
- May 30, 2025
- आब-ओ-हवा
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लोक के बीच पहुंचने का रास्ता हो सकता है कवि सम्मेलन?
जबकि यह प्रमाणित है कि किसी भी तरह के साहित्य अथवा कला का जीवन लोक के भीतर ही संभव हो सकता है। सम्पूर्ण लोक के भीतर भी कुछ अलग-अलग तरह के कई लोकों या उपलोकों का अस्तित्व देखा जा सकता है। इन अलग-अलग उप लोकों में अलग-अलग तरह की कलाएँ जीवन पाती हैं। बड़े नामी-गिरामी और महंगी पेंटिंग्स बनाने वाले चित्रकारों की कला गाँव-गिरांव में कहाँ रह सकती है! लेकिन तीजन बाई की पंडवानी ऊँचे अभिजात्य मंचों पर अपनी चमक बिखेर आने के बाद भी जहाँ आकर जीवन पाती है, वह आम जन का लोक ही है। उस अभिजात्यता के बीच वह रह नहीं सकती। वहाँ उसका दम घुट जाएगा। यही बात कविता के लिए भी सही है।
दरअसल कविता का जीवन उस बड़े लोक में ही सम्भव है, जहाँ किसान भी रहता है और मज़दूर भी। जहाँ छोटा-मोटा व्यापारी रहता है और छोटी-मोटी नौकरी करने वाला बाबू, शिक्षक, पटवारी या पुलिसवाला भी। छोटे-मोटे अफ़सरान भी यहीं रहते हैं। इस लोक तक पहुँचने का सबसे आसान और एकमात्र प्राथमिक रास्ता यही बचता है कि कविता को वाचिक रूप में इस लोक तक ले जाया जाये। इसके लिए ऐसे मंच की ज़रूरत होती है, जहाँ श्रोता को आमंत्रित किया जा सके और इकट्ठा किया जा सके। सीधे-सीधे कहें तो कवि सम्मेलन ही वह रास्ता है, जहाँ से कविता लोक तक पहुँच सकती है। जितने कवि लोक में जीवित हैं, जिनकी कविता का कोई अंश लोक में किसी की ज़ुबान पर थिरक उठता है, वह पाठ्य-पुस्तकों के अलावा इन्हीं कवि सम्मेलन के मंचों से ही ज्यादातर पहुँचा है।
कविता, गीत या कहें कि नवगीत के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह अपने वाचिक प्रारूप में लोक तक कैसे पहुँचे। जो कवि सम्मेलन इसके माध्यम हैं, वहां लतीफ़ों और लिजलिजे, द्विअर्थी, यौनिक संकेतों से भरी तुकबंदियों का राज है। जो कुछ कवयित्रियाँ यह नहीं कर पायीं, उनने पति नामधारी पुरुष को माध्यम बनाकर ऐसा ही किया! कुछ कम किया होगा, पर है ऐसा ही। आजकल तो इन मंचों पर कविता के नाम पर कुछ भाट भी पैदा हो गये हैं, जो कुर्सी के पक्ष में क़सीदे को ही कविता कहकर प्रशस्ति-गान करते हैं। ऐसे में वहाँ कविता कैसे अपनी पैठ बनाये? यह बड़ा प्रश्न है। तो भी कविता को छोटे-छोटे कमरों और हाॅल से निकलकर खुले मंच में आना होगा। इस तरह खुले में आने का अर्थ है कि जिस लोक के बीच जा रहे हैं, उससे उसकी बात कुछ-कुछ उसके ही ढंग से कहना सीखना होगा। तात्पर्य यह है कि जिस आभिजात्य को ओढ़कर गद्य कवियों और नवगीत कवियों ने अलग-अलग कुनबे बना रखे हैं, उन्हें उस नक़ली अभिजात्यता को त्यागकर, मिलकर नये मंच बनाने होंगे और लोक को आमंत्रित करना होगा। समझने की बात यह भी है कि यदि अपने संदेश जन तक पहुँचाने के लिए नाटक, थिएटर, नुक्कड़ नाटक और नारे लिखे और खेले जा सकते हैं, तो कवि को कवि सम्मेलन से दूरी क्यों बनाना चाहिए। अभिजात्यता की ग्रंथि से ग्रंथित कवियों ने एक भयानक ब्राह्मणवाद रच रखा है और ओढ़ रखा है। इससे उबरने की ज़रूरत है।
लोक फूहड़ता में भी बहुत मारक होता है। वह लथेड़कर मारने में विश्वास करता है और मारता भी है, तो वह बहुत गंभीर बातों को भी स्वीकार करता है। कबीर के निर्गुन, तुलसी की रामायण और विनय पत्रिका के पद और बिहारी के दोहे उसी ने सम्हाल रखे हैं। मीरा, रैदास और पलटू भी वहीं जीवन पाते हैं। ये थोक के भाव पनपे कथावाचक तो उसकी इसी सम्हाल का उपयोग करके उसको भुना रहे हैं। इन कथावाचकों को कुछ समझाना ही नहीं पड़ता, बस जो कुछ लोग पहले से जानते हैं, उसे ही अनाप-शनाप ढंग से तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं। समझना यह है, कि कवि सम्मेलनों को एक चुनौती की तरह स्वीकार करके कवियों को अपनी तरह से कवि सम्मेलन करने चाहिए। यद्यपि कभी कवि सम्मेलनों में निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र, सुभद्रा कुमारी चौहान, शांति सुमन, बच्चन, नेपाली, रंग और रमा सिंह जैसे कवि और कवयित्री कविता पढ़ते थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि इन मंचों से कविता उतरती गयी और विदूषक चढ़ते गये? गीत कवियों को इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।
कवि सम्मेलनों के माध्यम से जब कुछ कविताएँ प्रचार पाती हैं, तो उसके कवि को लोग पढ़ना भी चाहते हैं। तात्पर्य यह कि लोक तक पहुँचने, वहाँ रहने और बने रहने के लिए कवि सम्मेलन एक महत्वपूर्ण और सशक्त रास्ता हो सकता है। यह बात ध्यान रखने की है कि कविता का अर्थ केवल गद्य कविता नहीं, बल्कि इसमें गीत, नवगीत और ग़ज़ल सहित कविता के सभी प्रारूप शामिल हैं। जब तक आपस में ही स्वीकार्यता नहीं होगी, तब तक कविता का कुछ भला नहीं होने वाला, लोक से भी कविता दूर ही रही आएगी।

राजा अवस्थी
सीएम राइज़ माॅडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कटनी (म.प्र.) में अध्यापन के साथ कविता की विभिन्न विधाओं जैसे नवगीत, दोहा आदि के साथ कहानी, निबंध, आलोचना लेखन में सक्रिय। अब तक नवगीत कविता के दो संग्रह प्रकाशित। साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित 'समकालीन नवगीत संचयन' के साथ सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय समवेत नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित। पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, दोहे, कहानी, समीक्षा प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्र जबलपुर और दूरदर्शन केन्द्र भोपाल से कविताओं का प्रसारण।
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मंचों पर कवियों के उत्पात से कविता स्वयं भयभीत हैं।हम सबकी चिंता को स्वर देता हुआ ज़रूरी आलेख।