मधु सक्सेना, madhu saxena
'मान' सहज व रोचक अंदाज़ में उस परिदृश्य को सामने लाती है, जो इस शती के पूर्वार्द्ध तक के समाज की तस्वीर रहा है। अंत में कहानी के पारंपरिक पुरुष अर्थात बाबा को झकझोरती बच्ची वास्तव में सभी के लिए निर्भीक होकर दहशत को साहस के साथ रोकने का प्रतीक बन जाती है। - शशि खरे (संपादक-कथा प्रस्तुति)
मधु सक्सेना की कलम से....

मान

         “अरे छोरी रुक तो… कंघी तो करवा ले।”
मम्मी चिल्लाती ही रह गयी। मानी घर से निकलकर दौड़ती हुई पड़ोस के आई-बाबा के घर पहुंच गयी।

लगभग रोज़ का ही ये क्रम होता। कभी मानी के बाहर जाने या बीमार पड़ने पर ही ये क्रम टूटता। आई के घर में चौका ऊपर की मंजि़ल पर था। नीचे कमरे के अंदर से ही ऊपर चौके तक सीढ़ियां थीं। चौके में ही एक तरफ छोटा सा मन्दिर। बाबा नहाकर आते.. भगवान को प्रणाम करके गोल तिलक लगाते और बिछे आसन पर बैठ जाते।

आई चूल्हे पर गर्म-गर्म रोटियां बनाती। बाबा चौके में ही आसन पर बैठकर, पटे पर थाली रखकर भोजन करते। उनके रोबदार चमकते काले चेहरे पर, कपाल पर लाल चन्दन का
टीका, पतली छोटी काली-सफेद मूंछें, हमेशा गम्भीर बना रहने वाला लंबा चेहरा मानी के आते ही मुस्कराने लगता। ‘आ गयी बिटिया रानी’ सुनकर मानी अपने स्वागत पर इतरा उठती। आई की आंखों में लाड़ बरसने लगता।

आते ही प्लेट हाथ में लेकर आई के सामने खड़ी हो जाती। वे रोटी को चूल्हे में उलट-पलट कर कड़क करतीं। उनपर घी लगातीं फिर रोटी को आधा पलटतीं। उस पर भी घी लगातीं और मानी की प्लेट में रख देती। साथ ही हिदायत देतीं- “रोटी गर्म है सम्हाल के ले जाना बेटी।” हर बार की तरह मानी का सिर सहमति में हिल जाता। धीरे-धीरे रोटी को सम्हालते हुए चलती और बाबा की थाली में परोस देती। खुद पर ही गर्व हो आता उसे कि मानो बहुत बड़ा काम कर लिया।

बाबा भी रोटी का कौर मुंह में डालते हुए पत्नी से कह उठते- भाऊ की माँ रोटी इतनी मीठी क्यों लग रही? आई लाड़ से मानी की तरफ देखते हुए कहती- “मानी ने हाथ लगा दिया ना इसलिए रोटी इतनी मीठी हो गयी।”

मानी खुश होती और शरमा जाती फिर प्लेट उठाकर दूसरी रोटी लेने आई के सामने जा खड़ी होती… अक्सर यही होता इस घर में।

यूँ तो मानी पड़ोस में रहती थी पर लगता था इसी घर की सदस्य है। बाबा के परिवार में आई के साथ तीन संतानें और भी रहती थीं। विमला, याने विम्मो जीजी, कमला याने कम्मो जीजी और दीपक याने भाऊ।

दो बेटियों के बाद हुआ बेटा यूँ भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। बहुत मन्नतों और पूजा पाठ के बाद हुआ था। विशेष देखभाल होती थी उसकी। सूखे मेवे, फल, व्यंजन सब पहले भाऊ खाता फिर बहनों को मिलता। बहनें बड़ी होने के बावजूद नाम नहीं लेती थीं, भाऊ ही कहतीं। धीरे-धीरे परिवार और आस-पड़ोस में भी सब उसे भाऊ ही कहने लगे। भाऊ में भी घमंड तो था अपने लड़के होने का, पर बाबा से डरता भी था।

बाबा से तो सभी डरते थे। ग़ुस्से के तेज़ थे बाबा। ज़रा-सी बात पर पिटाई कर देते। इसमें वे लड़के-लड़की में भेद नही करते थे। लड़कियों के पिटने का मौक़ा बहुत कम आता था। भाऊ अपनी शैतानियों के कारण अक्सर ही पिट जाता। बाबा के ऑफिस से आने के बाद घर में शांति बनी रहती। एक दहशत-सी तारी रहती। सबकी कोशिश यही रहती कि बाबा के सामने ही न पड़ें।

पता नही क्यों बाबा के ममत्व की धारा सूखी पड़ी थी….. उन्होंने कभी अपने बच्चों को लाड़-प्यार नहीं किया। हर बात और ज़रूरत के लिए आई ही मध्यस्थ होतीं।

आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी तो बुरी भी नहीं थी। नगरपालिका में क्लर्क थे। बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो जाती थीं। आरामदायक आवश्यक्ताओं की ज़रूरत नहीं थी। विलासिता के बारे में तो सोचने की हिम्मत भी नहीं होती थी।

मन के सूखे रेगिस्तान में अचानक एक नदी-सी बहने लगी थी बाबा के मन में…जबसे मानी उनके घर आने-जाने लगी। घर में सभी की लाड़ली 6 साल की मानी ही अब बाबा से बात करने का सेतु बन गयी थी। विमला को पेन चाहिए या कमला को कॉपी, मानी ही सूचना देती। बाबा विमला को पुकारते कहते- “दो महीने पहले ही तो पेन लाया था क्या हुआ?”

विमला कुछ बोलती उसके पहले ही मानी बोल उठती- “वो टूट गया बाबा.. सच्ची… लिखते-लिखते ही, मेरे सामने।”

कमला जीजी को बुलाया जाता.. बाबा पूछते- “दस दिन पहले ही तो लाकर दी थी कॉपी उसका क्या हुआ? तब भी मानी तपाक से बोलती- “पूरी भर गयी वो तो.. इतना ज़्यादा लिखना पड़़ता है ना क्या बताऊँ। मुझसे बात भी नही करतीं, लिखती रहतीं लिखती रहतीं।”

मटक-मटक कर वो अपनी बात इस तरह सयानी बनके बोलती तो बाबा को हँसी आ जाती। और काम बन जाता। ये सब एक टॉफ़ी के बदले की मशक्कत होती थी। ये बात बाबा के अलावा सब जानते थे।

भाऊ तो उसे चिढ़ाता ही रहता। लेकिन वो भाऊ की बात नहीं मानती। भाऊ कहता- “जा मेरे घर से… मत आया कर।”
मानी को तो आई-बाबा का वरदहस्त मिला था। वो भाऊ को ही धमका देती- “बोलूं बाबा से….?”

और ज़ोर से बाबा को आवाज़ लगाती। पर कभी उस समय बाबा घर पर नहीं होते तो भाऊ चिढ़ाता ही रहता। शाम को बाबा के आने पर भाऊ की शिकायतों और दिनभर की  ख़बरों का पुलिंदा खुलता। बात-बात में ख़ूंख़ार हो जाने वाले बाबा धैर्य से मानी को गोदी में बिठाकर उसकी बात सुनते। स्नेह का लबालब कलश छलकता रहता। बाबा की हँसी से घर भर खिल उठता।

आई तक हमेशा मानी की माँ से कहती- “हमें दे दो मानी को। इसने तो हमारे घर का माहौल बदल दिया।” मानी की माँ भी कह देती- “हाँ-हाँ रख लो आप। यूँ भी मेरे पास कम और आपके पास ही तो बनी रहती है। आपके घर ही खेलती और खाती है।”

मानी के आने-जाने के दो ही घर थे। एक आई-बाबा दूसरा राज…। राज भी मानी के घर के ठीक सामने रहता था। मानी से एक साल छोटा था पर शैतान बहुत। उसके पास तरह-तरह के खिलौने ही मानी को आकर्षित करते। राज भी बड़ा अहसान जताते हुए अपनी मर्ज़ी से कोई खिलौना देता, वो भी कुछ देर को। कभी उसका मन होता तो…. तुरंत छीन लेता। मानी कभी मिन्नत करती, कभी धमकाती कि उसके पापा लाएंगे, तब वो भी उसे नहीं खेलने देगी।

मानी बाबा से राज की खू़ब शिकायत करती खिलौने न देने की…..
बाबा उसे समझाते, कहते- “मैं बना कर दूँगा तुझे खिलौने” और बाबा कैंची, पुराना अख़बार लेकर कभी टोपी, कभी नाव, कभी राकेट या फिरकनी बना कर देते। आई और बच्चे भी हैरान होते कि बाबा को इतना कुछ आता है?

मानी दौड़ जाती राज को बताने और चिढ़ाने।

उस दिन रविवार था। बाबा की छुट्टी थी। रविवार को अक्सर मानी बाबा के आसपास ही मंडराती रहती। उस दिन बाबा ने याद करके मेंढक बनाया। बहुत ही बढ़िया बनाया था। सब अचंभित भी थे। आई बोल उठी- “ये सब कबसे आता आपको? हमें तो पता ही नहीं था।”

बाबा मीठी सी मुस्कान के साथ बोल उठे- “बचपन मे ख़ूब बनाता था। मेरे बाबा ने सिखाया था सब।” अनोखी आभा और अल्हड़ता से उनका चेहरा दमक रहा था। आई उन्हें निहारती ही रही। बाबा की नज़र उनसे मिली तो शर्मा से गये बाबा और तुरंत ही अपना चेहरा कठोर बना लिया उन्होंने। आई ने तो इतनी ही देर में बाबा में एक अलग ही इंसान को देख लिया, जिसमें बालपन की मासूमियत थी।

समझ गयीं आई कि उनके बाबा के जल्दी ही देहांत हो जाने और अचानक आयी ज़िम्मेदारियों ने उन्हें कठोर बना दिया था। वरना अंदर तो अभी भी पुलक का झरना बह रहा है। विमला और कमला भी बहुत खुश थीं कि बाबा अब कभी-कभी अच्छे से बात कर लेते हैं।

मानी अपना मेंढक राज को दिखाने के लिए ले गयी। राज भी अचंभित था कि ऐसा प्यारा खिलौना तो उसके पास एक भी नहीं था। अपने महंगे खिलौनों के बीच ये मेंढक भारी पड़ रहा था। पहले तो राज मिन्नत करता रहा कि एक बार देखने को दे दे। लेकिन मानी नहीं मान रही थी। आज उसका पलड़ा भारी था। आज वो राज से अपने सारे बदले ले लेना चाह रही थी….जितना राज उसे परेशान करता था।

राज को गुस्सा आ गया। उसने ज़ोर से झपट्टा मारकर मानी से मेंढ़क छीनना चाहा पर मानी भी सावधान थी। उसने हाथ पीछे कर लिया। राज फिर से झपटा। मानी ने कस के मुठ्ठी बन्द कर ली मेंढक वाली। अब राज का गुस्सा चरम पर पहुंचा। उसे अपनी हार स्वीकार नहीं थी, उसने ज़ोर से मानी की पीठ पर धौल जमा दी। और मुठ्ठी में चिमटी काट ली।

मुठ्ठी खुल गयी और मुड़ा तुड़ा मेंढ़क राज ने छीनकर फाड़ दिया। मानी की तो मानो दुनिया ही लुट गयी। आक्रोश और बेबसी से लाल हो गया मानी का चेहरा। मानी जल्दी से बाबा के पास दौड़ी। बाबा ने उसे देखकर बाहें फैला दीं। मानी भी झट बुक्का फाड़कर रोते हुए उनकी गोद में सिमट गयी।

पहले बाबा ने उसे चुप कराया, पानी पिलाया और फिर प्यार से पूछा- “क्या हुआ हमारी रानी बेटी को?”
मानी ने सिसकते हुए अपनी हथेलियां दिखाते हुए कहा… “बाबा आपने जो मेंढक बनाया था ना..” कहते-कहते फिर उसकी रुलाई फूट पड़ी… बाबा ने पुचकारते हुए पूछा- “क्या हुआ गुम गया वो मेंढ़क?”

मानी ने अपनी नाजु़क गर्दन इनकार में हिलाते हुए कहा.. “नहीं”।
बाबा ने फिर से लाड़ किया और पूछा- “तो क्या हुआ? “राज ने छीनकर फाड़ दिया”…
“अरे हम दूसरा बना देंगे अपनी सोन चिरैया के लिए”, बाबा ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा।
“मारा भी उसने” मानी ने हिचकी लेते हुए कहा।
“कहाँ मारा मेरी लाड़ो को?”
बाबा ने भी मानी के इस बालरूप का आनन्द लेते हुए नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा.. मानी बोली, “पीठ में जोर से मुक्का मारा…बहुत दर्द हो रहा”, मानी भी दर्द को बढ़ा चढ़ाकर बताने लगी। बाबा ने मानी को अपनी छाती से लगाकर उसकी पीठ सहलाते हुए कहा- “बहुत ग़लत किया उसने। तुम्हें भी ऐसे मार नहीं खाना चाहिए। जाओ तुम भी उसकी पीठ में एक मुक्का मारकर आओ।”

मानी ने बाबा की आँखों में देखा, मानो वो भरोसा करना चाहती थी कि बाबा मज़ाक कर रहे हैं या सच बोल रहे हैं। बाबा की आँखों मे दृढ़ता थी । मानी ने आंसू पौंछते हुए पूछा-
“जाऊं….? उसने फिर मारा तो मुझे?”
बाबा बोले- “नहीं मारेगा। उसने ग़लत किया है तो अंदर से डरा होगा वो। फिर मैं हूँ ना।”
मानी बाबा की आंखों का इशारा पाकर राज के घर की ओर चल दी। राज अपने खिलौनों में व्यस्त था। मानी की तरफ उसकी पीठ थी।

मानी ने उसकी पीठ पर एक मुक्का मारा और भाग गयी। राज एकदम तो कुछ समझ नहीं पाया। कुछ पल लगे उसे समझने में, वो मानी के पीछे भागा पर तब तक मानी बाबा की  गोदी में पहुंच गयी थी। राज ने उसे देखा और चुपचाप वापस आ गया….।

मानी और बाबा-आई एक दूसरे की दुनिया बन गये थे। राज भी अब उससे लड़ता नहीं था। उसे बाबा से डर लगता था। अब वो सुधर गया था। मानी को खिलौने भी दे देता और उसके साथ खेलता भी था। मानी बहुत खुश थी आजकल…

उसके पापा उसे स्कूल में भी भर्ती जो करवाने वाले थे। उसकी स्लेट, कलम, बस्ता और किताबें भी आ गयी थीं। बाबा, आई, कम्मो जीजी, विम्मो जीजी, भाऊ सबको बस्ता दिखा आयी। किताब देखकर तो फूली नही समायी। रंग-बिरंगे चित्रों से सजी-धजी ख़ूबसूरत किताब। मानी अपनी किताब को दिन में कई-कई बार खोलकर देखती।

कल सुबह आठ बजे स्कूल जाना है एडमिशन के लिए.. ये बात सारे मोहल्ले को बता आयी थी। रोज़ बार-बार जगाने पर भी नहीं जागने वाली मानी उस दिन जल्दी ही उठ गयी।
जल्दी से ब्रश किया, नहायी, भगवान को प्रणाम करके ज़रा-सा भी नखरा दिखाये बिना उसने दूध भी पी लिया.. और स्कूल के लिए तैयार हो गयी।

पापा भी तैयार हो गये और मानी का हाथ पकड़कर स्कूल के लिए निकल गये। एडमिशन करवाकर स्कूल से लौटते समय मानी बहुत खुश थी। जल्दी से पूरी बात बाबा को बतानी थी। स्कूल कित्ता बड़ा…ढेर सारी बेंच, डेस्क और बड़ा-सा ब्लैक बोर्ड, स्कूल की ड्रेस, टीचर ने कितना प्यार किया आदि-आदि।

उतावली हो रही थी मानी….देर हो गयी तो बाबा आफिस न निकल जाएं। यही सोचकर लौटते ही दौड़ पड़ी उनके घर की ओर।

बाबा के घर मे घुसकर मानी दौड़ पड़ी सीढ़ियों की तरफ़ जो सीधे रसोई तक पहुंचती थीं। बाबा खाना खाने बैठ गये होंगे, उन्हें रोटी परोसना है। यही सोचते हुए चढ़ने लगी।
अंतिम सीढ़ी पर पहुंचते ही मानी ठिठककर खड़ी हो गयी। उसने देखा बाबा ने आई को एक थप्पड़ मारा…।

… बाबा का रूप उसके लिए नया था..। बाबा को मारते हुए देखकर ठगी-सी रह गयी।
आई के मुँह से कराह निकल गयी। बाबा का तमतमाया चेहरा देख मानी सहम गयी। उसे भरोसा नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है। कुछ पल ही गुज़रे होंगे कि मानी को कुछ याद आया…. वो आई से जाकर लिपट गयी… और उन्हें झकझोरते हुए ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।

बाबा को गुस्से और दुख से देखते हुए चीखकर बोली- “मारो…आप भी मारो बाबा को। आपको ऐसे मार नहीं खानी चाहिए। ग़लत किया बाबा ने। मारो आप भी मारो”……

आई पत्थर बन गयी थी। मानी की आवाज़ उनके कानों तक पहुंच ही नहीं रही थी। बाबा की आँखों के सामने कई दृश्य घूम गये। ये शब्द तो उन्हीं ने दिये थे मानी को, आज लौटकर उन्हीं के पास आ गये… उनसे सहन नहीं हुआ मानी की आंखों का दुख और नफ़रत….. मन टूट रहा था। मुठ्ठियां भिंच रही थीं, तन अकड़ा हुआ था बाबा का… पर सिर झुका हुआ…

मधु सक्सेना, madhu saxena

मधु सक्सेना

मूलत: कविता में मन रमता है और गाहे-ब-गाहे मधु सक्सेना गद्य लिखती हैं। कभी व्यंग्य तो कभी लेख, समीक्षा और कहानी का रुख़ करती हैं। तक़रीबन आधा दर्जन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और अनेक मंचों से काव्य पाठ कर चुकी हैं। समवेत संकलनों में कविता, कहानी संकलित हो चुकी हैं। कतिपय संकलनों के संपादन से भी आप संबद्ध हैं। अपने दिवंगत पति एवं परिजनों की स्मृति में आपने साहित्यिक/सामाजिक सम्मान भी स्थापित किये हैं।

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