हिंदी पर हंगामा

हिंदी पर हंगामा

               तमिलनाडु से लेकर महाराष्ट्र तक भाषाई विवाद चरम पर है। इन सबमें साझे तौर पर निशाने पर है अपनी हिंदी। वही हिंदी, जो विश्व की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा होने के साथ-साथ संविधान में देश की आधिकारिक भाषा का दर्जा लिये हुए है। आठवीं अनुसूची में शामिल सभी बाइस राष्ट्रीय भाषाओं में से किसी एक पर बार-बार हंगामा बरपता है तो वो हिंदी है। राजनीति को शायद यही रास आता है, वरना तो हिंदी अपने ही इलाक़े में तिरस्कृत जीवन जीने को मजबूर है।

भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा नीति कैसी हो? इस पर दशकों से विवाद और विमर्श होता रहा है। ‘बांटो और राज करो’ की औपनिवेशिक नीति का हथियार केवल जाति और धर्म ही नहीं बने, भाषा के मतभेद को भी इसमें ख़ूब भुनाया गया। हिंदी को हिंदुओं की तो उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहकर प्रचारित किया गया। इसका व्यापक असर भी हुआ। मुस्लिम लीग ने उर्दू तो हिन्दू महासभा और कई संगठनों ने हिंदी का पक्ष लेते हुए ‘हिंदी, हिन्दू, हिंदुस्तान’ का नारा देकर खाई चौड़ी की। इन सबके बीच महात्मा गाँधी, पंडित नेहरू जैसे लोग दोनों भाषाओं के संयोजन से निर्मित ‘हिन्दुस्तानी’ की पैरवी करते रहे।

संविधान सभा में भी इस पर व्यापक बहस हुई। जहाँ उत्तर भारतीय प्रतिनिधि हिंदी को लेकर आग्रही दिखायी दे रहे थे, वहीं दक्षिण भारतीय प्रतिनिधि इसे लेकर आशंकित ही नहीं थे बल्कि इसे भाषाई वर्चस्व के रूप में देखते-समझते हुए इसका विरोध भी कर रहे थे। उनके लिए हिंदी जैसे नई-नवेली भाषा का दर्जा तमिल, कन्नड़, मलयालम जैसी प्राचीन भाषाओं से ऊपर तो नहीं ही हो सकता था। अंततः अनूठे प्रावधानों के रूप में सहमति बन सकी। राष्ट्रभाषा के दर्जे के मोह से उबरते हुए हिंदी को राजभाषा या आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया। अंग्रेजी को भी सह-राजभाषा के तौर पर बनाये रखा गया।

अंग्रेज़ी को बनाये रखने के पीछे पश्चिमी शिक्षा प्राप्त संविधान सभा के महत्वपूर्ण सदस्यों के अपने आग्रह थे, तो लंबी औपनिवेशिक विरासत की भी इसमें बेशक एक भूमिका थी। भारत का अभिजन तबक़ा इसे लेकर सहज तो था ही, इसे अपनी धमक बनाये रखने के हथियार के रूप में भी देखता था। ऊपर से देश के अन्य हिस्सों में उत्तर भारत के वर्चस्व और इसके हथियार के रूप में हिंदी को थोपे जाने को लेकर चले राजनीतिक-सामाजिक अभियानों ने न केवल विवाद को बढ़ाया बल्कि अंग्रेजी की अपरिहार्यता को भी स्थापित किया। आज विदेशी भाषा अंग्रेज़ी का विरोध कहीं नहीं है, विरोध है तो बस हिंदी का।

राष्ट्रीय पहचान, क्षेत्रीय आकांक्षाओं, अंतरराष्ट्रीय ज़रूरतों और बहुभाषी समाज की वास्तविकता के मध्य सामंजस्य बनाते हुए कोठारी कमीशन से लेकर नई शिक्षा नीति, 2020 ने शिक्षा में त्रिभाषा सूत्र पर ज़ोर दिया। इसमें जहाँ प्रारंभिक शिक्षा में मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा को माध्यम बनाने की बात शामिल है, वहीं माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा में देश की एक दूसरी भाषा सीखने और एक अंतरराष्ट्रीय भाषा सीखने पर ज़ोर दिया गया है। व्यावहारिक तौर पर, यहाँ दूसरी राष्ट्रीय भाषा के रूप में ग़ैर हिंदी प्रदेशों में हिंदी को अपनाने की अपेक्षा थी, वहीं अंतरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर पूरे देश में अंग्रेज़ी पर मुख्य तौर पर ज़ोर रहा।

अब यहाँ ध्यान देने वाली बात यह कि हिंदी प्रदेशों में जहाँ पहली भाषा के रूप में हिंदी ही व्यापक चलन में रही, वहीं दूसरी राष्ट्रीय भाषा सीखने के नाम पर नागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी की पूर्ववर्ती संस्कृत को पढ़ाया जाता रहा या बोलने-समझने में कमोबेश हिंदी जैसी ही पहचान रखने वाली उर्दू को जगह दी गयी। अंग्रेज़ी तो ख़ैर पूरे देश में व्यापक चलन में रही ही। त्रिभाषा सूत्र को हिंदी प्रदेशों में इस रूप में अपनाने से भी दक्षिण या दूसरे हिस्सों में कोई अच्छी भावना का प्रसार नहीं हुआ। तमिलनाडु सहित दक्षिण के अन्य राज्यों में हिंदी विरोध की राजनीति ख़ूब फलने-फूलने लगी। आजकल तो महाराष्ट्र भी इस दिशा में बहुत आगे जाता हुआ दिख रहा है।

alok mishra

आलोक कुमार मिश्रा

पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।

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