
कृष्ण कल्पित की ‘पुरानी धारा’ की नयी करतूत
साहित्य जगत का मी टू (#MeToo) कांड कहिए या बिग बॉस, लेकिन प्रतिक्रियाओं और हास्य-व्यंग्य से परे यह मामला गंभीर प्रश्न ज़रूर उठाता है। सबसे अहम सवाल यह कि ‘नई धारा’ के ‘साहित्यिक निवास कार्यक्रम’ में रचनाकारों का चयन किस सोच से हुआ? किस नीयत से और इसके लिए व्यवस्थाएं कैसे सुनिश्चित की गयीं? पीड़ित महिला कवि ने अपने सोशल मीडिया पर जो पोस्ट लिखा, उसमें साफ़ है कि इस कार्यक्रम से पहले ही आशंकाओं के बादल छाये हुए थे। पोस्ट में लिखा है, ‘इस रेज़िडेन्सी में आने से पहले मुझे आश्वासन दिया गया था कि यहां ऐसा माहौल मिलेगा जिससे शान्त चित्त से मैं पढ़-लिख सकूंगी’।
कृष्ण कल्पित के चरित्र पर पहले से युवती को संशय था, यह आशय न भी निकले तब भी यह तो है कि साहित्यिक निवास कार्यक्रम से पहले ही यहां के माहौल को लेकर संशय था। तभी आयोजकों को यह आश्वासन युवती को देना पड़ा। युवती ने भी ऐसा आश्वासन चाहा। दूसरा प्रश्न यह कि जब इस आयोजन में एक युवा महिला कवि का चयन किया गया, तो दूसरे वरिष्ठ लेखक के चयन में क्या सावधानियां बरतना चाहिए थीं। कम से कम इतनी सावधानी तो बरती ही जानी चाहिए थी कि छह सप्ताह तक युवती ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सके। इसके लिए सबसे पहला क़दम यही होना था कि एक ऐसे व्यक्ति को तो क़तई उसके साथ के लिए न चुना जाये, जिस पर पहले भी महिलाओं के साथ अभद्र/अश्लील भाषा, बर्ताव जैसे आरोप लगते रहे हैं।
‘नई धारा’ के इस ‘राइटर्स रेज़ीडेन्सी’ कार्यक्रम ने हिन्दी पट्टी के साहित्यकारों के चरित्र को कठघरे में ला खड़ा किया है। ‘नई धारा’ के लिए इस आयोजन का ज़िम्मा साहित्यकार शिवनारायण का बताया जाता है लेकिन वह इन आरोपों के सामने आने के बाद से मौन व्रत पर चले गये। क्या हुआ, क्या हो सकता था, क्या नहीं हो सका, ऐसे तमाम प्रश्नों को लेकर पारदर्शिता का न होना नीयत पर बड़े सवालिया निशान लगाता है (अमर उजाला की रिपोर्ट में सीसीटीवी फ़ुटेज को लेकर उठाया गया सवाल भी अहम है)।
ऐसा तो नहीं कि इस आयोजन के लिए पहले कृष्ण कल्पित को चुना गया और फिर किसी युवा महिला का, जो उनके साथ एक परिसर में डेढ़ महीने रहने को तैयार हो सके? ऐसा है तो सिर्फ़ कल्पित नहीं, बल्कि उंगलियां उन अनेक चरित्रों पर भी उठना चाहिए, जो ऐसे आशंकित घटनाक्रम की नीयत से ही आयोजन कर रहे थे।
ये प्रश्न ख़याली पुलाव नहीं हैं क्योंकि कल्पित का अतीत छुपा नहीं रहा है। हालिया मामले में राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ का जो पत्र सोशल मीडिया पर चर्चा में है, उसमें कल्पित को सदस्यता से हटाये जाने के उल्लेख के साथ लिखा गया है कि ‘पहले भी उन्हें चेताया जाता रहा लेकिन सुधार के बजाय उनमें लगातार गिरावट आती गयी’। यानी सब देख रहे थे, तो जानते बूझते एक युवा महिला के साथ उन्हें इंगेज करने के इंतज़ाम क्यों किये जा रहे थे? इस बुनियादी प्रश्न से बचना संभव है?
संवेदना किसके साथ?
इन प्रश्नों से अलग, उदय प्रकाश जैसे प्रतिष्ठित साहित्य-कार ने कृष्ण कल्पित के पक्ष में एक पोस्ट लिखकर कहा, एक गुट ने जैसे पहले उनका घेराव किया था, वैसे ही कल्पित के ख़िलाफ़ गुटबंदी की जा रही है। आशंका भी जता दी कि कहीं कल्पित कोई दुखद क़दम न उठा लें। इधर, साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग है, जो यौन शोषण पीड़ित की मानसिक स्थिति की चिंता कर रहा है।
एक वरिष्ठ महिला लेखक ने इन दुराचारों की एक दीर्घ परंपरा होने की बात कही, महत्वपूर्ण संकेत किया कि हालिया मामले को लेकर वे कुछ महिलाएं भी विरोध के स्वर में स्वर मिला रही हैं, जो ऐसे प्रलोभनों का संबल पाकर किसी मुक़ाम तक पहुंची हैं। इस मामले में पक्षधरता को लेकर भी एक समझ का होना ज़रूरी है। कहां किसके क्या स्वार्थ हैं, क्या चालें हैं, क्या भीतरी सांठ-गांठ है? गुत्थियां इतनी पेचीदा हैं, जैसे यह साहित्य जगत, कवियों की दुनिया न हो, गुंडों और छिछोरों की सियासी बिसात हो। अफ़सोस!
—आब-ओ-हवा डेस्क
कवियों का क्या भरोसा… अपनी किताब को सच्चाई के आईने में उतारता कवि-
ऐसे मुद्दों पर एक ठोस निर्णय होना जरूरी है ।