सागर सिद्दीकी, sagar siddiqui

ख़्वाब, हक़ीक़त और साग़र सिद्दीक़ी

            ‘साग़र सिद्दीक़ी पागलों-सा गर्मी की दुपहरी में भी तन पर काला कंबल डाले एक फुटपाथ पर बैठा रहता और एक दिन लाहौर में स्कूल से सटे उसी फुटपाथ पर मुर्दा हालत में पाया गया’… फ़ेसबुक पर कुछ सतरें पढ़ी थीं कि पोस्ट आँखों से ओझल हो गयी। कौन था साग़र सिद्दीक़ी और कैसे मर गया! मौत शब्द सदियों से कलाकारों की धड़कनों के आयाम को बढ़ाता रहा है, इस शब्द ने ही जीवन को गहराई प्रदान की है। मैंने भी साग़र सिद्दीक़ी को यू ट्यूब पर सर्च किया… आवाज़ के जादूगर नुसरत फ़तेह अली ख़ान की गायकी ने दस्तक दी-
मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
ग़म की सियाह रात से घबरा के पी गया
मैं आदमी हूँ कोई फ़रिश्ता नहीं हुज़ूर
मैं आज अपनी ज़ात से घबरा के पी गया

कहते हैं 1944 में अमृतसर के मुशायरे में कारपेंटरी का काम करने वाला मुहम्मद अख़्तर नाम का लड़का किसी ख़्वाब की तरह लोगों की समाअतों पर छा गया। लोग उसे अब साग़र सिद्दीक़ी कहते थे। 1947 के बंटवारे में पाकिस्तान जाने के बाद भी साग़र सिद्दीक़ी की मक़बूलियत में कमी नहीं आयी, लेकिन डिप्रेशन और नशे की लत ने उसे फिर तबाह कर दिया।
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
तुमसे कहीं मिला हूँ मुझे याद कीजिए
नग़मों की इब्तिदा थी कभी मेरे नाम से
अश्कों की इन्तिहा हूँ मुझे याद कीजिए
बात फूलों की सुना करते थे
हम कभी शेर कहा करते थे

साग़र सिद्दीक़ी कोई किस्सा हैं या हक़ीक़त, मैं नहीं जानता… मौत शब्द ने मुझे मजबूर किया था कि मैं उनके बारे में लोगों से सुनूं, उनकी ज़िंदगी के बोसीदा पन्ने पलटकर देखूं, अब उसमें कितना सच और कितना झूठ है, मैं वाक़ई नहीं जानता। न जाने कितने साग़र सिद्दीक़ी ख़्वाब और हक़ीक़त के दरमियान इस दुनिया में जिये और फिर गुमनामी की चादर ओढ़कर सो गये। इस साग़र सिद्दीक़ी की तुर्बत पर भी देखते हैं कब तक उसके नामलेवा इकट्ठा होते हैं?
हर शनावर को नहीं मिलता तलातुम से ख़िराज़
हर सफ़ीने का मुहाफ़िज़ नाख़ुदा होता नहीं
आज फिर बुझ गये जल-जल के उमीदों के चिराग़
आज फिर तारों भरी रात ने दम तोड़ दिया

साग़र सिद्दीक़ी पागल हो गये थे, इतना सोचते ही एक दृश्य मेरे सामने तैर जाता है- अप्रैल या मई होगा, जब धूप आग बनकर खुली सड़क पर बरस रही थी, तभी वहाँ से गुज़रते हुए बूढ़ी औरत ने सर पे डले दुपट्टे को संभालते हुए अपना सर नीचे किया और चप्पल उतारकर तपती सतह पर थोड़ी देर के लिए खड़ी हो गयी। उसके तलवों ने थोड़ी देर सुलगते लावे को बर्दाश्त किया, फिर दुपट्टे के एक कोने से अपनी नम आंखों को पोंछा और चप्पल पहन कर आगे बढ़ गयी। वो मेरे मुहल्ले में रहने वाले चाँद पागल की माँ थी, जो शहर में कहीं भी नंगे पैर भटकता रहता था, उसकी माँ ये जानना चाह रही थी कि उसका बेटा कितनी तकलीफ़ में है। कौन सोचता होगा साग़र सिद्दीक़ी के बारे में, तब किसको उनकी परवा थी?

साग़र सिद्दीक़ी दीन से बेगाने, शायद अपने ख़ुदा से भी अनजान हो गये थे, क़ुदरत ने उन्हें बेहिस पत्थर बना दिया था।
कुछ हाल के अंधे साथी थे कुछ माज़ी के अय्यार सजन
अहबाब की चाहत क्या-क्या कहिए कुछ याद रहे कुछ भूल गये
चकरा के गिर न जाऊं मैं इस तेज़ धूप में
मुझको ज़रा संभाल बड़ी तेज़ धूप है
ज़िंदगी जब्रे-मुसलसल की तरह काटी है
जाने किस जुर्म की पायी है सज़ा याद नहीं
आओ इक सज्दा करें आलमे-मदहोशी में
लोग कहते हैं कि ‘साग़र’ को ख़ुदा याद नहीं

सागर सिद्दीकी, sagar siddiqui

साग़र सिद्दीक़ी एक शराबी शायर थे, कहते हैं उनके शेर- जिस अहद में लुट जाये फ़क़ीरों की कमाई, उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है- सुनकर तत्कालीन सदर अयूब ख़ान बेचैन हो गये थे, लेकिन ये सब आख़िर जी बहलाने की बातें हैं, जो शायरों को तस्कीन देती हैं। ख़ैर साग़र सिद्दीक़ी 1928 में पैदा हुए और 19 जुलाई 1974 को मर के अपनी आरामगाह में जा चुके हैं।
हादसे रोज़ होते रहते हैं
भूल भी जाओ मैं शराबी हूँ
जिसे ज़बाने-ख़िरद में शराब कहते हैं
वो रौशनी सी पिलाओ बड़ा अंधेरा है

सलीम सरमद

सलीम सरमद

1982 में इटावा (उ.प्र.) में जन्मे सलीम सरमद की शिक्षा भोपाल में हुई और भोपाल ही उनकी कर्म-भूमि है। वह साहित्य सृजन के साथ सरकारी शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को भौतिक विज्ञान पढ़ाते हैं। सलीम अपने लेखन में अक्सर प्रयोगधर्मी हैं, उनके मिज़ाज में एकरंगी नहीं है। 'मिट्टी नम' उनकी चौथी किताब है, जो ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन है। इससे पहले सरमद की तीन किताबें 'शहज़ादों का ख़ून' (कथेतर) 'दूसरा कबीर' (गद्य/काव्य) और 'तीसरा किरदार' (उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं।

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