संस्मरण : वो स्कूल वाले दिन

संस्मरण : वो स्कूल वाले दिन

मैं बगल के गाँव में पढ़ने जाता था। तीसरी, चौथी और पाँचवीं क्लास वहीं पढ़ा। दूसरी क्लास तक तो घर पर ही पिता जी ने पढ़ाया। स्कूल तक जाने का रास्ता बड़ी चुनौतियों से भरा था। पहले तो कच्ची सड़क आधे रास्ते तक ही थी, वो भी हमारे गाँव के कब्रिस्तान से होते हुए। उसे पार करते हुए डर के मारे साँस अटकी रहती थी हम बच्चों की। तरह-तरह के भूत-प्रेतों की कहानी फैली हुई थी उस जगह को लेकर। अगर किसी दिन अकेले जाना हुआ तो समझो प्राण ही सूख जाते। भगवान का नाम लेते हुए तेज कदमों से वो जगह पार करते। फिर खेत की मेड़ों से होकर संभल-संभल के चलना होता। और फिर उस स्कूल वाले गाँव की सीमा में घुसने से पहले शहतूत, आम, बेर के पेड़ों वाला झाड़-झक्कर से भरा बगीचा भी पार करना पड़ता। लेकिन इन चुनौतियों के बीच रोमांचक भी बन जाता था ये सफर।

जिन दिनों में खेतों में गेहूँ और सरसों की फसल लगी होती, उनकी सुंदरता मन को मोहती। हम बच्चे शैतानियाँ भी खूब करते। गेहूँ के हरे तने को तोड़कर उसकी सीटी बनाकर बजाते और शोर करते हुए चलते जाते। कभी-कभी कोई किसान अपने खेतों में होता, तो हमें टोकता भी। पर हम मानते कहाँ! एक बार तो उस गाँव के कुछ लोग फसलों को नुकसान पहुँचाने की शिकायत लिए हमारे गाँव आ धमके। घर के बड़ों से खूब डाँट पड़ी। इसके बाद पूरी तरीके से तो नहीं, पर हमारी ये हरकतें कम हो गईं। कम से कम ये करते हुए हम सजग तो हो ही गए कि कोई देखे नहीं। तब दूसरों के खेतों से गन्ने भी तोड़कर खूब चूसते थे हम। आज सोचकर हँसी भी आती है और अब लगता है कि ग़लत भी करते थे तब।

हमारा वो प्रायमरी स्कूल दो कमरे और बरामदे से मिलकर बना था जिसका छोटा मैदान चारदीवारी से घिरा हुआ था। उस स्कूल की स्मृति मेरे पास कम ही है। क्योंकि इमारत जर्जर होने, बारिश में टपकने और महीनों तक मैदान में कीचड़ रहने से हमारे मास्साहब (टीचर जी) वहाँ कक्षाएँ न लगाकर, बगल के मंदिर और उसके पास के बगीचे में हमें पढ़ाते थे। मंदिर बहुत सुंदर था। उसकी पक्की सीढ़ियाँ आगे बढ़ते हुए एक झील में उतरती जाती थीं। उसे हम सागर कहते थे। बाकी तीन तरफ से ईंट और सीमेंट से बनी सरकावदार दीवारें झील के पानी से जा मिलती थीं। झील के चारों ओर कंदील फूल के पेड़, गुड़हल, गुलाब, गेंदे, सप्तपर्णी जैसे पौधे लगे होने से उसकी सुंदरता देखते ही बनती थी। उसके बगल में ही मंदिर के महंत बाबा के पिता जी की समाधि थी, जहाँ वह रोज अगरबत्ती, धूप और दीप जलाते। बगल के सुंदर हरे भरे बगीचे में मास्साहब हमारी कक्षाएँ लगाते, वहीं से हम बच्चे ये सब देखते। बारिश होने पर मंदिर प्राँगण हमारा ठिकाना बन जाता।

उन दिनों अपनी क्लास में बैठने के लिए हम बच्चे जूट के बोरे घर से ही लेकर आते। अलग-अलग पेड़ों के इर्द-गिर्द अलग-अलग कक्षाओं के बच्चे गोलाई में अपने बोरे बिछा कर बैठ जाते। स्कूल में एक ही मास्साहब थे जो बारी-बारी से अलग-अलग कक्षा के सामने अपनी लकड़ी की कुर्सी सरकवा दिया करते और ज़रूरी सबक पढ़ाते। अगली क्लास के बच्चों के सामने जाने से पहले वह हमें लिखने, पढ़ने या याद करने का काम दे जाते। पर हम ये काम करने से ज़्यादा आपसे में बतियाते और खेलते। जब वह हमारी तरफ़ देखते तो पढ़ने का नाटक करने लगते। हालाँकि ये चालाकी कभी-कभी हम पर भारी पड़ जाती। पकड़ में आने पर हाथ ऊपर करके खड़े होने की सजा मिल जाती। पर स्कूल की ये मस्ती हमें बहुत अच्छी लगती।

दोपहर में खाने की छुट्टी होती। उस गाँव के बच्चे तो अपने-अपने घर चले जाते खाना खाने, पर हम दूसरे गाँव वाले अपना खाना लेकर आते। कभी-कभी हम चावल की पोटली लाते, जिसे मंदिर के बगल में भड़भूजे के यहाँ भूनने को दे देते। भुने चावल को भूजा कहा जाता है। घर से लाए हुए पिसे नमक या नमक, धनिया, मिर्ची की चटनी के साथ उसे खाने के मजे हो अलग थे। उसका स्वाद अब तक नहीं भूलता है।

भड़भुजे बाबा के साथ हम भी भाड़ में सूखे पत्ते, लकड़ी और घास झोंकते और चावल के दानों को कूदते-उछलते हुए भूजा बनते देखते। खूब आनंद आता। भूनने के बदले एक चौथाई चावल हमें उन्हें देना होता। इसके लिए हम उनके सूप में अपनी पोटली खोलकर चावल गिरा देते और फिर चार बराबर हिस्से करके उनके चार कूरे या ढेर बना देते। भड़भूजा बाबा एक हिस्सा बगल में रखे अपने मटके में डाल लेते और बाकी तीन हिस्से खुले मुँह वाले मिट्टी के भाँड में डालकर भूनने लगते। जब चावल गर्म होकर कुछ भूरे हो जाते तब वो उसमें गर्म बालू डालकर लकड़ी से चावल और बालू एक में मिलाते हुए उन्हें हिलाते रहते। उछलते कूदते चावल भूजे में बदलने लगते। भूजे में बदलते ही भड़भूजे बाबा कपड़े की मदद से गर्म भाँड को चूल्हे के सामने बने छोटे गड्ढे के मुँह पर रखी चलनी में पलट देते। फिर चलनी को हिलाते हुए बालू और भूजे को अलग करते। आग वाले चूल्हेनुमा भाड़ में एक पिछले हिस्से पर टूटे हुए मिट्टी के बर्तन में डाली हुई बालू भी गरम होती रहती थी। थोड़ा ठंडा हो जाने पर वह बाबा भूजे को हमारी पोटली में फिर से बाँध कर हमें सौंप देते। इसे हम घंटों चबाया करते, खाना खाने की छुट्टी पूरी हो जाने के बाद भी। इन सबमें बड़ा मजा आता।

पिछले साल गाँव जाने पर बहुत साल बाद अपने उस स्कूल, मंदिर, उसके झील आदि को देखने की इच्छा हुई। सुबह-सुबह ही मेरे कदम उस ओर बढ़ गए। देखा कि गाँव की सीमा पर पड़ने वाले कब्रिस्तान को चारदीवारी से घेर दिया गया है और एक पतली सड़क उसके बगल से निकाल दी गई है। देखकर अच्छा लगा। हालाँकि आगे जाने के लिए रास्ता अब भी खत्म हो जाता है। मेड़ों से होकर ही जाना पड़ा। बगल के गाँव में घुसते हुए शहतूत, बेर, आम और झाड़ झाकर वाला वो बगीचा बिलकुल उजड़ा हुआ महसूस हुआ। वहाँ अब बहुत कम पेड़ बचे थे। कुछ घर भी वहाँ बन चुके थे। पुरानी हरियाली की बरबस याद हो आई। आगे बढ़कर स्कूल के पास पहुँचा तो उसे अच्छी अवस्था में पाया। इमारत दुबारा बनाई गई है। चारदीवारी की गेट से देखा तो पता चला कि अन्दर पढ़ाई हो रही है। बच्चों की आवाज़ आ रही थी। वहाँ मुझे कोई जानता तो था नहीं, हमारे मास्साहब भी काफी पहले रिटायर हो चुके, इसलिए घूमकर मंदिर की ओर आ गया। वो बिल्कुल वैसे ही था, बस थोड़ा पुराना और जर्जर प्रतीत हो रहा था। झील की ओर उतरती उसकी पक्की सीढ़ियाँ टूटी-फूटी सी दिख रहीं थीं। सागर में पानी न के बराबर और गंदा था जो मेरी स्मृतियों के चित्र से बहुत अलग था। वहाँ का बगीचा और समाधि स्थल के आसपास की सफाई गायब थी। सबकुछ श्रीहीन और उजड़ा हुआ सा लग रहा था। मन को एक उदासी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। वहीं पीपल के नीचे बैठी अम्मा से मैने पूछा कि, “अम्मा यहाँ का बगीचा कटवा दिया किसी ने क्या?” तो उन्होंने मुझे हैरत से देखते हुए कहा, “लगता है बाबू बड़े दिन बाद लौटे हो ?” एक गहरी सांँस भरते हुए वो आगे बोलीं, “अब बाग-बगीचे का ध्यान कौन रखता है लला…जब तक महंत बाबा थे तब तक मंदिर चमकता था, सागर लबालब था, पेड़ पौधे और हरियाली सब कायम थे। उनके जाने के बाद उनका परिवार रोजगार के लिए शहर जा बसा। यहाँ की देख-रेख के लिए कोई न बचा। सब उजड़ गया। नए पुजारी सिर्फ़ सुबह-शाम पूजा करने आते हैं।” कहकर जैसे वो भी स्मृतियों की गली में कहीं खो सी गईं। मैं भी उदास मन से अपने घर की ओर लौट पड़ा। पर मन में ये चलता रहा कि सिर्फ़ एक व्यक्ति के न होने से दुनिया कैसे बदल जाती है!

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आलोक कुमार मिश्रा

पेशे से शिक्षक। कविता, कहानी और समसामयिक मुद्दों पर लेखन। शिक्षा और उसकी दुनिया में विशेष रुचि। अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनमें एक बाल कविता संग्रह, एक शैक्षिक मुद्दों से जुड़ी कविताओं का संग्रह, एक शैक्षिक लेखों का संग्रह और एक कहानी संग्रह शामिल है। लेखन के माध्यम से दुनिया में सकारात्मक बदलाव का सपना देखने वाला मनुष्य। शिक्षण जिसका पैशन है और लिखना जिसकी अनंतिम चाह।

2 comments on “संस्मरण : वो स्कूल वाले दिन

  1. बहुत बढ़िया,रोचक और भावप्रवण।

    लोग कहते हैं गाँव वाले मेहनती होते हैं, प्रकृति प्रेमी अपनी धरती अपने वृक्षों की देखभाल करते हैं फिर इतने सुंदर हरे-भरे ग्राम्यांचल कैसे उजड़ गए।

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