
- June 8, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
भारत की 197 ऐसी भाषाएँ विलुप्त होने के कगार पर हैं, जिनकी परिपक्वता पर शक नहीं किया जा सकता। तब इस विलुप्तीकरण के कारण क्या हैं? इसके पीछे की सियासत क्या है? और समझ क्या है? क्या हम विदेशी कसौटियों को अपना रहे हैं? क्या हमारे अपने आधार पुनर्विचार की मांग करते हैं? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए दो भाषाविदों के विचार मदद करते हैं।
ख़त्म होंगी भाषाएं, भावनाएं भी मरेंगी
अल्पश्रुत भाषाओं की विद्वान एवं भाषाशास्त्री अन्विता अब्बी ने हाल ही एक लेख में लिखा, जबसे शिक्षा नीति में एक या अधिकतम दो भाषाओं को प्राथमिकता दी जाने लगी, बोली जाने वाली हमारी अन्य भाषाएँ हाशिये पर खिसकती चली गयीं। वह इन भाषाओं को कमतर मानने के पक्ष में क़तई नहीं हैं। उल्टे वह कहती हैं कि सरकार का रवैया पक्षपाती है और इसका सबूत देती हैं कि अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि 57 भाषाओं को हिंदी भाषा के अंतर्गत बोलियों के रूप में शामिल किया गया। इन 57 भाषाओं को भाषा का दर्जा नहीं दिया गया। ये सभी अवधी, ब्रज या राजस्थानी जैसी समृद्ध भाषाएँ हैं। सरकार 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को गिनती में ही नहीं लेती।
इससे पहले भाषा की राजनीति और मुद्दों को लेकर आब-ओ-हवा के अंक-27 में भाषाविद जी.एन. देवी का जो साक्षात्कार प्रस्तुत किया गया था, उसमें देवी ने भी यही बात मुखरता से कही थी। हिंदी को प्रमुख भाषा बनाये जाने के पीछे की बात बतलाते हुए उन्होंने कहा था :
“इसमें भोजपुरी शामिल है जो 5 करोड़ लोगों की मातृभाषा है और इसका अपना सिनेमा, थिएटर और साहित्य है। इसी तरह राजस्थान, हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा और बिहार की भाषाएं भी जोड़ी गयी हैं। यही नहीं, महाराष्ट्र की पावरी भाषा तक हिंदी समूह में समाहित कर दी गयी है। जबकि पावरीभाषी न तो हिंदी ठीक से समझते हैं और न ही हिंदीभाषी पावरी। अगर हिंदी में जोड़ दी गयी भाषाओं को हटाया जाये तो जिनकी मातृभाषा हिंदी है, वे लोग सिर्फ़ 32 प्रतिशत रह जाएंगे। यानी 70% आबादी को हिंदीभाषी नहीं कहा जा सकता है…”
कमज़ोर नहीं हैं मौखिक भाषाएं
यह बहुश्रुत सच है कि श्रुति परंपरा, वाचिक परंपरा में अनेक भाषाओं का अस्तित्व देश में रहा है। और काफ़ी समृद्ध रहा है। अधिकांश भाषाएँ मौखिक साहित्य के हस्तांतरण से सुरक्षित हैं, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 1,369 मातृभाषाएं हैं और इनमें से 800 मौखिक रूप में मौजूद हैं। इन भाषाओं को बोलने वाले अधिकतर लोग बहुभाषी हैं या एक से अधिक बोलियाँ बोलना जानते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक गीत, क़िस्से, संस्कार अनेक लोक भाषाओं में सदियों से सुरक्षित हैं, भले ही इन्हें लिपिबद्ध न किया गया हो। अन्विता के अनुसार ये सामाजिक दस्तावेज़ हैं, जो समाज के हर वर्ग के साथ को साधते हैं। यह वह ख़ज़ाना है जो लिखित साहित्य में नहीं है इसलिए हम मौखिक साहित्य को कभी नहीं मरने दे सकते।
देवी ने बताया था भाषाई सर्वे के दौरान अधिकतर ऐसी भाषाओं से उनका साक्षात्कार हुआ जिनका कोई लिखित स्वरूप है ही नहीं, केवल वाचिक परंपरा है। महाराष्ट्र में गोंधाली समुदाय की भाषा के उदाहरण से उन्होंने बताया कि एक व्यक्ति हवा में हाथ घुमा-घुमा कर वाक्य संप्रेषित करता है और दूसरा समझता है। यह अदृश्य लिपि पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हो रही है। एक और पहलू अन्विता ने इस तरह बयान किया है:
“बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत में 800 भाषाएं ऐसी हैं, जो कभी लिखी ही नहीं गयीं। हज़ारों सालों से यूं ही चली आ रही हैं। ये भाषाएं बेशक परिपक्व हैं। आम तौर से मान लिया जाता है जिस भाषा की कोई लिपि नहीं, वह कमज़ोर है। यह धारणा ग़लत है। कई भाषाएं इतने समय तक इसलिए बची हैं, क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही हैं। यही नहीं, इस सफ़र में उन्हें नये आयाम भी मिले हैं।”
अन्विता पुरज़ोर ढंग से कहती हैं कि बच्चों की शिक्षा का पहला चरण, स्कूल में हो या घर में, उनकी मातृभाषा में होना चाहिए ताकि वे ख़ुद को अभिव्यक्त करना सीखें, सहज रूप से। भाषाविदों की कुछ बातें नीति निर्माताओं तक पहुंचीं, तभी 2005 में अनौपचारिक तौर पर मातृभाषा के माध्यम से पठन-पाठन को शामिल किया गया था और नयी शिक्षा नीति में 2020 में शुरूआती कक्षाओं में मौखिक भाषा का उपयोग औपचारिक रूप से किये जाने को महत्व दिया गया।
भाषा के पैमाने की बात
भाषाओं पर काम या चिंतन करने वाली दुनिया भर की संस्थाओं के पास भाषा की परिपक्वता मापने के लिए अपने-अपने सूचकांक हैं। सभी अलग-अलग ढंग से तैयार किये जाते हैं। उदाहरण के लिए यूनेस्को और एथनोलॉग का अपना सूचकांक है। अन्विता लिखती हैं दरअसल, इन संस्थाओं द्वारा तैयार सूचकांक इस बात पर निर्भर करता है कि भाषा लिखित है या नहीं…
“हमारे मानक अलग होने ही चाहिए। हम पश्चिम की नक़ल क्यों करें? हम मौखिक साहित्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।”
इस बारे में देवी ने बताया था लंबे इतिहास में पूरे भारत में कभी भी किसी एक भाषा का एकछत्र विस्तार नहीं रहा। भारत हमेशा बहुभाषीय राष्ट्र रहा है और यह जो भारतीयता है, इसी बहुभाषीय चरित्र में ही अवस्थित है। दरअसल इस चिंतन के समय भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व को इसी रोशनी में समझा जा सकता है।
भाषा हमारी भावनाओं का संग्रह
किसी भाषा के मर जाने का क्या अर्थ है? भाषा अकेली नहीं मरती, भाषाविदों की मानें तो उसके साथ हमारी बहुभाषिकता, एक पूरा समाज, एक समृद्ध और अनूठा ज्ञान संसार इस दुनिया से फ़ना हो जाता है। अन्विता ने उल्लेख किया है ग्रेट अंडमानी लोगों के पास गंध के लिए कई शब्द थे। उन सभी गंधों के अलग-अलग नाम थे। अब इन गंधों के बारे में ज्ञान ख़त्म है। ग्रेट अंडमानी भाषा में पक्षियों के लिए 97 शब्द उन्हें मिले थे। अब ग्रेट अंडमानी लोगों को इन नामों का कोई ज्ञान नहीं और वे पक्षियों को पहचान तक नहीं पाते।
अन्विता कहती हैं इसलिए भाषा हमारी भावनाओं से जुड़ी रहती है। इस सूत्र के पक्ष में वह दो उदाहरण देती हैं। दक्षिण अमेरिका में बोली जाने वाली माया भाषा में नीले रंग की तितलियों के लिए नौ शब्द थे। स्पैनिश भाषा के आगमन के साथ शब्दों की संख्या तीन रह गयी। यानी अगली पीढ़ी में रंगों के प्रति उनकी पारंपरिक समझ ख़त्म हो गयी।
ठीक इसी तरह, ओडिशा के कोरापुट कस्बे में हरित क्रांति से पहले चावल की 1800 क़िस्में उगायी जाती थीं। अब सिर्फ़ तीन-चार क़िस्में बची हैं। उन क़िस्मों का स्वाद तो ग़ायब हो ही गया क़िस्मों के नाम के साथ-साथ स्वादों के नाम भी गये। लोगों को अब उन स्वादों के शब्द भी याद नहीं हैं। अन्विता की चेतावनी बड़े स्तर पर समझे जाने योग्य है:
“जब हम विविधता को ख़त्म करके ज़बरदस्ती एकरूपता लाते हैं, तो यही अंजाम होता है। भाषा दरअसल हमारी भावनाओं के नोट्स का संग्रह होती है। भाषा के ख़त्म होने से भावनाएं ख़त्म हो जाती हैं।”

आकांक्षा त्यागी
अपने करियर में पहले क़रीब 10 वर्ष पत्रकार रहीं आकांक्षा पिछले क़रीब 15 वर्षों से शिक्षा में नवाचार के क्षेत्र में सक्रिय हैं। शोधकर्ता और ट्रेनर के रूप में वह राष्ट्रीय स्तर तक के प्रोजेक्ट लीड कर चुकी हैं। वर्तमान में एलएलएफ़ के साथ बच्चों की शिक्षा से जुड़े विषयों पर अपनी सेवाएं दे रही हैं। साहित्य, कला और सिनेमा में गहरी रुचि रखती हैं और गाहे ब गाहे सरोकार से जुड़े विषयों पर लेखन में भी।
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बहुत महत्वपूर्ण आलेख है। दरअसल बात इतनी-सी भी नहीं है; भाषाओं के शब्द अंग्रेजी से बदले भी जा रहे हैं और यह अंतरण बढ़ता ही जा रहा है। इसका एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि किसी भी भाषा में जब किसी दूसरी भाषा के शब्द 70% को पार करने लगते हैं, तो वह पूरी भाषा दूसरी भाषा में अंतरित हो जाती है। आश्चर्यजनक रूप से दुखद पहलू यह है कि यह सब प्राथमिक शिक्षा को माध्यम और लक्ष्य बनाकर किया जा रहा है। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों के द्वारा इसे किया जा रहा है। इन गैर सरकारी संगठनों के द्वारा शिक्षकों को इसी तरह की भाषा में प्रशिक्षण दिया जाता है। इस तरह यह भाषा प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों तक पहुँचती है। वे बच्चे इसी भाषा को सीखते हैं और व्यवहार में लाने लगते हैं। इस तरह उनकी भाषा से उनकी मातृभाषा के शब्द क्रमशः हटने लगते हैं। इसका डरावना प्रभाव उनकी अगली पीढ़ी में दिखाई देगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।