
- June 30, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
मुहब्बत कर लो जी, कर लो अजी किसने रोका है
एक थे सरदार दलीप सिंह, उनका सही नाम दिलीप सिंह था पर वे अपने को दलीप सिंह ही कहते थे। पंजाबी में छोटी इ की मात्रा न बोलने का चलन है। तो दलीप सिंह जी बूढ़े हो चले थे पर उनका उठना बैठना बच्चों और हम युवाओं के बीच ज़्यादा था, कारण उनका फ़िल्मी ज्ञान व उसे कहने का ढंग। सरदार दलीप सिंह आम बूढों की तरह माया मोह त्याग कर संत बनकर जीना पसंद नहीं करते थे, वे ज़िंदादिल इंसान थे। फ़िल्में देखते थे, उनकी चर्चा भी करते, हम सब भी उनको बड़ी रुचि से सुनते क्योंकि वे केवल फ़िल्म, हीरो, हीरोइन के क़िस्से बस नहीं सुनाते उसमें इतिहास, राजनीति, सामाजिक बातों को भी समेट लेते।
ख़ैर शाम का वक़्त है, चौक पर हैलोजेन लाइट के उजाले में चाय की टपरी पर हम सब के गोल घेरे के बीच सरदार जी ने बोलना शुरू किया, हुमायूं का नाम सुना है? सभी ने हामी भर दी, वह भी बेचारी हुमायूं की तरह अपने पिता के प्रति बहुत ईमानदार रही और उसकी क़ीमत भी उसे चुकानी पड़ी। कौन? (हम सभी ने उत्सुकता के साथ पूछा) ‘थी एक हीरोइन, नाम था मधुबाला। -वो कैसे?- देखो हुमायूं के बारे में क़िस्सा है कि वह अपने पिता के कारण जीवन भर परेशान रहा। वैसे ही मधुबाला ने भी अपने पिता के कारण ही कई कष्ट उठाये, सरदार जी की बातें इसलिए भी हमें रोचक लगतीं कि वह अपनी बातों में कुछ इस तरह से रहस्य घोल लेते कि उसे सुनने को हर कोई उस ओर खिंचा चला जाता।
उन्होंने आगे कहना शुरू किया, हुमायूं ने अपने मरते पिता को वचन दिया था कि वह जीवन भर अपने सभी भाइयों की मदद करेगा, जबकि हुमायूं के भाई जीवन भर उसके ख़िलाफ़ चालें चलते रहे। हुमायूं की तरह मधुबाला भी अपने पिता के प्रति ईमानदार रही, उसका यही ईमानदार होना उसे बहुत भारी पड़ा, मधुबाला का पिता अताउल्लाह यह तो जानता ही था कि मधुबाला ख़ूबसूरत है। वह यह भी जानता था मधुबाला परिवार और उसके प्रति हद दर्जे तक ईमानदार हैं। लिहाज़ा अताउल्लाह ही मधुबाला के सारे फ़ैसले करता। फ़िल्म ही नहीं, कहीं आने जाने से लेकर, शादी ब्याह, मेलजोल तक.. हर चुनाव अताउल्लाह ही करता। तो हुआ यूं मधुबाला और दिलीप कुमार की शादी तय हो गयी थी, दोनों एक दूसरे को ख़ूब पसंद भी करते थे पर अताउल्लाह की ज़िद के कारण टूट गयी।
मधुबाला की प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना था मशहूर संगीतकार मदन मोहन के पिताजी रायसाहब चुन्नी लाल ने, जिनसे मधुबाला की पहली मुलाक़ात एक रेडियो स्टेशन पर हुई थी। तब मधुबाला का नाम था “मुमताज़ जहां देहलवी”। उन्हीं के कारण मधुबाला का देविका रानी से मिलना हुआ और ‘बसंत’ फ़िल्म में काम मिला। इस फ़िल्म में मधुबाला ने दो गाने भी गाये थे, ‘सरदार जी आपको मधुबाला पसंद थी क्या?’ मेरी बात सुनकर सब लोग हंस पड़े, सरदार जी मुस्कुराने लगे फिर बोले मुझे मधुबाला की दो फ़िल्में अच्छी लगीं। ‘महल’ तो मैंने और मेरे साथियों ने कई बार देखी। दूसरी फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’। इस फ़िल्म का वह गाना “प्यार किया तो डरना क्या”, वास्तव में, एक कनीज़ (मधुबाला) का बादशाह अकबर (पृथ्वीराज कपूर) के दरबार में सत्ता को खुली चुनौती देने का प्रतीक था। इस गीत का होना उस ज़माने में एक क्रांतिकारी बात थी। यह इसलिए भी संभव हो सका कि देश में प्रजातंत्र आ चुका था, इस गाने के महत्व को इस तरह से समझा जा सकता है कि गांव के बड़े बूढ़े चाहते थे, यह गाना कोई न सुने जबकि हर जवान ख़ासकर लड़कियां इस गाने को छुपकर सुनतीं और गुनगुनाती थीं। प्रेम संबंधों में खुलापन भी आया, और दबे छुपे प्रेम करने वालों को साहस भी मिला। इस फ़िल्म के किरदार में मधुबाला ने डूबकर काम किया, एक कारण इस फ़िल्म की कहानी की तरह मधुबाला और दिलीप कुमार के प्रेम संबंध के बीच अताउल्लाह का आना भी था।
हालांकि मधुबाला को सबसे ज़्यादा दर्द मिला किशोर कुमार से। शादी के बाद किशोर और मधुबाला विदेश गये, वहां इलाज के दौरान पता चला कि मधुबाला कुछ ही दिनों की मेहमान है। विदेश से लौटकर किशोर ने मधुबाला को एक मकान खरीदकर दिया। स्वास्थ्य संबंधी सभी सुविधाओं के लिए पैसे भी पर मधुबाला को उस वक़्त जिस भावनात्मक लगाव की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, वह किशोर कुमार से उन्हें नहीं मिला। लगभग 36 साल की छोटी सी उम्र में ही एक अच्छी अदाकारा के साथ ही खुशमिज़ाज अदाकारा ने अंतिम सांस ली- “मुहब्बत कर लो जी कर लो अजी किसने रोका है, पर बड़े ग़ज़ब की बात है इसमें भी धोखा है”। सरदार क़िस्सा कहते-कहते अचानक यह गाना गाते हुए घर को निकल पड़े, उनके बाद हम लोग भी घर आ गये। आज लगा सरदार जी मधुबाला के बहाने जीवन की सच्चाई कह रहे थे।

मिथलेश रॉय
पेशे से शिक्षक, प्रवृत्ति से कवि, लेखक मिथिलेश रॉय पांच साझा कविता संग्रहों में संकलित हैं और चार लघुकथा संग्रह प्रकाशित। 'साहित्य की बात' मंच, विदिशा से श्रीमती गायत्री देवी अग्रवाल पुरस्कार 2024 से सम्मानित। साथ ही, साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका "वनप्रिया" के संपादक।
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