
- June 15, 2025
- आब-ओ-हवा
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दर्स (शिक्षा), अंदाज़ और शहरयार
“जिसका कलाम जितना बेहतर है वह उसे उतना ही बुरा पढ़ता है”, ये कोई तयशुदा शर्त नहीं है, ये बात ज़रूर पहली बार अपने कलाम को औसत अंदाज़ से पढ़ने वाले किसी कमतर शायर ने कही होगी। बे-अक़्ली की बात भी लोग यहाँ बड़े चाव से दोहराते हुए दिख जाते हैं।
इल्म के इस शहर में कोई नहीं पूछता
कारे-सुख़न किस तरह मैंने किया आज तक
जो सामने होता है नहीं दीद के क़ाबिल
ये आँख किसी दूर के मंज़र के लिए है
फ़ैज़ के बारे में भी कहा जाता है कि वो बहुत बुरे अंदाज़ से अपना कलाम पढ़ते थे… शहरयार के पढ़ने पर भी लोगों को मज़ेदारी दिखायी नहीं दी। शायरी में मौजूद दर्स इतना भी नाकाफ़ी नहीं कि उसकी भरपाई के लिए मंच पर शायर को किसी अदाकार की तरह परफ़ॉर्म करना पड़े। लफ़्ज़ों को बरतने, आवाज़ के उतार-चढ़ाव से अगर मायने और खुलते हैं तो क्योंकर किसी को ऐतराज़ हो मगर हर बार मुशायरे में हाथ फैलाकर हवाई-जहाज़ बन जाने की अदा भी कोई क़ाबिले-सताइश नहीं।
कहीं न सबको समंदर बहा के ले जाये
ये खेल ख़त्म करो कश्तियाँ बदलने का
सच, ख़ुद से भी ये लोग नहीं बोलने वाले
ऐ अहले-जुनूँ तुम यहाँ बेकार में आये
दर्स के सबसे बड़े शायर ग़ालिब को कलाम पढ़ते हुए अगर आज सुनते तो खुली आँखों वाले उन्हें सबसे ज़्यादा पसंद करते, ऐसा मुमकिन ही नहीं कि जिससे दर्से-बसीरत हासिल हो, उसको सुनकर सुख़नफ़हम लुत्फ़-अंदोज़ न हों।
ये भी हो सकता है कि औसत दर्जे का कलाम भी बहुत बुरी तरह से पढ़ा जाये और बेहतरीन शायरी भी शायर के अपने सुनाने के अंदाज़ से लोगों के दिलों पर मज़ीद धाक जमाये लेकिन कलाम का मैयारी होना… शायरी का आलातरीन होना उसके पढ़े जाने के तरीक़े से तआल्लुक़ नहीं रखता है।
बुरा कहो कि भला समझो ये हक़ीक़त है
जो बात पहले रुलाती थी अब हँसाने लगी
कोई इक आध सबब होता तो बतला देता
प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे
बशीर बद्र ने कहा है हर मुशायरा पानी का एक बुलबुला होता है… और अब यूट्यूब पर लाखों व्यूज़ भी भ्रम है। भीड़ कैसी भी हो, कामयाबी की ज़मानत नहीं होती। जहाँ दर्स नहीं, वहाँ अमरता भी नहीं है। नक़लचियों के बीच शेर पढ़ने के अंदाज़ से कुछ दिनों तक तमाशा हो सकता है।
दोहराता नहीं मैं भी गये लोगों की बातें
इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है
लोकप्रियता किसे पसंद नहीं आएगी लेकिन लोकप्रियता कभी समग्र की नहीं होती- कोई दीवाना कहता है, जैसी पंक्ति चल पड़ती है… कभी-कभी शायरी के हित मे फ़ैसला आने में समय लग जाता है। फिर भी जिन्हें तुरंत धूम मचानी है वो लफ़्ज़ों का खेल रच सकते हैं, ये कारगुज़ारी भी आसान नहीं है लेकिन इससे अगर शायरी में दर्स पैदा नहीं हुआ तो सब फ़िज़ूल है।
तेज़ आँधी का करम हो तो निजात इनको हो
राख की क़ैद में चिंगारियां मुरझाने लगीं
जिस दर्स और जिस अंदाज़ को राहत इंदौरी ने पाया और जितनी पज़ीराई उन्हें मिली, उसको हासिल करना बहुत कठिन है। मुशायरे चल रहे हैं, यही ग़नीमत है। जनता अपना कामधाम छोड़कर अपने ही अंदाज़ के नये राहतों की मुन्तज़िर हो ऐसा भी नहीं लगता। फिर भी, अगर मंच को हमेशा अदाकार की दरकार है तो बनी रहे मगर हर दौर को एक शहरयार चाहिए।
इस नतीजे पे पहुंचते हैं सभी आख़िर में
हासिले-सैरे-जहाँ कुछ भी नहीं हैरानी है
ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बेज़बानों को
सुनाने के लिए जब कोई दास्तां न रही

सलीम सरमद
1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।
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