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जड़ ब्राह्मणवाद से ग्रसित साहित्य समाज

              साहित्य बड़ी ऊँची चीज़ है। साहित्य किसी आदमी के साहित्यकार बनते ही उसे भी ऊँची चीज़ बना देता है। फिर वह चाहे जिस जाति का हो, तुरन्त ही ब्राह्मण बन जाता है। पहले वह अपने उस वर्ग के भीतर ब्राह्मण बनता है, जिसके साथ वह रहता है। अचानक ही उसे उसके अपने मित्र, सहपाठी, सहकर्मी सभी कुछ छोटे लगने लगते हैं। यह दूसरों का छोटा लगना और ख़ुद का कुछ बड़ा लगना ठीक उसी तरह होता है, जैसे किसी अनपढ़ रह गये, दरिद्रता से ग्रस्त ब्राह्मण को भी दूसरी जातियों के लोग उससे कुछ छोटे ही लगते हैं। उसे हर हाल में लगता है कि उससे मिलने वाला ब्राह्मणेतर जाति का व्यक्ति पालागी कहेगा ही। ख़ुश रहो, जय हो, आशीर्वाद कहने को लालायित रहता है, यद्यपि एक ठसक बचाये-बनाये रखने के साथ। ऐसा ही ब्राह्मणपना साहित्यकार बनने के साथ पैदा हो जाता है। इसे ऐसा कहें कि साहित्यकार बनने के पहले ब्राह्मणपना पैदा हो जाता है।

दरअसल यह ब्राह्मणपना ही ब्राह्मणवाद है। यह किसी आदमी में किसी भी तरह की विशिष्टता आने के साथ ही उसमें आ जाता है। ब्राह्मणवाद दूसरों को ख़ुद से कमतर समझने की प्रवृत्ति है। यही सामंती प्रवृत्ति भी है, जो दूसरों को अपने आगे झुका हुआ देखना चाहती है। ऐसे लोग किसी को अपनी पंक्ति में बैठाना स्वीकार नहीं करते इसीलिए साहित्य में प्रगतिशीली और जनवादी एक दूसरे के साथ बैठना ख़ुद को कुछ कमतर करना समझते हैं। अभी तो दोनों ख़ुद को कुछ कम करके एक दूसरे पर एहसान करते हुए साथ बैठने का दिखावा करने को तैयार हुए हैं। लेकिन, इनके भीतर का ब्राह्मणवाद मर गया है, ऐसा समझना भूल होगी।

गद्य कविता का कवि समझता है कि जो वह लिखता है, वही कविता है। कविता गद्य के सिवा कुछ हो ही नहीं सकती। कांग्रेसी सरकारों के ज़माने से सत्ता से जुड़े प्रतिष्ठानों में ये ही लोग जमे थे, यानी सत्ता में थे, संस्थानों में थे, तो पावर में भी थे। अब ऐसे में पक्के और श्रेष्ठ सरवरिया ब्राह्मण तो यही थे, जो किसी को अपनी लाइन में बिठाना क्या! पास फटकने तक न देते थे। गीतकार का श्रेष्ठतावाद तो और बड़ा! वह तो गद्य कवियों को कवि भी नहीं मानता। दरअसल उन्हें यह समझ ही नहीं आता कि विचार और कमेंट्स से भरा गद्य कविता कैसे हुआ? यह बात समझ में तो आम पाठकों के भी नहीं आयी! ख़ैर, बाद में गीत कवि का ब्राह्मणवाद दयनीय दरिद्र ब्राह्मण के ब्राह्मणवाद जैसा हो गया। यद्यपि वह मानता है कि कविता पढ़ने में, देखने में, सुनने में भी कविता जैसी लगनी चाहिए। यह ग़लत भी नहीं है।

साहित्य में ब्राह्मणवाद से ग्रसित कई कुनबे बन गये हैं। दलित लेखक, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, वामपंथी लेखक जैसे कई कुनबे। इस ब्राह्मणवाद की समस्या यह है कि कोई किसी को साथ बैठाने को तैयार नहीं है। जाति से ब्राह्मण होकर दलितों पर आप नहीं लिख सकते। लिखेंगे तो वह संदेह के दायरे में रहेगा।

दरअसल पूरा साहित्यिक समाज एक बड़े जड़ ब्राह्मणवाद से ग्रसित हो चुका है। कविता से लेकर आलोचना तक और चर्चा-परिचर्चा से लेकर बड़े विमर्श तक! यह साहित्य को उसके लक्ष्य से लगातार दूर धकेलता है। जब तक प्रतिगामी शक्तियाँ धीरे-धीरे ब्राह्मणवाद से ग्रस्त और बँटे हुए साहित्य को लगभग शून्य में नहीं धकेल देंगी, तब तक साहित्यिक समाज इस ब्राह्मणवाद से ऊपर उठने के प्रश्न पर सोचना शुरू नहीं करेगा! ऐसा लगता है।

राजा अवस्थी

राजा अवस्थी

सीएम राइज़ माॅडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कटनी (म.प्र.) में अध्यापन के साथ कविता की विभिन्न विधाओं जैसे नवगीत, दोहा आदि के साथ कहानी, निबंध, आलोचना लेखन में सक्रिय। अब तक नवगीत कविता के दो संग्रह प्रकाशित। साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित 'समकालीन नवगीत संचयन' के साथ सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय समवेत नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित। पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, दोहे, कहानी, समीक्षा प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्र जबलपुर और दूरदर्शन केन्द्र भोपाल से कविताओं का प्रसारण।

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