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(शब्द और रंग, दोनों दुनियाओं में बेहतरीन दख़ल रखने वाली प्रवेश सोनी हाल ही, क़रीब महीने भर की यूरोप यात्रा से लौटी हैं। कवि और कलाकार की नज़र से, आब-ओ-हवा के लिए अपनी इस यात्रा के कुछ विशिष्ट अनुभव क्रमबद्ध ढंग से वह दर्ज कर रही हैं। उनके शब्दों में ऐसी रवानी है कि शब्दों से ही चित्र दिखने लगते हैं। साप्ताहिक पेशकश के तौर पर हर बुधवार यहां पढ़िए प्रवेश की यूरोप डायरी - संपादक)

सैर कर ग़ाफ़िल...: एक कलाकार की यूरोप डायरी-8

           पेरिस से फ्रैंकफर्ट
           30/4/2025

हमारी यात्रा का एक पड़ाव ख़त्म हो गया। आठ दिन तक नये शहरों की ज़मीन, आसमां और हवा की ख़ुशबू लेकर हम फ्रैंकफर्ट लौट आये थे।

शनिवार, बिटिया ने अपने दोस्तों को हमसे मिलवाने और राजस्थानी खाना खिलाने के लिए घर बुला लिया। इनमें से कुछ तो भारतीय थे, जो बिटिया की तरह रोज़ी-रोटी के लिए परदेशी हो गये थे और कुछ वहीं के थे। मैंने उनके लिए दाल बाफले, बेसन गट्टे, लहसुन की चटनी और गट्टे के पुलाव जैसे व्यंजन बनाये। यहां किचन में भोजन बनाने के सभी उपकरण बिजली से चलते हैं, चूल्हा भी। आग की लौ जलती दिखायी नहीं देती। बाफले सेकने के लिए भी बिजली का ओवन था। मुझे उनको काम में लेने में थोड़ी असुविधा तो हुई लेकिन बिटिया ने मदद की और सभी व्यंजन बना लिये गये। मुझे नये उपकरण सीखने का भी अवसर मिला।

शाम को लगभग 5 बजे तक सात आठ दोस्त आ गये थे। सभी हमारे लिए कुछ न कुछ उपहार लेकर आये। वेलकम ड्रिंक के साथ आपस में परिचय हुआ। सभी मिलनसार और हॅंसमुख थे। जब सभी ने खाना शुरू किया तो उनके चटख़ारे भोजन की लज़्ज़त को बढ़ाने लगे। राजस्थानी भोजन तीखा मसालेदार और गरिष्ठ होता है। भारतीय तो वैसे चटपटा खा सकते हैं लेकिन गोरों के तो गाल गुलाल हो गये, फिर भी उन्होंने रुक-रुककर सभी चीज़ों का आनंद लिया। भोजन के साथ दोस्तों के हंसगुल्ले भी माहौल में मिठास घोल रहे थे।

मुझे अच्छा लगा यह सब देखकर कि परदेश में बेटी के साथ ‘अपने’ कहने वाले भी हैं, जो सामाजिक जीवन का अर्थ दे रहे थे। आठ बजे के बाद आवागमन के साधन (बस, ट्राम आदि) बंद हो जाते हैं, सो सभी ने जल्दी मिलने का वादा लेकर विदा ली।

दो दिन फ्रैंकफर्ट रुकने के बाद हमारा दूसरा दौरा जो हमें नया अनुभव देने वाला था। छोटी बेटी जो बर्लिन में रहती है, हमें उसके पास जाना था, वो भी अकेले क्योंकि बड़ी बेटी को ऑफिस जॉइन करना था। यात्रा का प्रारूप दोनों बेटियों ने अपने-अपने ऑफिस के शेड्यूल के अनुसार बनाया था। दो दिन बर्लिन घूमना, फिर वहीं से स्विटज़रलैंड जाना था, जहां बड़ी बेटी वीकेंड पर हमें मिलने वाली थी।

तय प्रोग्राम के अनुसार हम दोनों को ट्रेन द्वारा फ्रैंकफर्ट से बर्लिन पहुंचना था। सुबह से ही घबराहट हो रही थी। कारण था भाषा। क्या हम अकेले सही जगह उतर जाएंगे ट्रेन से? बेटियों ने समझाया कि इतने स्टेशन निकलेंगे, फिर आपको उतरना है। और जब आपका स्टेशन आएगा उसके पहले ही हम आपको फोन कर देंगे। अब यह डर कि यदि फोन में नेटवर्क नहीं रहा और सही समय पर बात नहीं हो पायी तो..!

ट्रेन के इंडीकेशन बोर्ड पर लिखा हुआ सब आ रहा था लेकिन स्पीकर की भाषा बिल्कुल समझ नहीं आ रही थी। ख़ैर हिम्मत की जोड़-तोड़ करके यात्रा जारी रखी। इशारों की बैसाखियों और टूटी-फूटी अंग्रेजी का भी सहारा लिया।

पास बैठे यात्री सब अपने-अपने डिवाइस के साथ व्यस्त थे। यहां कोई किसी से अनावश्यक बात नहीं करता है। मेरी विंडो सीट होने के कारण पास वाले भाईसाहब से इशारे में रास्ता देने का निवेदन किया। उन्होंने ‘ओह ओके’ कहकर मुझे वॉशरूम जाने दिया। वापिस आने पर भी यही क्रम दोहराया गया।

बर्लिन पहुंचने से पहले बेटी का फोन आ गया था और वो स्टेशन पर हमें लेने आ गयी थी।जैसे ही हम अपने कोच से बाहर आये बिटिया दौड़ती हुई हमारे गले लग गयी। प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े यात्रियों ने हमारे इस आत्मिक मिलन का अपनी प्यारी-सी मुस्कराहट से स्वागत किया। हमें यह लग रहा था कि हमने आज एक बड़ा टास्क पूरा किया है।

छोटी बेटी बर्लिन में प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में जॉब करती है। आते वक़्त उसने हमारे टिकट्स ले लिये थे ताकि हम संग्रहालय देख सकें। वैसे ज़्यादा समय नहीं था, 6 बजे संग्रहालय बंद हो जाता है लेकिन उसे देखने हम दुबारा नहीं आ सकते थे क्योंकि बेटी ने हमारे साथ घूमने के लिए एक सप्ताह की छुट्टियां ले ली थीं। म्यूज़ियम रेलवे स्टेशन के पास ही था, तो हम जल्द ही वहां पहुंच गये।

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अजूबे-सा अहसास

संग्रहालय में प्राणिविज्ञान, जीवाश्म विज्ञान और खनिज विज्ञान के दस हज़ार प्रकार के 30 मिलियन से अधिक नमूने हैं। दुनिया का सबसे बड़ा माउंटेड डायनासॉर (जिराफेटिटन कंकाल) और सबसे पुराने ज्ञात पक्षी, आर्कियोप्टेरिक्स का एक संरक्षित नमूना यहां के विशेष संरक्षण हैं।

डायनासॉर के कंकाल को विस्मयपूर्वक देख रही थी। मूवी में जिन्हें ज़िंदा देखा था, तब कल्पना लोक के जीव लगे लेकिन आज इतना विशाल अवशेष देखकर इनका होना स्वीकार किया। परिसर के भीतर और भी कंकाल थे। पशु-पक्षी, छोटे कीट से लेकर बड़े जीव भी बहुत सावधानीपूर्वक संरक्षित किये गये थे। समुद्री जीव हज़ारों की संख्या में थे, पोलर बियर, चिम्पांज़ी, ईगल, लेपर्ड, शेर… पूरा जंगल था यहां। विलुप्त प्रजातियों को भी यहां देखा जा सकता है।

इनके अलावा, उल्कापिंड के क़ीमती और असामान्य पत्थर भी यहां रखे हुए थे। खगोलीय विज्ञान के भी बहुत सारे नमूने यहां देखने को मिले। हालांकि मेरी शिक्षा उनको समझने में शून्य थी लेकिन यह ज़रूर समझ रही थी कि यह बहुमूल्य है और हमारी पृथ्वी से संबंधित है।

जल्दी-जल्दी जितना देख सकते थे, उतने विभाग देखे, कुछ छूट गये क्योंकि संग्रहालय बंद होने की सूचना सब जगह गूंज रही थी। मन में ख़ुशी भी थी और पूरा न देख पाने की कसक भी। लेकिन जितना देखा, वो यादगार था।

लौट चले फिर जहां बसेरा था। बेटी पीजी में रहती है तो उसने हमारे रुकने की व्यवस्था होटल में की थी। वहां पहुंचकर हमने किचन में खाना बनाया, सामान सब बेटी अपने साथ लेकर आयी थी। साथ में खाना खाया, फिर देर तक बातें की और दूसरे दिन की यात्रा का प्लान बनाकर सो गये।

अगले दिन घूमेंगे बर्लिन और देखेंगे यहां के और भी ऐतिहासिक स्थल।

क्रमशः

प्रवेश सोनी, pravesh soni

प्रवेश सोनी

कविता और चित्रकला, यानी दो भाषाओं, दो लिपियों को साधने वाली प्रवेश के कलाकार की ख़ूबी यह है कि वह एक ही दौर में शिक्षक भी हैं और विद्यार्थी भी। 'बहुत बोलती हैं औरतें' उनका प्रकाशित कविता संग्रह है और समवेत व एकल अनेक चित्र प्रदर्शनियां उनके नाम दर्ज हैं। शताधिक साहित्य पुस्तकों के कवर चित्रों, अनेक कविता पोस्टरों और रेखांकनों के लिए चर्चित हैं। आब-ओ-हवा के प्रारंभिक स्तंभकारों में शुमार रही हैं।

1 comment on “सैर कर ग़ाफ़िल…: एक कलाकार की यूरोप डायरी-8

  1. कमाल का लिखते हो ऐसा लगता है हम ही यूरोप घूमने गए
    इतना अच्छा और विशुद्ध दर्शन शायद हम ख़ुद जा कर भी ना कर पाते

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