1. लब पे पाबन्दी नहीं एहसास पे पहरा तो है फिर भी अहले-दिल को अहवाले-बशर कहना तो है अपनी ग़ैरत बेच डालें अपना मसलक़ छोड़ दें रहनुमाओं में भी कुछ लोगों को ये मन्शा तो है है जिन्हें सब से ज्यादा दावा-ए-हुब्ब-ए-वतन आज उनकी वजह से हुब्ब-ए-वतन रुस्वा तो है बुझ रहे हैं एक-एक कर के अक़ीदों के दिये इस अन्धेरे का भी लेकिन सामना करना तो है झूठ क्यूं बोलें फ़रोग़-ए-मस्लहत के नाम पर जि़न्दगी प्यारी सही लेकिन हमें मरना तो है
2. मैं ज़िन्दा हूँ ये मुश्तहर कीजिए मिरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए ज़मीं सख़्त है आसमाँ दूर है बसर हो सके तो बसर कीजिए सितम के बहुत-से हैं रद्द-ए-अमल ज़रूरी नहीं चश्म तर कीजिए क़फ़स तोड़ना बाद की बात है अभी ख़्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर कीजिए
साहिर लुधियानवी
8 मार्च 1921 को जन्मे साहिर को प्रगतिशील शायरी का एक प्रकाशस्तंभ माना गया। उनकी ग़ज़लें और नज़्में अपने समय में एक नये तेवर का आग़ाज़ करती हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत की फ़िल्मी और अदबी शायरी में उनका अनूठा स्थान रहा है।