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क़ाफ़िया, रदीफ़ और इरशाद सिकंदर

              कभी-कभी ग़ज़ल अपनी रदीफ़ निभाने में इतनी मशगूल हो जाती है कि अपने अस्ल मक़सद से भटकने लगती है। क़ाफ़िया-अदायगी में की गयी मशक़्क़त आख़िर उससे उसकी बेबाकी छीन लेती है, ग़ज़ल फिर बेअसर और बेजान सी नज़र आती है। अगर क़ाफ़िया-रदीफ़ साफ़ नज़र आएं, उनका ही ज़ोर हो और फ़िक्र सेकंडरी हो जाये तो शेर मामूली हो जाता है। इरशाद ख़ान सिकन्दर का ग़ज़ल संग्रह ‘चाँद के सिरहाने लालटेन’ मेरे हाथों में है। मैं नहीं चाहता कि मेरा शायर भी अपनी हर ग़ज़ल में क़ाफ़िया और रदीफ़ निभाता हुआ मामूली साबित हो जाये। मैं इरशाद सिकन्दर को इन दो शेरों से पहचानता हूँ-

कल तेरी तस्वीर मुकम्मल की मैंने
फ़ौरन उस पर तितली आकर बैठ गयी
मैं चराग़ से जला चराग़ हूँ
रौशनी है पेशा ख़ानदान का

मेरे ज़हनो-दिल में उनके इन दो अशआर की छाप इतनी गहरी है कि मैं इन्हीं का साया उनके हर मिसरे, हर शेर और हर ग़ज़ल में तलाश रहा हूँ।


मुझको रक्खा गया अंधेरे में
मेरे ख़ूँ से दिये जलाये गये
तितली गुलाब चाँद शजर दिल बनाया है
काग़ज़ को साँस लेने के क़ाबिल बनाया है

मैं इरशाद को तलाशते हुए देख रहा हूँ कि वो कितनी सहजता से क़ाफ़िया इकट्ठा कर रहे हैं और आसानी से उसमें रदीफ़ टांक रहे हैं। हर लफ़्ज़ को उसकी मुनासिब जगह दे रहे हैं। क़ाफ़िया-रदीफ़ निभाने में, किसी लफ़्ज़ को इस्तेमाल करने में उनके यहाँ कोई ज़बरदस्ती नहीं है, हाँ एक ज़िद ज़रूर दिखती है। आख़िर ग़ज़ल में नये क़ाफ़िया, नयी रदीफ़ और नये लफ़्ज़ ही नयी फ़िक्र की अलामत हैं।


सिर्फ़ दो लफ़्ज़ में समझ लीजे
कृष्ण हैं नज़्म नस्र अर्जुन है

क़ाफ़िया-रदीफ़ और उनकी फ़िक्र पर ध्यान देते हुए उनकी ग़ज़लें मुझे चौंका रही हैं- पढ़ते हुए महसूस हो रहा है हर शेर के पीछे एक स्टोरी है और उस पर पहला मिसरा उनका फ़ौरी कमेंट है। स्टोरी का सिरा क़ारी (पाठक) को पहले मिसरे में थामना है और दूसरे मिसरे तक स्टोरी खुलकर सामने आ जाती है। वो फूल पत्ती नदी पहाड़ के मनाज़िर नहीं बनाते, वो हमेशा क्रांतिकारी मुद्दे नहीं उठाते, उनके सर दर्शनशास्त्र समझाने की ज़िम्मेदारी भी आयद नहीं हुई है, इसके बावजूद उनका एक अंदाज़ है… बात करने के अंदाज़ में वो क़ाफ़िया तक पहुँचते हैं और रदीफ़ को जस्टिफाई करते हैं।

हम भी चुप बांधकर अपने घर चल दिए
क्या करें क़ौम जब सारी जाहिल हुई

शायर साइंसदान, हिस्टोरियन या इकनॉमिस्ट की तरह नहीं सोचते उन्हें कुछ बातें कहनी होती हैं… शेर के दो मिसरे हमेशा बवंडर पैदा नहीं करते… कैफ़ियत जिसे ऐसे ही बयान किया जा सकता था। शेर का मरकज़ क़ाफ़िया होता है और उसे दरयाफ़्त करने के लिए शायर को मशक़्क़त करनी पड़े तो सारा तमाशा बिगड़ जाता है… इरशाद एक लफ़्ज़ से भी शेर में जान भर देते हैं लेकिन उनका असर है कि क़ाफ़िया के इर्दगिर्द घूमते हुए भी क़ाफ़िया नज़र नहीं आता और रदीफ़ ओझल रहती है।

सारे ख़्वाबों के इंतक़ाल के बाद
आप और वो भी इतने साल के बाद
और चारा भी क्या था इसके सिवा
फूल चूमे तुम्हारे गाल के बाद
तुमने देखा नहीं अदाकारो
उनका चेहरा मिरे सवाल के बाद

(इरशाद सिकंदर 18 मई 2025 को नहीं रहे। आब-ओ-हवा की ओर से श्रद्धांजलिस्वरूप यह लेख सलीम सरमद की फ़ेसबुक पोस्ट से)

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

2 comments on “क़ाफ़िया, रदीफ़ और इरशाद सिकंदर

  1. संक्षिप्त किन्तु अत्यंत सारगर्भित आलेख है। एक समर्थ रचनाकार को एक बहुत ही जागरुक रचनाकार/पाठक की इस श्रद्धांजलि में हमारे श्रद्धा सुमन भी शामिल हों।

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