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ग़ालिब भी थे इस लेखक के मुरीद

            “लखनऊ में “फ़साना अजाइब” घर-घर पढ़ा जाता और औरतों, बच्चों को कहानी के तौर पर सुनाया करती थीं, बार-बार पढ़ने से इसके जुमले, फ़िक़रे ज़बानों पर चढ़ जाते।” -शम्सुद्दीन अहमद

“फ़साना अजाइब का दीबाचा इसलिए और भी दिलचस्प है कि इसमें इस ज़माने की शहर लखनऊ की सोसाइटी, वहां की तर्ज़ ए मुआशरत (जीवन शैली), उमरा-ए-औरूसा (समृद्ध लोगों) की वज़ादारियों (शिष्टाचारों), उनके पुरतकल्लुफ़ जलसों (असाधारण सभाओं), शहर के रसूम-ओ-रिवाज (रीति), खेल तमाशों, दिलचस्प मुनाज़िर (दृश्यसमूह), मुख़्तलिफ़ (विभिन्न) पेशों और अहल-ए-कमाल (कलाओं में निपुण) के हालात, बाज़ारों की चहल पहल, सौदा फ़रोशों की आवाज़ों वग़ैरा वग़ैरा की दिलकश और जीती-जागती तस्वीरें हैं।” -रामबाबू सक्सेना

“फ़सान-ए-अजाइब” प्राचीन गद्य लेखन का बेहतरीन नमूना है। ज़्यादातर गद्यांश काफ़िएदार हैं और लेखनशैली बेहद दिलकश। प्रतीकात्मक शब्दों की सजावट और विचारों व कल्पनाओं की गहराई से सुसज्जित है। उस दौर की फ़ारसी, क़फियादार लेखनशैली को बरक़रार रखा गया है। फिर भी भाषा दो तरह की इस्तेमाल हुई है। कहीं कहीं आसान और मुहावरादार और कहीं पेचीदा और गरिष्ठ जिसको समझने के लिए पाठक को उस दौर के माहौल को समझना ज़रूरी हो जाता है।

बहरहाल इसमें हिन्दू समाज के प्रभाव तले पनपने वाले मुस्लिम समाज की बेहतरीन तर्जुमानी की गयी है तथा उस काल की लखनवी संस्कृति का यह दस्तावेज़ है। दास्तान काल्पनिक है और जादुई रेगिस्तानों, जादूगरों की लड़ाइयों और इस प्रकार के बहुत से अविश्वसनीय प्रसंगों से भरी पड़ी है, जो बच्चों का दिल तो बहला सकती है मगर बड़े लोग इसे लेखन शैली से आनंदित होने के लिए पढ़ते थे। अंग्रेज़ी के बहुत से शब्द भी जहां तहां हैं जो शायद पहली बार उर्दू अदब में प्रयोग हुए। उसके पात्र विदेशी और अलौकिक हैं लेकिन लेखक ने उनका माहौल हिन्दुस्तानी और ख़ासतौर से लखनवी रखा है। उनकी नज़र में लखनऊ दुनिया का सबसे बेहतरीन शहर बल्कि स्वर्ग जैसा है। उनकी ज़िंदगी अधिकतर वहीं गुज़री, लिहाज़ा इस शहर की गली कूचों, नानबाइयों (रोटी बनाने वालों), मिठाईयों और खानों का ज़िक्र उस ढंग से करते हैं कि महसूस होने लगता है कि हम ख़ुद उन बाज़ारों में पहुंच गये हैं और जीते-जागते पात्रों को अपने अपने काम में व्यस्त देख रहे हैं।

क़ाफ़िया-बंदी का एक उदाहरण देखिए- “इस रात की बेक़रारी, गिर्ये-ओ-ज़ारी, अख़्तर-शुमारी, शहज़ादे की क्या कहूं हर घड़ी बहाले परीशाँ, सू-ए-आसमाँ, मुज़्तर निगरां था कि रात जल्द बसर हो। नुमायां रुख़-ए-सहर हो।”

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कुछ लोगों ने उसे “गुलशन नौ-बहार” का अनुकरण भी बताया जिसे “महजूर” ने लिखा था। मगर ये बहुत मशहूर किताब साबित हुई और इसकी लोकप्रियता को देखते हुए कई शाइरों ने इसका पद्यात्मक अनुवाद भी किया। जैसे तराना ग़राइब, फ़साना अजाइब मंज़ूम, बाग़ फ़िर्दोस वग़ैरा। “ग़ालिब” ने भी सरवर को अपने समय का बेहतरीन गद्य लेखक स्वीकार किया है। इस किताब का केंद्रीय पात्र शहज़ादा जान-ए-आलम है। इसके इलावा शहज़ादी अंजुमन आरा, महर निगार, माह-ए-तलअत, वज़ीरज़ादा, चिड़ीमार की बीवी आदि दूसरे अहम किरदार हैं।

रजब अली बेग सरवर

1786 को लखनऊ में पैदा हुए और 1867 को बनारस में देहांत हुआ। पिता का नाम मिर्ज़ा असग़र अली बेग था और एक संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखते थे। कुछ लोग उनका वतन अकबराबाद यानी आगरा बताते हैं। सुरूर को उर्दू और फ़ारसी पर पूरी तरह से अधिकार प्राप्त था। ख़ुशनवीसी (कलात्मक लिखावट) और संगीत में भी निपुण थे। मगर विशिष्ट गद्य लेखन के मोह के कारण दूसरी विधाओं में अपना कमाल नहीं दिखा सके।

azam

डॉक्टर मो. आज़म

बीयूएमएस में गोल्ड मे​डलिस्ट, एम.ए. (उर्दू) के बाद से ही शासकीय सेवा में। चिकित्सकीय विभाग में सेवा के साथ ही अदबी सफ़र भी लगातार जारी रहा। ग़ज़ल संग्रह, उपन्यास व चिकित्सकी पद्धतियों पर किताबों के साथ ही ग़ज़ल के छन्द शास्त्र पर महत्पपूर्ण किताबें और रेख्ता से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ल विधा का शिक्षण। दो किताबों का संपादन भी। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी सहित अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मानित, पुरस्कृत। आकाशवाणी, दूरदर्शन से अनेक बार प्रसारित और अनेक मुशायरों व साहित्य मंचों पर शिरकत।

5 comments on “ग़ालिब भी थे इस लेखक के मुरीद

  1. रोचक शैली में अच्छा आलेख। ऐसी जानकारियां प्रायः सबको नहीं होतीं। मुझे भी नहीं थीं। यह इस हिसाब से भी शानदार है।

  2. रोचक शैली में अच्छा आलेख। ऐसी जानकारियां प्रायः सबको नहीं होतीं। मुझे भी नहीं थीं। यह इस हिसाब से भी शानदार है।

  3. रोचक शैली में लिखा संक्षिप्त किन्तु ज्ञानवर्धक शानदार आलेख है।

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