sahir ludhianvi

जिया सो गाया

ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?

मनस्वी अपर्णा

       हिंदी सिनेमा का वो आसमान… जिस पर न जाने कितने सितारे उभरे, चमके और गोया अपनी ही कामयाबी के भंवर में उलझकर मजीद खोते भी चले गये। किसी ने कहा भी है कि बुलंदी की राह बड़ी फिसलन भरी होती है, उस पर ठहरना और बने रहना बड़ी चुनौती होती है। बहरहाल हिंदी सिनेमा के इसी फिसलन भरे आसमान पर 1949 में एक खुरदुरा-सा सितारा उभरा। नाम था अब्दुल हई उर्फ़ साहिर लुधियानवी।

   साहिर के मिजाज़-ओ-रुख़ का खुरदुरापन वो मज़बूत जोड़ साबित हुआ जिसने, इस सितारे को हिंदी सिनेमा के आसमान पर न सिर्फ़ उभारा, चमकाया बल्कि उससे ताउम्र फिसलने नहीं दिया। साहिर ने बहुत कम उम्र में दुनिया का वो रंगो-रुख़ देख समझ लिया था, जिसकी समझ आम इंसान को एक उम्र होते-होते आती है। यही वजह थी कि उनकी वो पहली क़िताब जिसने शायरी की दुनिया को एक तरह से हिला दिया था, उसका नाम ही ‘तल्ख़ियां’ था। ये तल्ख़ी ताउम्र उनके लेखन में छुपाये न छुपी। जहां भी मौक़ा मिला साहिर की क़लम ने इन तल्ख़ियों को ख़ूब उकेरा।

       इस तल्ख़-मिज़ाजी के बावजूद साहिर की शख़्सियत के एक अलग ही पहलू पर जावेद अख़्तर, अपने एक इंटरव्यू में रोशनी डालते हैं। बक़ौल जावेद साहब, साहिर की ज़िंदग़ी में उनकी मां की वो हैसियत और रुतबा था, जो आज तक कहीं और उन्होंने नहीं देखा। एक ज़हीन शायर, जिसका दुनिया को समझने नज़रिया इतना आला है कि— संसार से भागे फिरते हो; ये तख़्तों, ये ताजों की दुनिया; चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों; मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया… जैसे महीन अर्थों वाले गीत रच रहा है, वो मामूली से निर्णयों के लिए भी अपनी मां पर बिलकुल छोटे बच्चे की तरह आश्रित है।

       दरअस्ल उनकी इस आदत के पीछे की वजह बड़ी गहरी थी। बड़े और पैसे वाले ख़ानदान में पैदा होने के बावजूद साहिर अपनी मां के साथ ज़िंदग़ी की बड़ी सख़्त आज़माइश से गुज़रे थे। साहिर सब कुछ भुला सकते थे लेकिन संघर्ष के दिनों में अपनी मां से मिली हिम्मत और हौसलों को नहीं। हालांकि ये और बात है कि इसी आज़माइश के नतीजे में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को एक नायाब गीतकार मिला था।

       साहिर के भीतर दुनिया से चोट खाया हुआ एक मासूम नौजवान ताउम्र ज़िंदा रहा। जिसने मुहब्बत की बात की तो उसी शिद्दत से, जिस शिद्दत से 18—20 साल के नौजवान का बेसाख्ता धड़कता दिल करता है। समाज के दोगलेपन पर चोट की तो उसी खौलते हुए लहू के साथ की, जो किसी क्रांतिकारी की रगों में दौड़ता है। और नैराश्य पर लिखा तो वैसे ही जैसे जंग में हारा हुआ कोई सिपाही कहता होगा। वो किसी से रूठे तो भी उसी नौजवान की तरह, जो छोटी-सी बात को दिल से लगा बैठता है। लता मंगेशकर और साहिर के बीच पनपी नाराज़गी इस बात की मिसाल है।

      यह एक संयोग ही है कि साहिर का जन्मदिन 8 मार्च को आता है। जिसे साल 1975 से अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के रुप में मनाया जाता है। इस सिलसिले में वो साहिर ही हैं, जो कह सके “औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया”। तल्ख़ मिज़ाजी, उखड़ापन और उससे हासिल हुआ गहरा फ़लसफ़ा साहिर की ज़हनी पहचान थी। अपनों से मिली दग़ा, समाज की हिक़ारत और नाकाम पहली मुहब्बत। साहिर के ज़ेह्न पर सदा छाये रहने वाले ये वो बादल थे, जिनके घनीभूत होने पर जब बूंदें बरसती थीं, तो ऐसे गीत का चोला पहन कर बरसती थीं, जिसे बरसो-बरस तक भुलाना नामुकिन था और रहेगा।

मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा

18/02/1979 को मुलताई (म.प्र.) में जन्मी अपर्णा पात्रीकर की पारिवारिक रुचियां साहित्य और संगीत की रहीं तो यह सहज रुझान रहा, जिसका लेखकीय स्वरूप पिछले एक दशक में सामने आया। एम.ए. इकोनॉमिक्स और पी.जी. डिप्लोमा इन मास कम्युनिकेशन के साथ फ्रीलांस स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर ईटीवी, म.प्र. माध्यम, जनसंपर्क और वन्य प्रकाशन के लिए काम किया। इन दिनों ग़ज़ल, कविता और समसामयिक विषयों पर लेख। पहली कृति "ज़ुबान-ए-बेज़ुबानी" उर्दू अकादमी की ओर से 2025 में प्रकाशित। हंस, अभिनव इमरोज़, कला समय, सदीनामा, हिंदुस्तानी ज़ुबान आदि पत्रिकाओं, ट्रिब्यून, हिंदुस्तान, राजस्थान पत्रिका आदि समाचार पत्रों तथा अश्रुतपूर्वा एवं आब-ओ-हवा ई पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *