
आपातकाल और मोदी 3.0: तथ्य और विश्लेषण
25 जून 1975 से 21 मार्च 1977, यह देश में तीसरे आपातकाल की अविध थी। सीमा पर युद्धों के अलावा पहली बार आंतरिक अशांति को कारण बताकर यह आपातकाल लगाया गया था, जिसकी आधी शताब्दी पूरी होना इन दिनों चर्चा का विषय है। दूसरी तरफ़, बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीसरी पारी का एक साल पूरा भी हाल में हुआ है। इन दोनों विषयों पर ढेरों ख़बरें, फ़ीचर और लेखों की बाढ़ के बीच आप अगर एक आत्मावलोकन केंद्रित/आलोचनात्मक नज़रिये से मौजूदा स्थितियों को जानना चाहते हैं तो यह लेख आपके लिए है।
सबसे पहले आपातकाल की बात। आपातकाल के कारणों को लेकर कई नज़रिये और तथ्य प्रस्तुत किये जाते रहे हैं। जो इसके विरोधी रहे उनके पास यह तथ्य है कि न्यायालय ने जब इंदिरा गांधी के चुनाव को असंवैधानिक क़रार दे दिया था, तब अपनी सत्ता बचाने के लिए बौखलाहट में इंदिरा ने आपातकाल को हथियार बनाया। वहीं, विरोधियों के नैरैटिवों के विरोधी पक्ष यह दलील देते हैं कि पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी और अमरीका के भारत विरोधी रवैये ने भारत की इंदिरा गांधी सरकार को गिराने के लिए चालें चलीं। यह थ्योरी यहां तक बताती है कि जेपी और छात्रों के आंदोलन में भी इन बाहरी ताक़तों की कुछ न कुछ भागीदारी तो रही थी।
बहरहाल, यह तो तय है कि आपातकाल के दौरान अभिव्यक्ति और असहमति के अधिकारों की लोकतांत्रिक भावनाएं बुरी तरह आहत हुई थीं। देश के एक बड़े तबक़े ने जिस तरह का दमन और तानाशाही झेली, उसके अनुभवों को झुठलाया जाना इतिहास से छेड़छाड़ करना ही होगा। अब सवाल यह है कि इस आपातकाल को भुनाने की राजनीति क्या होती रही और किस तरह नैरैटिव उछाले जाते रहे। इन दिनों सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी आपातकाल की बरसी को ‘संविधान हत्या’ दिवस के रूप में जिस तरह प्रचारित कर रही है और तानाशाही के इस अध्याय को जिस तरह भारतीय लोकतंत्र की तारीख़ पर कलंक बता रही है, उसके पीछे के तथ्य क्या हैं? इतिहास क्या कहता है कि यह पार्टी 1975 से 1977 के बीच किस भूमिका में थी?
संघ के माफ़ीनामे और हालिया नैरैटिव
एक लेख में परमजीत बॉबी सलूजा ने उल्लेख किया है कि किस तरह उस समय तत्कालीन सरसंघ संचालक बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी के नाम पत्र लिखे। यही नहीं, उन्होंने विनोबा भावे को भी पत्र लिखे और जेल से रिहाई की गुहार लगायी थी। एक अन्य लेख में पत्रकार व वामपंथी नेता बादल सरोज ने भी इन्हीं तथ्यों की पड़ताल की है। इस लेख में उन्होंने दस्तावेज़ों के हवाले से लिखा है कि देवरस ने पत्र लिख लिखकर माफ़ियां मांगी। यह स्पष्ट किया कि इंदिरा सरकार के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलनों के साथ संघ की संबद्धता नहीं है। एक तरह से ‘अनुशासन पर्व’ का समर्थन करते हुए देवरस ने संघ के नेताओं की जेल से रिहाई की भरसक गुहार लगायी। सरोज ने इसे ‘सावरकर आसन’ में माफ़ीनामे दिया जाना क़रार दिया है।
इसके अलावा, इन दोनों के सुर में अन्य कुछ लेख भी जो बातें प्रमुख रूप से उठाते हैं, उनमें एक यह कि अपने इस इतिहास के बावजूद संघ और संघ समर्थित राजनीतिक दलों ने तब के आपातकाल के विरुद्ध एक नैरैटिव चलाया। इसके ज़रिये अपने आप को तानाशाही का विरोधी या संविधान का हामी बताने की छवि गढ़ने के लिए येनकेन प्रकारेण कोशिशें कीं।
दूसरी बात यह कही जा रही है कि आज की स्थितियां तबसे बदतर हैं। अनेक स्थानों पर मुखरता से लिखा जा रहा है कि संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन बल्कि संवैधानिक संस्थाओं का विलोपीकरण के साथ ही देश भर में नफ़रत और हिंसा को बढ़ावा देकर आंतरिक शांति को जिस तरह दांव पर लगाया जा रहा है, यह आपातकाल से भी बुरा समय है, भले ही इसे अमृतकाल जैसे विशेषणों के परदे में ढांकने की लाख कोशिशें की जाएं। हालांकि आज की स्थितियों की आलोचना करते हुए कुछ लेख 1975 के आपातकाल को उचित, जायज़ या समय की आवश्यकता सिद्ध करने की चेष्टा भी करते हैं, जिसे स्वीकार करने में किसी को भी अड़चन हो सकती है।
मोदी 3.0 के बाद माहौल?
आप जानते हैं कि सूचनाओं को छुपाने, नियंत्रित करने और अनुकूल करने का जो दौर लंबे समय से चल रहा है, ऐसे में किसी तरह से कोई अध्ययन करके एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार और जारी करना जोखम से कम नहीं है। एक ऐसी ही रिपोर्ट असोसिएशन फ़ॉर प्रोटेक्शन आफ़ सिविल राइट्स ने जारी की है, जो जून 2024 से जून 2025 की अवधि में हेट क्राइम के आंकड़ों और प्रवृत्तियों का विश्लेषण प्रस्तुत करती है।
यह रिपोर्ट बताती है कि इस एक साल में हेट क्राइम और हेट स्पीच की कुल मिलाकर साढ़े नौ सौ घटनाएं दर्ज की गयीं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तराखंड और कर्नाटक ऐसे राज्य हैं, जहां इन अपराधों के आंकड़े सर्वाधिक हैं। किस तरह मुस्लिम और ईसाई समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रती अपराध बढ़ रहा है, किस आयु और लिंग आदि के आधार पर इन अपराधों के क्या आंकड़े हैं? यह रिपोर्ट ऐसे तथ्य प्रस्तुत करती है, इसे आप apcrindia की वेबसाइट पर जाकर पूरा पढ़ सकते हैं।
यह रिपोर्ट दावा करती है कि मीडिया आधारित सूचनाओं के दस्तावेज़ चेक करने और सोशल मीडिया के कंटेंट का विश्लेषण करने के उपरांत ऐसे आंकड़े और विश्लेषण तैयार किये गये हैं, जिन्हें पुष्ट और प्रामाणिक माना जा सकता है। इस रिपोर्ट का सार यह है कि देश में सांप्रदायिक आधार पर नफ़रती अपराध करने का माहौल चिंताजनक बना हुआ है और इसे एक हद तक राजनीतिक संरक्षण या उकसावा मिल रहा है।
—आब-ओ-हवा डेस्क