
- April 26, 2025
- आब-ओ-हवा
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उर्दू के शाहकार
फ़साना-ए-आज़ाद
डॉक्टर मो. आज़म
“आपने ‘फ़साना-ए-अज़ाद’ क्या लिखा, ज़बान-ए-उर्दू के हक़ में मसीहाई की है।”
-अब्दुल हलीम शरर
“उर्दू ज़बान समझने के लिए ‘फ़साना-ए-आज़ाद’ पढ़ना चाहिए।”
– बेगम सालहा आबिद हुसैन
पण्डित रतननाथ सरशार कश्मीरी का सबसे बड़ा कारनामा ‘फ़साना ए आज़ाद’ है। यह एक लंबा नावेल है जिसके चार भाग हैं। और यह नावेल विधा के प्रारंभिक काल का स्मृति चिन्ह भी है। ये नावेल 1878 में लिखा गया था। शुरू में ये अवध अख़बार में ‘ज़राफ़त’ के शीर्षक से क़िस्तवार एक साल तक लगातार छपता रहा। 1880 मैं पहली बार उसे मुंशी नवलकिशोर ने किताबी शक्ल में प्रकाशित किया। ये उर्दू अदब में क्लासिक का दर्जा रखता है। तक़रीबन डेढ़ सदी के बाद भी उतना ही लोकप्रिय है। इसमें लखनवी तहज़ीब की भरपूर नुमाइंदगी है। लखनऊ की संस्कृति और इसका हर नागरिक इसमें मिल जाएगा।
ये नावेल क़िस्तवार छपता रहा इस लिए यह क़िस्तों में छपने वाला उर्दू का पहला नावेल है। इसमें एक आम नावेल की तरह न पात्रों का चित्रण है न इसका कोई प्लॉट है, न घटनाओं में निरंतरता। इस कारण आलोचकों ने इसे “सहाफ़ती नावेल”(निबंधात्मक उपन्यास) का नाम दिया, जिसे अंग्रेज़ी में सीरियल फ़िक्शन कहते हैं।
पण्डित रतननाथ सरशार का कमाल ये है कि जैसा पात्र वैसी भाषा का ध्यान रखा है। ख़ाकरूब (मिहतर, भंगी) से लेकर नवाब तक और कंजरों से लेकर बेगमात तक हर वर्ग की भाषा है और उनके बोल-चाल का अंदाज़ बरता गया है। पूरब की ठेठ कहावतें मिलती हैं। अब इस नावेल की ये ख़ूबी कहिए या ख़ामी कि इसमें निरंतरता की कमी है। किरदार आते हैं और फिर कहीं खो जाते हैं। एक घटना शुरू होती है फिर कोई दूसरी हो जाती है। इस नावेल को उर्दू नावेल का पत्रशीर्ष कहा जा सकता है। एक बड़ा फ़नकार जो कुछ लिखता है, वही विधान बन जाया करता है। ये नावेल एक महान रचनात्मक मस्तिष्क की उपज है। लखनऊ के उस दौर में मौजूद विलासिता, धार्मिक मान्यताओं सहित संस्कारों को सच्चाई से प्रस्तुत किया गया है।
किरदारों में हीरो आज़ाद, हीरोइन हुस्न आरा के इलावा, खोजी है जो एक चपल विदूषक है। जिसका असल नाम बदीउल्ज़मां है। हुमायूँ फ़र्र, सिपहर आरा, अल्लाह रखी उर्फ़ सुरैया बेगम, पुलिस कांस्टेबल, चोर-उचक्के, चुंगी के मुहर्रिर, रेलवे का बाबू, ठाकुर साहिब, अंग्रेज़ी ग्रैजुएट, न्यू फ़ैशन के मुसलमान, तवाइफ़ें वग़ैरह वग़ैरह हैं। लखनऊ के सभी वर्गों के नुमाइंदा पात्र हैं।
हास्य-व्यंग्य से बहुत काम लिया गया है। ख़ास उसके लिए खोजी का किरदार ईजाद किया है। हर पात्र अय्याश और तमाशबीन है। हीरो भी इसी तरह का है, जो है कुछ भी नहीं लेकिन ख़ुद को समझता बहुत कुछ है। बहरहाल नावेल में बड़ी सत्यता से तमाम स्थितियों को प्रस्तुत किया गया है, कहीं भी बनावट या अतिरेक का आभास नहीं होता।
पण्डित रतननाथ धर ‘सरशार’
पण्डित सरशार 1846 में लखनऊ में एक कश्मीरी घराने में पैदा हुए। उनके पिता का नाम पण्डित बैजनाथ धर था, जो लखनऊ के संभ्रांत लोगों में थे। हास्य बोध और वाकपटुता प्रसिद्ध थी। अरबी फ़ारसी में महारत और अंग्रेज़ी से वाक़फ़ियत हासिल कर एक स्कूल में शिक्षक हो गये। साहित्यिक रचनाओं के साथ अख़बारों के लिए लेख लिखने लगे। जल्द ही प्रसिद्धि हासिल हो गयी। 1878 मैं अवध अख़बार के संपादक हो गये। ‘फ़साना-ए-आज़ाद’ लिखने का सिलसिला यहीं से हुआ। इसके इलावा कई और पुस्तकें और अनुवाद प्रसिद्ध हैं। दुर्भाग्य से शराब की आदत ऐसी पड़ी जिसने आख़िर उन्हें ख़ुद में ही डुबो दिया और 21 जनवरी 1903 को हैदराबाद में स्वर्ग सिधार गये।

डॉक्टर मो. आज़म
बीयूएमएस में गोल्ड मेडलिस्ट, एम.ए. (उर्दू) के बाद से ही शासकीय सेवा में। चिकित्सकीय विभाग में सेवा के साथ ही अदबी सफ़र भी लगातार जारी रहा। ग़ज़ल संग्रह, उपन्यास व चिकित्सकी पद्धतियों पर किताबों के साथ ही ग़ज़ल के छन्द शास्त्र पर महत्पपूर्ण किताबें और रेख्ता से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ल विधा का शिक्षण। दो किताबों का संपादन भी। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी सहित अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मानित, पुरस्कृत। आकाशवाणी, दूरदर्शन से अनेक बार प्रसारित और अनेक मुशायरों व साहित्य मंचों पर शिरकत।
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