मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊंगा

मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊंगा

           अहमद नदीम क़ासमी एक हरफ़न-मौला अदीब थे। उनके चाहे अफ़साने देख लीजिए, चाहे गज़ल़ें-नज़्में, पंजाब के देहातों की सुंदर अक्कासी दिखलायी देती है। उन्होंने शुरूआत में रूमानी ग़ज़लें लिखीं, लेकिन बाद में ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों को अपने अदब का मौजू़अ बना लिया। उनकी शायरी जहां इंसानी दोस्ती का जज़्बा जगाती है, तो वहीं उसमें आने वाले कल की खू़बसूरत तस्वीर भी है।

          अफ़साना – निगारी में वह प्रेमचंद के बाद एक बड़े अफ़साना-निगार के तौर पर उभरे। वहीं शायरी में उनका अहम कारनामा उर्दू अदब की रिवायत को क़ाइम रखते हुए, उसमें तरक़्क़ी-पसंद नज़रिया लाना था। वह अपनी रिवायत और मिट्टी से हमेशा जुड़े रहे। उर्दू अदब की क़दीम रिवायत के अलावा उन्होंने जदीद ग़ज़ल को भी अपनाया, बल्कि उसे आगे बढ़ाया। अहमद नदीम क़ासमी ने हर अंदाज़ की नज़्में लिखीं। उनके अदबी सरमाये में एक से बढ़कर एक नज़्में हैं। क़ासमी ने अदबी रिसाले ‘अदब-ए-लतीफ़’, ‘सबेरा’, ‘नुक़ूश’ और ‘फ़ुनून’ की एडिटिंग भी की। अपने इन अख़बारों और पत्रिकाओं से उन्होंने अदब को कई बेहतरीन अदीब दिये। उनकी रहनुमाई की। उर्दू अदब में उनका यह एक बड़ा कारनामा है, जिसे फ़रामोश नहीं किया जा सकता।

           अहमद नदीम क़ासमी की ग़ज़लों – नज़्मों का पहला मज्मू’आ साल 1942 में प्रकाशित हुआ।  वह इंसान-दोस्त शायर थे। उनकी शायरी में इंसानियत और भाईचारे का पैग़ाम है। ‘दावर—ए-हश्र! मुझे तेरी क़सम/उम्र भर मैंने इबादत की है/तू मेरा नामा-ए-आमाल तो देख/मैंने इंसां से मुहब्बत की है।’ वहीं नज़्म ‘रज्अत—परस्ती का नारा’ की शुरूआती लाइनें उनकी शायरी के अंदाज़, उनके शालीन लहजे और सोच की बेहतरीन मिसाल हैं, ‘अंधियारे में रहने वालो, अंधियारे के राज़ न खोलो/कांच से सपने टूट न जाएं, आहिस्ता-आहिस्ता बोलो।’

             अहमद नदीम क़ासमी ग़ुलाम मुल्क में अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ अवाम को बराबर बेदार करते रहे। शायरी में कभी मुखर होकर, तो कभी इशारों में उन्होंने अपनी बात कही। ‘हुक्मरानों ने उक़ाबों का भरा है बहुरूप/भोली चिड़ियों को जगाना भी तो फ़नकारी है/खेत आबाद हैं, देहात हैं उजड़े-उजड़े/इस तफ़ावुत को मिटाना भी तो फ़नकारी है।’ मुल्क का बंटवारा एक बड़ी ट्रेजडी थी। जिससे लाखों प्रभावित हुए। फ़िरक़ा-वाराना दंगों में हज़ारों लोग मारे गये। इंसानियत और सदियों का भाईचारा शर्मसार हुआ।पूर्वी और पश्चिमी पंजाब में जब फ़िरका-वाराना दंगे फैले, तो क़ासमी तमाशाई नहीं बने रहे। उन्होंने नज़्मों में इंसानियत मुख़ालिफ़ इन वहशी हरकतों की सख़्त मज़म्मत की। नज़्म ‘आज़ादी के बाद’ में उनका दर्द कुछ इस तरह ज़बान पर आया, ‘रोटियॉं बोटियों से तुलती हैं इस्मतों से सजी दुकानों पर/पेट भरने के बाद नाचता है ख़ून का जाइका ज़बानों पर।’

मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊंगा

           अहमद नदीम क़ासमी ने ग़ज़ल और नज़्म, दोनों अधिकार के साथ लिखीं। उनकी ग़ज़लें अपने ज़माने में तो मशहूर हुईं, आज भी ये उसी तरह पसंद की जाती हैं। उनकी ग़ज़ल की मक़बूलियत के पीछे उनका सादा अंदाज़ था। बिना भारी भरकम अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल किये बिना, वे ऐसी बातें कह जाते थे, जो सीधे दिल में उतर जाती हैं। ‘कौन कहता है, मौत आएगी तो मर जाऊंगा/मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊंगा।’ उन्होंने बेशुमार लिखा। नज़्म, ग़ज़ल, रुबाई, कतआ, अफ़साने, ड्रामे, मज़ाहिया कॉलम और सैकड़ों मज़ामीन। उनकी किताबों की तादाद तक़रीबन पचास के आस-पास होगी।

       ‘चौपाल’, ‘बगोले’, ‘तुलू व गुरुब’, ‘सैलाब’, ‘गरदाब’, ‘आंचल’, ‘आसपास’, ‘कपास के फूल’, ‘दर-ओ-दीवारी’, ‘सन्नाटा’, ‘बाज़ार-ए-हयात’, ‘बर्ग-ए-हिना’, ‘घर से घर तक’, ‘नीला पत्थर’, ‘कोह-ए-पैमां’, ‘पतझड़’ समेत उनके अफ़सानों की सत्रह किताबें और ग़ज़लों-नज़्मों की ‘रिमझिम’, ‘धड़कनें’ ‘जलाल-ओ-जमाल’, ‘शोला-ए-गुल’, ‘दश्त-ए-वफ़ा’, ‘अर्ज-ओ-समा’, ‘लौह ख़ाक’ समेत 8 किताबें प्रकाशित हुई हैं। 10 जुलाई, 2006 को लाहौर में नब्बे साल की उम्र में अहमद नदीम क़ासमी ने यह कहकर, इस जहान-ए-फ़ानी से अपनी आख़िरी रुख़्सती ली, ‘ज़िंदगी शम्अ की मानिंद जलाता हूँ ‘नदीम’/बुझ तो जाऊंगा मगर सुब्ह तो कर जाऊंगा।’

जाहिद ख़ान

जाहिद ख़ान

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से लेखन की शुरुआत। देश के अहम अख़बार और समाचार एवं साहित्य की तमाम मशहूर मैगज़ीनों में समसामयिक विषयों, हिंदी-उर्दू साहित्य, कला, सिनेमा एवं संगीत की बेमिसाल शख़्सियतों पर हज़ार से ज़्यादा लेख, रिपोर्ट, निबंध,आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित। यह सिलसिला मुसलसल जारी है। अभी तलक अलग-अलग मौज़ूअ पर पन्द्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ‘मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मिला है। यही नहीं इस किताब का मराठी और उर्दू ज़बान में अनुवाद भी हुआ है।

1 comment on “मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊंगा

  1. अँधियारों में रहने वालों, अँधियारे के राज़ न खोलो
    ,,,,
    क्या ख़ूब!

    शुक्रिया आब ओ हवा ,,,

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