आती
खिड़की
दृश्य भी दिखाती है
वह
खिड़की से जितनी दूर तक
देख सकता है
देख रहा है
लेकिन
वह इस सीमा को
लांघना चाहता है।
उसे पता है
उसकी इच्छाओं को रोकती
यह खिड़की
उसके लिए
एक बाधा है
लेकिन उसे
खड़े और डटे रहना भी पता है
और पता है
कभी न कभी
यह खिड़की ही उसे
वह दृश्य दिखाएगी
जो वह देखना चाहता है।
—राजेन्द्र ओझा
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3.
रेल चल रही है
या ज़मीं चल रही है
बालबुद्धि यह समझने
को मचल रही है..
आश्चर्य, कौतूहल, जिज्ञासा है
बाल मन जानने को प्यासा है
ढेर सारे सपने आंखों में बसे हैं
सपनों के सांचे में यह ढल रही है
—महेंद्र वर्मा
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4. खिड़की से बाहर
बच्चा खिड़की के पास बैठा है
धूप और हवा उसके चेहरे पर साथ ठहरकर
कोई अनकही कविता को जन्म दे रही है
उसकी आँखें बाहर भागती दुनिया को
पकड़ना नहीं बस देखना चाहती हैं
पेड़ों की सरकती परतें,
दूर कहीं पतली सी नदी की झलक,
और खेतों के बीच बिखरी गायें,
जैसे सब कुछ अपनी जगह पर है,
और फिर भी कुछ नया घट रहा है
मुस्कान उसके चेहरे पर रुकती है
सहज ही,
जैसे कोई विचार बिना भाषा के थम गया हो
सामने बैठी माँ कुछ कहती है,
पर उसकी आवाज़
उस हवा के बीच कहीं रुक जाती है
जो खिड़की से भीतर आ रही है
बच्चा अब एक कुत्ते को देख रहा है,
जो रेल की पटरी के साथ-साथ
कुछ दूर तक दौड़ता है,
फिर अचानक ओझल हो जाता है
जैसे किसी कहानी का अंत बिना विराम के।
एक क्षण के लिए
सब कुछ पीछे छूट जाता है
किताबें, होमवर्क, टीवी पर चलते कार्टून
केवल यह खुली खिड़की बची रह जाती है,
हवा की उंगलियाँ उसके गालों को छूती हैं,
दुनिया उसके सामने से बहती जाती है,
तेज़, रंगीन, अनगिनत सवालों से भरी।
और वह, बस यूं देखता है,
जैसे पहली बार किसी ने जीवन का दरवाज़ा खोला हो।
—दुष्यंत तिवारी
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5. चाहत
इतनी सी चाहत है मेरी
हरियाली का
यह सफ़र
ताउम्र चलता रहे
गति संग जीवन का सदा
रिश्ता रहे
जीवन में इतना सुख तो मिले
बस! खिड़की भर आकाश मुझे दिखता रहे
—अरुण सातले

ब्रज श्रीवास्तव
कोई संपादक समकालीन काव्य परिदृश्य में एक युवा स्वर कहता है तो कोई स्थापित कवि। ब्रज कवि होने के साथ ख़ुद एक संपादक भी हैं, 'साहित्य की बात' नामक समूह के संचालक भी और राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक आयोजनों के सूत्रधार भी। उनके आधा दर्जन कविता संग्रह आ चुके हैं और इतने ही संकलनों का संपादन भी वह कर चुके हैं। गायन, चित्र, पोस्टर आदि सृजन भी उनके कला व्यक्तित्व के आयाम हैं।
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रीतेश खरे जी की कविता हूबहू वही चित्र खींचती है जो चित्र एक कैमरे से खींचा गया है. रीतेश जी को साधुवाद