
(विश्व संगीत दिवस और अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर एक विशेष कविता। ‘ख़ुमारी’ संबंधी अपने व्याख्यान में आचार्य रजनीश इस कविता का पाठ करते हैं। इस कविता के पाठ के बाद वह कहते हैं, वह घड़ी, वह संध्याकाल– जहां मीरा होश में आ जाती है और जहां बुद्ध नाचने लगते हैं, उसका नाम है– ख़ुमारी।)
ख़ुमारी…
गीत को उठने दो और साज़ को छिड़ जाने दो
चुप्पी को छूने दो
लफ़्ज़ों के नर्म तारों को
और लफ़्ज़ों को चुप्पी की ग़ज़ल गाने दो
खोल दो खिड़कियां सब, और उठा दो पर्दे
नयी हवा को ज़रा बंद घर में आने दो
छत से है झांक रही, कबसे चांदनी की परी
दीया बुझा दो, आंगन में उतर आने दो
फ़िजा में छाने लगी है बहार की रंगत
जुही को खिलने दो, चंपा को महक जाने दो
ज़रा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
जरा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो
गीत को उठने दो और साज़ को छिड़ जाने दो
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हंसते ओंठों को ज़रा चखने दो अश्कों की नमी
और नम आंखों को ज़रा फिर से मुस्कुराने दो
दिल की बातें अभी झरने दो हरसिंगारों-सी
बिना बातों के कभी आंख को भर आने दो
रात को कहने दो, कलियों से राज़ की बातें
गुलों के ओंठों से उन राज़ों को खुल जाने दो
ज़रा ज़मीं को अब उठने दो अपने पांवों पर
ज़रा आकाश की बांहों को भी झुक जाने दो
गीत को उठने दो और साज़ को छिड़ जाने दो
ज़रा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
ज़रा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो
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कभी मंदिर से भी उठने दो अज़ान की आवाज़
कभी मस्जिद की घंटियों को भी बज जाने दो
पिंजरे के तोतों को दोहराने दो झूठी बातें
अपनी मैना को तो पर खोल चहचहाने दो
उनको करने दो मुर्दा रस्मों की बरबादी का ग़म
हमें नयी ज़मीन, नया आसमां बनाने दो
एक दिन उनको उठा लेंगे इन सर-आंखों पर…
आज ज़रा ख़ुद के तो पांवों को सम्हल जाने दो
गीत को उठने दो और साज़ को छिड़ जाने दो
ज़रा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
ज़रा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो
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ज़रा सागर को बरसने दो बन कर बादल
और बादल की नदी सागर में खो जाने दो
ज़रा चंदा की नर्म धूप में सेकने दो बदन
ज़रा सूरज की चांदनी में भीग जाने दो
उसको खोने दो, जो कि पास कभी था ही नहीं
जिसको खोया ही नहीं, उसको फिर से पाने दो
गीत को उठने दो और साज़ को छिड़ जाने दो
ज़रा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
ज़रा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो
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अरे, हांऱ्हां हुए हम, लोगों के लिए दीवाने
अब लोगों को भी कुछ होश में आ जाने दो
ये है सच कि बहुत कड़वी है मय इस साक़ी की
रंग लाएगी, गर सांसों में उतर जाने दो
छलकेंगे जाम जब छाएगी ख़ुमारी घटा
ज़रा मैख़्वारों के पैमानों को तो सम्हल जाने दो
ज़रा साक़ी के तेवर तो बदल जाने दो
गीत को उठने दो और साज़ को छिड़ जाने दो
ज़रा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
ज़रा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो
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न रहे मयख़ाना, न मयख़्वार, न साक़ी, न शराब
नशे को ऐसी भी इक हद से गुज़र जाने दो
उसको गाने दो, अपना गीत मेरे ओंठों से
और मुझे उसके सन्नाटे को गुनगुनाने दो
ज़रा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
ज़रा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो
गीत को उठने दो और साज़ को छिड़ जाने दो…
यह कविता ओशो के व्यक्तित्व के अनुरूप ही है। ओशो भी प्रकृति के सहचर रहे हैं। उनकी बेलाग बातें किस प्राणी को सम्मोहित नहीं करतीं। श्रेष्ठ रचना।आपको भी हार्दिक धन्यवाद, इसका रसास्वादन कराने हेतु।