दॉस्तोएव्स्की के बहाने

दॉस्तोएव्स्की के बहाने

          इन दिनों दॉस्तोएव्स्की फिर चर्चा में हैं। उनकी लघुकथा ‘व्हाइट नाइट्स’ ज़ोरों से पढ़ी जा रही है। पिछले सवा-सौ बरसों में दॉस्तोएव्स्की की उपस्थिति हमारे बीच किसी प्रेत की-सी हो गयी है, जिसके पास इस धर्मोत्तर समाज का नागरिक बार-बार लौटता रहता है। काफ़ी हद तक यह उपस्थिति टॉलस्टॉय और अलेक्सांद्र सोलज़ेनित्सिन की भी है लेकिन वह उन्हीं रास्तों से हमारे पास नहीं आते, जिनसे दॉस्तोएव्स्की।

      दॉस्तोएव्स्की के किरदार खंडित आस्थाओं, धर्मच्युत जीवन, वैयक्तिकता और अकेलेपन से जूझते किरदार हैं। उनके उपन्यास में पारम्परिक ईसाइयत बनाम यूरोप से आयद आधुनिकता, मानववाद और एनलाइटेनमेंट के बरअक्स सैकड़ों मुबाहिसे हैं- लेकिन यह इतनी साफ़ फाँक नहीं है।

       टॉलस्टॉय अपने एक निबंध “कन्फ़ेशन” में अपने अव-साद, जीवनोद्देश्य के बारे में बातें करते हैं किन्तु दॉस्तोएव्स्की के यहाँ इस तरह का स्पष्ट जीवन-दर्शन किसी निबंध से नहीं बल्कि किरदारों के बीच तनाव और बहसों से पैदा होता है। कई बार यह एकाकी भी हो सकता है। दोनों ही सन्दर्भ में उनके उपन्यास क्रमशः ब्रदर्स करमाज़ोव तथा नोट्स फ़्रॉम दि अंडर-ग्राउंड उल्लेखनीय हैं।

       यद्यपि, ब्रदर्स करमाज़ोव और डेमन्स उनके प्रतिनिधि उपन्यासों में शामिल लेकिन नोवेल्स ऑफ़ आइडियाज़ कहलाते हैं। दॉस्तोएव्स्की की साख उनके दो उपन्यासों ‘दि इडियट’ तथा ‘क्राइम एण्ड पनिशमेंट’ से बनती है।

         दि इडियट, इंसानी मासूमियत और दुनियावी सनक तथा ऊल-जलूलियत के बीच टकराव का उपन्यास है। यहाँ लिखते-लिखते मुझे याद आता है कि मणि कौल ने इडियट पर फ़िल्म बनायी थी, जिसके मुख्य किरदार मिश्किन का अभिनय शाहरुख़ ख़ान ने किया था।

          क्राइम एण्ड पनिशमेंट इस क्रम में दूसरा उपन्यास है जहाँ परम-वैयक्तिकता को टटोला गया है। यदि ईश्र्वर नहीं है तो क्या इंसान सब कुछ करने के लिए आज़ाद है? उपन्यास का नायक रस्कोलनिकोव का हर वह क़दम वाजिब नहीं है जो उसके ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी है, भले ही वह अन्य की हत्या क्यों न हो?

दॉस्तोएव्स्की के बहाने

        हालाँकि दॉस्तोएव्स्की के यहाँ स्वयं एक स्लाविक जातीय वकालत है, फिर भी आज धर्म के जिस विकृत रूप से हमारा सामना है, दॉस्तोएव्स्की के सवाल, उसका ईश्वर, धर्म और नैतिकता उससे बहुत अलग हैं। नीत्शे हमको इसी तरह चेताता है कि ईश्वर को मारे जाने के बाद ख़ून हमारे हाथों से साफ़ नहीं हुआ है और हमें न जाने कितने खेल-खिलवाड़ ईजाद करने होंगे, जो इस हत्या के पाप से हमें मुक्त कर सकें। हम इसी धर्मोत्तर समाज के डेमीगॉड संस्कृति में आज साँस ले रहे हैं जहाँ व्यक्ति, संस्थाएँ, विचार, रुजहान और परम्पराएं एक झटके में दैवीय दर्जा हासिल कर लेती हैं।

      खंडित आस्थाओं के इस समय में मिश्किन और रस्कोलनिकोव हमें आज और आगे भी इन उपन्यासों के ईमानदार पाठ के लिए आमंत्रित करते रहेंगे।

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निशांत कौशिक

1991 में जन्मे निशांत ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली से तुर्की भाषा एवं साहित्य में स्नातक किया है। मुंबई विश्वविद्यालय से फ़ारसी में एडवांस डिप्लोमा किया है और फ़ारसी में ही एम.ए. में अध्ययनरत हैं। तुर्की, उर्दू, अज़रबैजानी, पंजाबी और अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित। पुणे में 2023 से नौकरी एवं रिहाइश।

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