
- May 30, 2025
- आब-ओ-हवा
- 1
मात्रा पतन: कुछ विशेष तथ्य-2
दो शे’र देखिए :
“नहीं एक दिन सर पे आवे क़यामत
“हो” जाओगे तुम सख़्तो-ग़म धीरे-धीरे”
“ये कोई डर है ज़रूरत है या है मजबूरी
जो उनके सामने बैठे “हो” सर झुकाये हुए”
इनमें “हो” पर ध्यान दीजिए। यह एक अक्षरीय शब्द है अतः इस दीर्घ की भी मात्रा गिराकर इसे लघु की तरह बरता जा सकता है। लेकिन एक पेंच है इसमें। पहले शे’र में “हो” अकेला क्रिया पद नहीं है। पूरी क्रिया “हो जाओगे” है। ऐसे में ये “हो” दीर्घ ही रहेगा। इसे लघु की तरह बरतने पर यह असहज और हास्यास्पद लगेगा। दूसरे शे’र में “हो” लघु की तरह बरते जाने पर सहज रहेगा। इसका कारण यह है कि इसके बाद क्रिया पद का कोई हिस्सा नहीं आता है।
इसी तरह “हो कर”, “हो गयी” आदि में “हो” हमेशा दीर्घ रहेगा। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि इस श्रेणी में “हो” अकेला शब्द नहीं है। “सो” पर आते हैं। “ग़ालिब ” के एक प्रसिद्ध शे’र का उदाहरण लेते हैं।
“दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
इक शम्अ रह गयी है ‘सो’ वो भी ख़मोश है”
एक शे’र “फ़राज़” की कालजयी ग़ज़ल से भी:
“सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
‘सो’ उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं”
इन दोनों अशआर में “सो” लघु के वज़्न में पढ़ा जाएगा। एक अक्षरीय शब्द अगर दीर्घ हो तो उसे लघु की तरह बरता जा सकता है- यह नियम यहाँ बराबर लागू हो रहा है। वहीं अगर “सो” किसी क्रिया पद के हिस्से से जुड़ा हो तब यह भी “हो” की तरह व्यवहार करेगा।
“ख़्वाब की वादियों से निकलता हुआ
चांद सो कर उठा आँख मलता हुआ”
इस शे’र में “सो” एक क्रिया पद का हिस्सा है और उसके बाद में “कर ” के जुड़े होने से अब “सो” को दबाकर नहीं पढ़ा जाये। लेकिन अगर किसी शे’र में ऐसा होता है तो “सु कर” की ध्वनि के कारण अनर्थ की संभावना है। इसी तरह “ले”, “दे” आदि के प्रयोग में भी सतर्कता बरतने की आवश्यकता है।
“इतने हिजाबों पर तो ये आलम है हुस्न का
क्या हाल हो जो देख “लें” पर्दा उठा के हम”
इस शे’र में “लें” लघु के वज़्न पर है और सहजता से प्रवाह बनाये हुए है। ध्यान दीजिए यहाँ “लें” अकेला है अतः मात्रा गिरने पर कोई अटकाव नहीं है। अगर कोई सहायक क्रिया इसके बाद होती तो फिर बात कुछ और होती। जैसे:
“हयात ले के चलो काएनात ले के चलो
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो”
यहाँ “ले” के बाद “के” आ रहा है। ऐसी सूरत में हमेशा “ले” दीर्घ ही होगा। शब्द “लेकर” या “लेके ” की तरह की इकाई हो जाएगा। और हम जानते हैं शब्द के अंतिम अक्षर की मात्रा ही गिरायी जा सकती है, पहले अक्षर की मात्रा नहीं गिरायी जाती।अभ्यास या प्रयोग के लिए इस शे’र को अगर निम्नानुसार कहा जाये तो देखिए क्या अंतर आता है:
“ले” के हयात चलो कायनात ले के चलो
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो
पहली पंक्ति के पहले “ले” पर ध्यान दीजिए। अब यह लघु की तरह बरता गया है। “ले” पढ़ने में भद्दा लग रहा है। इसी तरह एक और उदाहरण लीजिए:
‘मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस “ले” डूबी
तू वो बादल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं’
यहाँ “ले डूबी” क्रिया पद एक इकाई की तरह है। अगर अलग कर के पढ़ें तो देखिए क्या होता है:
“हवस “ले” डूबी जिसे पानी की, मैं वो सहरा
तू वो बादल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं”
अब “ले” लघु के वज़्न में है। अंतर साफ है। “ले” का उच्चारण सहज नहीं है। निष्कर्ष यह है कि एक अक्षरीय शब्द की मात्रा गिरायी जा सकती है लेकिन अगर वह अन्य सहायक शब्दों के साथ जुड़कर आता है तो सावधानी बरतनी चाहिए। “जो” अगर अकेला है तो उसकी मात्रा गिर सकती है लेकिन जैसे “जोकर” में “जो” की मात्रा गिराने से शब्द जोकर लगता है उसी तरह अन्य शब्द भी वाक्य में अपनी स्थिति और संगति के अनुसार अपनी गरिमा बनाये रखना चाहते हैं।

विजय कुमार स्वर्णकार
विगत कई वर्षों से ग़ज़ल विधा के प्रसार के लिए ऑनलाइन शिक्षा के क्रम में देश विदेश के 1000 से अधिक नये हिन्दीभाषी ग़ज़लकारों को ग़ज़ल के व्याकरण के प्रशिक्षण में योगदान। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग में कार्यपालक अभियंता की भूमिका के साथ ही शायरी में सक्रिय। एक ग़ज़ल संग्रह "शब्दभेदी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। दो साझा संकलनों का संपादन। कई में रचनाएं संकलित। अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
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विजय जी ग़ज़ल की जीवंत पाठशाला हैं।उनसेसे ग़ज़ल की बहुत सी बारिकियां सीखी जा सकती हैं/सीखनी चाहिए/सीख रहे हैं।