shergoi, शेरगोई, विजय स्वर्णकार, शायरी, ग़ज़ल, अरूज़, छंदशास्त्र, ghazal, gazal, shayri, vijay swarnkar

मात्रा पतन: कुछ विशेष तथ्य-3

ये पसीना वही आंसू हैं जो पी जाते थे हम
“आरज़ू” लो वो खुला भेद वो टूटा पानी

इस शे’र की पहली पंक्ति और दूसरी पंक्ति की रवानी में अंतर चिह्नित कीजिए। दूसरी पंक्ति बहुत रवानी में है। पहली पंक्ति में बहुत-से (पांच) एक अक्षरीय शब्दों की उपस्थिति से पाठक शे’र की लय पकड़ने में कठिनाई अनुभव कर सकता है। अटकाव के दूसरे कारण पर आते हैं। पहली पंक्ति के अंतिम भाग में अगर “पी जाते थे हम” की जगह “पी जाते थे” ही रहता तो भी शे’र वज़्न में रहता। “पी जाते थे” रहने पर रवानी भी बेहतर होती। तो पहले इसी बात पर विचार करते हैं कि “आरज़ू लखनवी” जैसे बड़े शायर ने ऐसा क्यों किया है। पहली पंक्ति में आंसू कौन पी जाया करते थे, उसका स्पष्टीकरण ज़रूरी था, इसलिए “हम” जोड़ा गया। “हम” जोड़ते ही “जाते थे” को जल्दी से पढ़ने की आवश्यकता पड़ने लगती है। अतः “ते” और “थे ” दोनों को दबाकर पढ़ना पड़ रहा है। इससे एक नयी दिक़्क़त सामने आ रही है कि “ते” और “थे” को दबाकर पढ़ने पर लगभग एक समान स्वर के कारण स्पष्ट बोलने और सुनने की सुविधा नहीं रह गयी।

ये तो हुई रवानी की कमी पर बात। ध्येय यह नहीं है। ध्येय एक अक्षरीय शब्दों के मात्रा पतन के पैटर्न को समझना है। इस शे’र की पहली पंक्ति में “ये” “हैं” “जो” “थे” जैसे निरापद एक अक्षरीय शब्द हैं। इन्हें लघु या दीर्घ पर मनचाहे ढंग से बरता जा सकता है। लेकिन “पी” एक अक्षरीय होते हुए भी लघु की तरह यहां नहीं बरता जा सकता क्योंकि वह क्रियापद का हिस्सा है। “पी जाते थे” यह अंश क्रिया का हिस्सा है। ऐसे में एक अक्षरीय “पी” दीर्घ ही रहेगा। हां, दो अक्षरीय “जाते” का अंतिम अक्षर “ते” दीर्घ अवश्य है किंतु लघु की तरह बरता जा सकता है।

अब दूसरी पंक्ति में “लो” भी एक अक्षरीय है और विस्मयबोधक शब्द है। यहां दीर्घ ही है लेकिन लघु पर भी लिया जाता है जब आवश्यक हो। जैसे इस शे’र में देखिए:
आवाज़ दे के देख ‘लो’ शायद वो मिल ही जाये
वर्ना ये उम्र भर का सफ़र राएग़ां तो है

इस शे’र में “देख लो” वाक्यांश में “लो” अंतिम हिस्सा होने के कारण लघु हो सका। किसी वाक्यांश का हिस्सा न होने पर अकेले “लो” को भी लघु पर लिया जा सकता है।
हुआ रंगीन मन उपवन खिला है
‘लो’ फिर आईं प्रणय की तितलियां हैं

ये कुछ उदाहरण हैं, जिनसे हम एक अक्षरीय शब्दों को बरतने के विषय में सीख सकते हैं। आ, जा, पी, जी, रो आदि क्रियाएं भी मात्रा पतन सहन नहीं करती हैं।

इसी क्रम में यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि जब “ले के”, “चल के” आदि में “के” की मात्रा गिरायी जाती है तो वहां यही वर्तनी लिखी जाये। वहां “ले कर”, “चल कर” नहीं लिखा जाये और इसके उलट अगर “ले कर”, “चल कर” दो दीर्घ की तरह बरते जा रहे हों तो यही वर्तनी लिखी जाये। इससे पाठक को सुविधा रहती है। इसी तरह आवश्यकतानुसार ‘पे’ एक लघु के लिए और ‘पर’ एक दीर्घ के लिए लिखा जाये।

अब विरोधाभास देखिए। “जाएंगे”, “आएंगे” जैसे शब्दों में बीच का “ए” भी आवश्यकतानुसार दबाकर पढ़ा जाता है लेकिन ऐसा होने पर वर्तनी में कोई परिवर्तन नहीं करते हैं। “ए” चाहे लघु पर लिया जाये या दीर्घ पर, लिखने में मूल वर्तनी से छेड़छाड़ नहीं की जाती है।

“या” और “कि” के विषय में पहले भी चर्चा हुई है। “फ़िराक़” के कुछ शे’र देखिए :
जाम-ए-मय-ए-रंगी हैं कि गुलहा-ए-शगुफ्ता
मयखाने की ये रात है या सुबह-ए-गुलिस्तां
पैकर ये लहकता है कि गुलज़ार-ए-इरम है
हर अज़्व चहकता है कि है सौते-हज़ाराँ

उपर्युक्त अशआर में “कि” और “या ” को इस तरह बरता गया है कि जहां लघु की आवश्यकता थी वहां “कि” लिखा है और जहां दीर्घ की जगह है वहां “या” लिखा है। “या” की मात्रा अगर गिर सकती तो “कि” के स्थान पर कहीं न कहीं “या” भी आता लेकिन ऐसा देखने को नहीं मिलता। अगर “या” को संबोधन के लिए लाया जाये तब तो और भी नहीं। जैसे “या रब” जैसे वाक्यांशों में।

एक ग़ज़लकार की पहली चुनौती ग़ज़ल का वज़्न होता है। उसे मात्रा पतन, स्वर संधि आदि ट्रिक्स से थोड़ी सहूलियत मिल जाती है। अतः इनका सटीक ज्ञान और अभ्यास आवश्यक है। व्यावहारिक ज्ञान पर पुस्तकें भी कम ही हैं। आशा है भविष्य में कुछ और प्रामाणिक कार्य सामने आये।

विजय कुमार स्वर्णकार

विजय कुमार स्वर्णकार

विगत कई वर्षों से ग़ज़ल विधा के प्रसार के लिए ऑनलाइन शिक्षा के क्रम में देश विदेश के 1000 से अधिक नये हिन्दीभाषी ग़ज़लकारों को ग़ज़ल के व्याकरण के प्रशिक्षण में योगदान। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियंता की भूमिका के साथ ही शायरी में ​सक्रिय। एक ग़ज़ल संग्रह "शब्दभेदी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। दो साझा संकलनों का संपादन। कई में रचनाएं संकलित। अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *