
- June 15, 2025
- आब-ओ-हवा
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जनकवि हूं साफ़ कहूंगा क्यों हकलाऊं..?
जनता पूछ रही क्या बतलाऊं,
जनकवि हूं साफ़ कहूंगा क्यों हकलाऊं
बाबा नागार्जुन इन पंक्तियों में स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि वे जनकवि हैं। स्पष्ट कहेंगे और कहते हुए बिल्कुल नहीं घबराएंगे। मौजूदा दौर में कितने ऐसे कवि हैं, जिनके ये तेवर हैं। जो सत्ता के सामने ख़म ठोककर, खड़े हो जाएं। सरकार की जनविरोधी नीतियों की अपनी कविताओं में खुलकर आलोचना करें। जबकि नागार्जुन का सारा काव्य साहित्य सत्ता के विरोध का साहित्य है। सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस उनमें था। देश में कोई भी सत्ता रही हो, वह हमेशा सच के साथ रहे। झूठ और सत्ता के दोग़लेपन का उन्होंने जमकर विरोध किया। नागार्जुन प्रगतिशील धारा के जनकवि थे। आज़ादी से पहले उन्होंने किसानों-मज़दूरों के आंदोलनों में हिस्सा लिया। ज़िंदगी में तीन बार जेल गये। सत्ता का विरोध और आंदोलनों में रचनात्मक भूमिका उनकी शख़्सियत का हिस्सा रहीं। वे उस दौर के कवि हैं, जब देश राजनीतिक उथल-पुथल और जन-आंदोलनों के दौर से गुज़र रहा था। हम जब भी बाबा नागार्जुन की तस्वीर देखते हैं, उसमें हमें उनकी देशज छवि नज़र आती है। कहीं कोई बनावटीपन नहीं। वे दोहरा चरित्र जीने में यक़ीन नहीं करते थे।
बाबा नागार्जुन की पूरी ज़िंदगी फक्कड़पन और घुमक्कड़ी में बीती। जनता के दु:ख-दर्द को उन्होंने आवाज़ दी। पं. जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी, बाल ठाकरे से लेकर मायावती तक को उन्होंने अपनी रचनाओं का मौज़ू बनाया। नागार्जुन की रचनाओं में मानवीय पीड़ा, लोक संस्कार, दबे-कुचले लोगों की आवाज़ और अपने समय की राजनीतिक घटनाओं पर त्वरित टिप्पणियां मिलती हैं। उनकी कविताओं में व्यंग्य की धार पैनी दिखायी देती है। यही सब बातें नागार्जुन और उनकी कविताओं को जनप्रिय बनाती हैं। आज भी उनकी कविताएं याद की जाती हैं। मुहावरे की तरह दोहरायी जाती हैं। ग़रीबी, भूख, अत्याचार और कुशासन के ख़िलाफ़ उन्होंने जमकर लिखा। ज़रा नहीं हिचकिचाये।
रोज़ी-रोटी हक़ की बातें जो भी मुंह पर लाएगा
कोई भी हो निश्चय ही वो कम्युनिस्ट कहलाएगा
स्पष्ट विचार, धारदार टिप्पणी, ग़रीबों और मज़लूमों की आवाज़ नागार्जुन की कविताओं में प्रमुखता से शामिल रही। हिंदी कविता में सही मायनों में कबीर के बाद, यदि कोई फक्कड़ व जनकवि कहलाने का उत्तराधिकारी हुआ, तो वो बाबा नागार्जुन थे। आज़ादी से पहले 1941 के आस-पास जब बिहार में किसान आंदोलित हुए, तो बाबा सब कुछ छोड़कर आंदोलन का हिस्सा बने और जेल गये। आज़ादी के बाद भी उनका संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ। उनके बग़ावती तेवर बरक़रार रहे। ब्रिटेन की महारानी जब भारत आयीं, तो बाबा नागार्जुन ने अपनी कविता में उन्हें संबोधित करते हुए लिखा-
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहरलाल की!
1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया। समाज-वादी लीडर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक ज़बर्दस्त आंदोलन हुआ। देशभर के लोग सत्ता की बर्बरता के ख़िलाफ़ लामबंद हुए, इन हालात पर नागार्जुन ने सत्ता के शीर्ष पद पर बैठी नेता को संबोधित करते हुए सीधे-सीधे लिखा- इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बाबा नागार्जुन की कविताओं में ज़िंदगी के कई रंग और उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। अकाल के दिनों में लिखी उनकी कविता में आम आदमी की बदहाल ज़िंदगी और उसके जीवन का जो संघर्ष दिखाई देता है, ऐसा हिंदी कविता में विरल है-
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
बाबा जीवनपर्यन्त मसिजीवी रहे। क़लम से ही उन्होंने अपना जीवनयापन किया। ज़ाहिर है कि इसकी वजह से उन्हें ग़रीबी में ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ी। लेकिन उन्होंने किसी के सामने अपना सर नहीं झुकाया। अपने हाथ नहीं फैलाये। शोषित, उत्पीड़ित जनता का इतना बड़ा पक्षधर कवि, हिंदी में कोई दूसरा नहीं हुआ। प्रख्यात समालोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने नागार्जुन की कविता का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, “जब हिंदी प्रदेश की श्रमिक जनता एकजुट होकर, नयी समाज व्यवस्था के निर्माण की ओर बढ़ेगी, निम्न मध्यमवर्ग और किसानों, मज़दूरों में भी जन्म लेने वाले कवि दृढ़ता से अपना संबंध जन आंदोलनों से क़ायम करेंगे, तब उनके सामने लोकप्रिय साहित्य और कलात्मक सौन्दर्य के संतुलन की समस्या फिर दरपेश होगी और साहित्य और राजनीति में उनका सही मार्गदर्शन करने वाले रचनाओं के प्रत्यक्ष उदाहरण से उन्हें शिक्षित करने वाले, उनके प्रेरक और गुरु होंगे कवि नागार्जुन।”

जाहिद ख़ान
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक से लेखन की शुरुआत। देश के अहम अख़बार और समाचार एवं साहित्य की तमाम मशहूर मैगज़ीनों में समसामयिक विषयों, हिंदी-उर्दू साहित्य, कला, सिनेमा एवं संगीत की बेमिसाल शख़्सियतों पर हज़ार से ज़्यादा लेख, रिपोर्ट, निबंध,आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित। यह सिलसिला मुसलसल जारी है। अभी तलक अलग-अलग मौज़ूअ पर पन्द्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ‘मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ मिला है। यही नहीं इस किताब का मराठी और उर्दू ज़बान में अनुवाद भी हुआ है।
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