
रतन थियम का ऐसे जाना…
“हम (मणिपुर) भारत का हिस्सा हैं भी?” पूछने वाले रतन थियम नहीं रहे।
मणिपुर में सामुदायिक हिंसा को दो साल से अधिक का समय हो गया, पर पूरी तरह शांति हो सकी हो, सब कुछ सामान्य हो सका हो, ऐसा नहीं हो सका। इस हिंसा के चरम पर औरतें विधवा हो रही थीं, उनका शीलभंग हो रहा था, बच्चे अनाथ हो रहे थे और लाचार लोग राहत कैंपों का नर्क भोग रहे थे, तब रतन थियम चुप नहीं थे। उन्हें विश्वास था कि सब ठीक हो जाएगा।
थिएटर के ‘रतन’ कहे जाने वाले थियम को रंगऋषि कहा जा सकता है, रंगमंच का पुरोधा कहा जा सकता है और, और भी बहुत कुछ विशेषण दिये जा सकते हैं। आधुनिक रंगमंच में उनका योगदान अप्रतिम रहा है। उन्होंने सिनेमा या फिर दिल्ली में मुख्यधारा के रंगमंच के बजाय अपनी ज़मीन पर, अपनी ज़मीन के संदर्भों और प्रसंगों पर संवाद के लिए रंगमंच को माध्यम बनाया। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मणिपुर को पहचान दिलवायी और उनके योगदान को समय समय पर नवाज़ा गया।
ऐसे रतन थियम को 2023 में मणिपुर हिंसा के समय में एक शांति समिति का सदस्य नियुक्त किया गया था, लेकिन इस बारे में स्पष्ट संवाद किये बग़ैर उनका नाम शामिल किये जाने से नाराज़ थियम ने यह सदस्यता ठुकरा दी थी। तब एक पत्र के साथ विशेष बातचीत में उन्होंने कई सवाल उठाये थे, अपना दुख ज़ाहिर किया था और अपनी कोशिशों के बारे में बताया था।
संगीत नाटक अकादमी और पद्मश्री से सम्मानित थियम ने कहा था, इतनी हिंसा के बाद भी प्रधानमंत्री चुप्पी साधे हुए हैं! जब एक सरकार पूरे देश को चला रही है तो उसका कर्तव्य है कि वह अपने लोगों की चिंता करे, चाहे वे जैसे भी हों अच्छे हों या बुरे। यह उसका कर्तव्य है। एक ऐसा नेता होने के बावजूद यह कर्तव्य क्यों नहीं निभाया जा रहा?
मानवता और कला
थियम ने साफ़ कहा था कि पिछली बार जब मोदी मणिपुर आये थे, तब मणिपुर के बारे में सुंदर शब्दों का ज़ख़ीरा उनके पास था, लेकिन अब वह कहां हैं! उन्होंने यह भी कहा था, अमित शाह के मणिपुर दौरे का नतीजा यह हुआ कि 100 करोड़ का पैकैज घोषित कर दिया गया, लेकिन इसका शांति से क्या लेना देना! हमें मानवीयता के पैकैज की दरकार है। मकानों के निर्माण से पहले बहुत सी और चीज़ें हमें निर्मित करना हैं।
थियम ने मणिपुर की तबाही में मीडिया के ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैये को भी कठघरे में खड़ा किया था। उनके शब्द थे, एक डाकू मरता है तो 15 दिनों तक मीडिया उसके कवरेज से अटा रहता है और यहां मणिपुर एक महीने से ज़्यादा वक़्त से तबाह हो रहा है और किसी को कुछ पर्वा ही नहीं है। कोई इस मुद्दे को उठाने के बारे में चिंतित ही नहीं दिख रहा।
मणिपुर हिंसा का भारी असर थियम और मणिपुर के रंगमंच पर भी पड़ा। तब थियम ने बताया था कि उनका रंगमंच प्रगतिशील संसार, मानवीय आध्यात्मिकता के अध्ययन के साथ ही यह भी समझने का प्रयास रहा है कि तंत्र कैसे दिन-ब-दिन ग़लत होता जा रहा है।
“एक कलाकार के रूप में मैं कुछ तो योगदान (हिंसा की रोकथाम के लिए) कर ही सकता हूं। विधवाओं, यतीमों और कैंपों में घुट रहे लोगों को देखकर मेरा दिल चूर हो चुका है। जिसमें ज़रा भी समझ और संवेदना है उन लोगों के लिए यह सब बर्दाश्त कर पाना बहुत मुश्किल है।”
थियम ने कहा था कि वह भारत के कला जगत से मदद जुटाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि मणिपुर के पीड़ितों के लिए किसी तरह की ‘चिकित्सकीय थैरेपी’ शुरू की जा सके। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि जल्द ही मणिपुर में शांति बहाल होगी। एक कलाकर के रूप में आशावादी होना ही उनकी नियति थी। वह मानते थे कि इंसान हमेशा इंसान से नफ़रत करता हुआ नहीं रह सकता। रंगमंच के ज़रिये दिलों के जीतने वाले थियम को विश्वास था कि मानवीयता जीत जाएगी। वह कितने मायूस, कितने हताश चले गये, क्या कहा जाये!
—आब-ओ-हवा डेस्क