ग़ज़ाला तबस्सुम

ग़ज़ल अब

1
अनजान इक जहां में उतारा गया हमें
पहना के सुर्ख़ जोड़ा सँवारा गया हमें

आंखों को मूंदकर उन्हीं राहों पर चल दिये
जिन रास्तों से जैसे गुज़ारा गया हमें

डरने लगा था हमसे हमारा वजूद ही
जब एक शय की तरह निहारा गया हमें

बाहर निकलना चाहा कभी तोड़ कर हिसार
क्या-क्या न कहके फिर तो पुकारा गया हमें

देना पड़ा है हमको हर इक युग में इम्तिहान
त्यागा गया कभी, कभी हारा गया हमें

लाज़िम है इक सवाल हमारा जहान से
मां के शिकम में किसलिए मारा गया हमें

आने को हैं हज़ार अभी और मुश्किलें
ये वक़्त आज करके इशारा गया हमें

—————–******—————–

2
ख़्वाब रखती थीं बड़े आँखें थीं छोटी छोटी
बातें बचपन की कई यादें हैं भीगी भीगी

घर पे मर्दों की हुकूमत ही हुआ करती थी
औरतें घर की सभी रहती थीं सहमी सहमी

घर की चौखट को कभी लांघ न पाईं माएं
साड़ियां बक्सों की ज़ीनत रहीं महंगी महंगी

सिसकियां महलों से भी आती थीं कुटिया से भी
कह दिया करती थीं सब चूड़ियां टूटी टूटी

साल दो साल में ही आती थी बेटी पीहर
आँखें धुंधली सी लिये औ हंसी फीकी फीकी

सख़्त थी रस्मों रिवाजों की वो ज़ंजीर बहुत
दायरा तोड़ के बढ़ पाती थी कोई कोई

ग़ज़ाला तबस्सुम

ग़ज़ाला तबस्सुम

साहित्यिक समूहों में छोटी-छोटी समीक्षाएं लिखने से शुरू हुआ साहित्यिक सफ़र अब शायरी के साथ अदबी लेखन और प्रेरक हस्तियों के साथ गुफ़्तगू से लुत्फ़अंदोज़ हो रहा है। एक ग़ज़ल संग्रह ने अदब की दुनिया में थोड़ी-सी पहचान दिलायी है। लेखन में जुनून नहीं, सुकून की तलाश है। आब-ओ-हवा के पहले अंक से ही जुड़े होना फ़ख़्र महसूस कराता है।

5 comments on “ग़ज़ल अब

  1. Ghazala ji is my favourite poet and her shayari is of very high standard but written in very simple words. Her ghazals are relatable and the content is taking from daily life and our surroundings.Wishing her more laurels in her literary career.

  2. बहुत शानदार, कमाल स्त्री विमर्श की रचनाएं, ग़ज़ाला जी बहुत बहुत बधाई आपको

  3. “ग़ज़ल अब” में सम्पूर्ण स्त्री जाति की पीड़ा को समेटे हुए दोनों ही रचनाएं अति उत्तम है.
    देना पड़ा है हमको हर इक युग में इम्तिहान
    त्यागा गया कभी, कभी हारा गया हमें..
    इसमें तो युग-युगान्तर को समेट लिया है.

    तथाकथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता के वर्तमान दौर में –
    सख़्त थी रस्मों रिवाजों की वो ज़ंजीर बहुत
    दायरा तोड़ के बढ़ पाती थी कोई कोई..

    ये भी कम नहीं – बधाई!

  4. स्त्री की विवशताओं और उसके प्रति समाज के नजरिये को बड़ी नाजुकी और रवायती कलात्मकता के साथ खूबसूरत अंदाज़ में पेश किया. ग़ज़ाला जी को इसके लिए मुबारकबाद. लिखती रहें, दिन पर दिन बेहतर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *