
- July 25, 2025
- आब-ओ-हवा
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साहित्य जगत में चर्चा है अंजुम शर्मा द्वारा ज्ञानरंजन के साक्षात्कार की। प्रतिक्रियाओं के बीच कुछ मुद्दों और प्रवृत्तियों को कठघरे में खड़ा करती है यह टिप्पणी।
विवेकरंजन मेहता की कलम से....
ज्ञानरंजन के अंतर्विरोध
नेताओं, कलाकारों की तरह साहित्यकारों की भी आदत होती है हमेशा लाइमलाइट में बने रहें। इन दिनों समय, ज़रूरत और सिस्टम बदल गया। अब कोई साहित्यकारों को भाव ही नहीं देता इसलिए उनके वाद-विवादों से फ़र्क भी नहीं पड़ता। 60 से 90 के दशक भी क्या दशक थे। रचना के ऊपर विचारधारा को हावी करने का खेल चल रहा था। आंदोलन पर आंदोलन चल रहे थे- नई कहानी, पुरानी कहानी, अकहानी, समानांतर कहानी, छायावादी कविता, नई कविता, अकविता, प्रगतिशील कविता। एक दूसरे के कपड़े खींचे/उतारे जा रहे थे। उस दौर में ज्ञानरंजन ने भी अपना स्थान बनाया था। कौन ज्ञानरंजन! अरे वही ‘पहल’ वाले, मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक के मठाधीश। वर्तमान पीढ़ी ने तो धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, कादम्बिनी जैसी देशव्यापी पहुंच रखने वाली पत्रिकाओं के बारे में भी नहीं सुना, तो उनके बारे में न जानें तो कोई बड़ी बात नहीं।
इन दिनों तो फेसबुक, ब्लॉग भी महत्व खो चुके हैं। अपनी-अपनी वेबसाइट और अपने-अपने हिमालयों पर लेखक बैठे हैं। भ्रांतियां पाले हुए। हिंदी क्षेत्र के सामान्य पढ़े-लिखे व्यक्ति से हिन्दी लेखक का नाम पूछो तो किसी ज़माने में लुगदी साहित्यकारों की लिस्ट में रहे रानू, गुलशन नंदा, ओमप्रकाश शर्मा जैसे लेखकों के नाम ज़्यादा लोग जानते थे, अब ज़्यादा से ज़्यादा कुमार विश्वास का नाम ले लेंगे। यह इस समय में समाज में हिंदी लेखकों की पहुंच की स्थिति है।
ऐसे में चर्चित होने की एक पुरानी परंपरा के अनुसार एक काल्पनिक पत्र ‘एक स्वर्गीय लेखक के नाम’ से एक वेबसाइट पर आया। उसमें ज्ञानरंजन और उनकी कहानी ‘घंटा’ पर कुछ आरोप थे। दूसरी वेबसाइट के ट्रस्टी ने जो उस लेखक के नाम पर पुरस्कार देते हैं, इसे हटाने का अनुरोध किया। बताते हैं कि मलिक के हस्तक्षेप के बाद उसे सेंसर कर दिया गया। इन सब झगड़ों में पुराने चावल ज्ञानरंजन और उनकी कहानी घंटा फिर चर्चा में आयी। वैसे, आम जनता को उनकी कहानी के नाम की तरह इस विवाद से फ़र्क नहीं पड़ा।
जबलपुर का ही असर होगा। रजनीश कहते थे कि मैंने जो कह दिया, वह अब मेरा नहीं रहा। उसे मैंने छोड़ दिया। इस तरह नामवर सिंह ने जिसे डेढ़ कहानी का कहानीकार कहा था, वह ज्ञानरंजन कहते हैं- मैंने जो कहानी लिख दी, उसे मैं फिर नहीं पढ़ता हूं। सुविधा और आरामतलबी के समय में विरोधाभास आदमी की बातों में उछल-उछलकर आते हैं। यही हालत ज्ञानरंजन के इंटरव्यू में रही। उम्र के आख़िरी पड़ाव पर जो आदमी अपनी विचारधारा के मुख्य वाक्य की अवधारणा को बताने में दो बार ग़लती करता है और कहने पर तीसरी बार सही करता है। इंटरव्यू में बताता है कि मैं प्लानिंग से काम करता हूं। क्या सवाल होंगे, क्या सवाल हो सकते हैं, उन पर सोचते हुए मैं कई रातों से सो नहीं पाया। उस आदमी को पहले मालूम है कि विवादित कहानी पर सवाल उठेंगे। वह कहानी नहीं पढ़ेगा? बार-बार अपने बारे में लिखवाये जा रहे शोध प्रबंधों पर व्याख्या करते वक़्त कहानी नहीं पढ़ता होगा? सुनना अजीब लगता है।
ज्ञानरंजन ‘पहल पुरस्कार’ यारी-दोस्ती में नहीं दिये जाते, का दावा करते हुए बताते हैं कि राजकुमार केसवानी के कहने पर उदय प्रकाश को डिप्रेशन से निकलने के लिए पुरस्कार दिया। विष्णु खरे के कहने पर पहले उनके गुरु को पुरस्कार दिया। पुरस्कार देकर जताना भी है और पुरस्कार के स्तर को बनाये रखने के लिए योग्यता पर दिया जाना भी बताना है। इस अंतर्विरोध को ढंकने के लिए शब्दों का खेल चाहिए ही। अपने को महान यदि जताना है, तो यह खेल अच्छे से खेलना पड़ता है। ज्ञान यही कर रहे होते दिखते हैं।
ज्ञानरंजन बार-बार अपने पिता के प्रति विद्रोह को रेखांकित कर अपने को ख़ास बताने का प्रयास करते रहे। उनका कहना है कि उनके गांधीवादी पिता ने मां से शादी के पहले कहा था कि शादी के बाद खादी के कपड़े पहनना पड़ेंगे। मां को इसमें आपत्ति नहीं थी। बेटे ज्ञान को यह अत्याचार लगा और विरोध का एक कारण भी रहा। ज्ञानरंजन की पत्नी को सोने के गहने नहीं मिलते या नहीं पहना। इस पर उनका बेटा/बेटी रीढ़ की हड्डी तानते तो ज्ञान उस पर भी ज्ञान देकर अपने को सही सिद्ध कर रहे होते। महान नेताओं, महान साहित्यकारों के यही तो गुण हैं।
बड़ी-बड़ी प्रगतिशीलता की बातें और पहल पुरस्कार को अभी तक किसी महिला या दलित लेखक को न देने के सवाल पर बगलें झांकते हुए दिखते हैं। पर अपने को ग़लत नहीं मानते।
बिना किसी संदर्भ के अपने जिगरी दोस्त स्व. दूधनाथ की पहली पत्नी के बारे में इस तरीक़े से रहस्य उद्घाटन करते हैं जैसे वह बात का मुख्य मुद्दा है। और इस बहाने खुद पर लग रहे, पूछे जा रहे कठिन सवालों से बच जाएं। नामवर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे होंगे। सही भी होंगे। मगर बेवजह उन पर बात कर, इस तरह से बात कर कि नामवर की लाइन को छोटी करने का प्रयास कर रहे हैं, साफ़ ही दिखता है। पर इससे ज्ञानरंजन की लाइन बड़ी नहीं होती। ओछापन दिखलाती है।
बातों में विरोधाभास, स्वार्थीपन वहां भी झलकता है, जब आप अपने काम के लिए सरकारी अधिकारियों का उपयोग करने में हिचकते नहीं पर अपनी टांग ऊंची रखने के लिए अपने विरोध को जताकर बड़ा दिखाने का प्रयास करते हैं। आप इतने ही खुद्दार हैं तो वर्तमान समय में जब बोलने की ज़्यादा ज़रूरत है, खोल में क्यों है? उम्र के इस पड़ाव पर आपके पास खोने को क्या है!
स्वर्गीय मलयज के बारे में उनका कहना है कि कवि अपने आगे की व्यवस्था करके मरा। मलयज के लड़के संजुल ने एक दूसरे चैनल के इंटरव्यू में बताया कि पिता की कविता पुस्तक को पहल प्रकाशन ने छापा, परंतु उसकी समीक्षा को प्रकाशित नहीं किया। बाद में पुस्तक की कुछ प्रतियां रद्दी में मिलीं। साहित्यकार कम राजनीतिज्ञ नहीं होते। उनकी राजनीति के खेल का मैं भी नज़दीक से जानकार रहा हूं इसलिए जानता हूं कि ऐसा होता है। 80 के दशक में डॉक्टर मंगल मेहता के बांछड़ा जनजाति पर लिखे गये उपन्यास ‘मालजादी’ को लेखकीय राजनीति का शिकार बनाया गया। उसके प्रकाशक, लेखक उज्जैन के श्री हरीश निगम को एक साहित्यकार-राजनेता, जो उनके प्रकाशन की पुस्तकों की सरकारी खरीदी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, के कहने पर रद्दी में किताबें बेचना पड़ीं। इसलिए संजुल का आरोप ग़लत नहीं लगता। ज्ञानरंजन यदि दमदार, विचारक, विचारधारा के प्रवर्तक हैं, तो चाहे अब कविता न लिखें, कहानी न लिखें पर वर्तमान समय पर तो लिखें।

विवेकरंजन मेहता
शिक्षा से सिविल इंजीनियर। पेशे से अध्यापक रहे। "क़िस्से बदरंग कोराना के संग", "बैताल कथाएं", "बेमतलब की" जैसे कॉलम थोड़े बहुत चर्चा में रहे। छुटपुट कहानी, कविता आकाशवाणी से प्रसारित होती रही और प्रकाशित भी होती रहती है। कोई पुस्तक, कोई पुरस्कार नहीं।
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